टोरोंटो एअरपोर्ट से अंतराष्ट्रीय उड़ानों का सिलसिला जारी था। दोपहर के क़रीब दो बज रहे थे। दुनिया के कोने-कोने में जाने वाले यात्रियों से हवाई अड्डे का चेक-इन एरिया खचाखच भरा हुआ था। रह-रह कर अनांऊसिंग भी चल रही थी, जिसमें यात्रियों को जाने वाली उड़ानों के बारे में बताया जा रहा था और साथ ही उन्हें सफ़र के दौरान ले जाने वाली वस्तुओं के बारे में भी समझाया जा रहा था। सितम्बर ११ के बाद से दुनिया के प्रमुख हवाई अड्डों के सुरक्षा प्रबन्धों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है। यात्रियों को अपनी फ़्लाईट से क़रीब चार घंटे पहले हवाई अड्डे पँहुचना पड़ता है और उनके बड़े साज़ो-सामान से लेकर छोटी से छोटी चीज़ की भी बड़ी बारीक़ी से जाँच होती है। किसी भी टूथ पेस्ट, क्रीम या कोई सा भी तरल पदार्थ १०० मि. ली. से ज़्यादा नहीं ले जाया जा सकता है। इस तरह की बहुत सी अड़चनें खड़ी हो चुकी हैं। इन सारी बातों को हवाई अड्डे पर अनाऊँसिंग के जरिये यात्रियों को पहले ही सूचित किया जाता है ताकि वो इस क़िस्म का अनावश्यक सामान बाहर ही छोड़ दें या उसे अपने चेक बैग में डाल दें, फिर भी कितने ही यात्री ऐसा सामान लेकर अंदर पहुँच जाते हैं जिससे सुरक्षा कर्मचारियों को यह सामान निकालने को बाध्य होना पड़ता है।
यात्रियों की लम्बी लाईनें हर एअर लाईन के काउंटर पर लगी हुई थी। जिन यात्रियों के पास अभी वक़्त था या जिनकी फ़्लाईट अभी देर से जानी थी, वो सारे कुर्सियों पर पीठ टिकाये बातों में मसरूफ़ थे। बच्चों ने अलग अपना शोर मचा रखा था, कोई किसी के पीछे दौड़ रहा था तो कोई सामान वाली गाड़ी वापस मशीन में डाल कर पच्चीस सेन्ट वापस लेकर ख़ुश हो रहा था। किसी की आँखों में विदाई के आँसू थे तो किसी की आँखों में छुट्टियों पर जाने की चमक थी। फ़ूड-कोर्ट में अपनी धूम मची हुई थी। कोई कुछ खा रहा था, तो कोई कॉफ़ी या बीयर की चुस्कियाँ ले रहा था। हवाई अड्डे के कर्मचारी भी अपनी रंग-बिरंगी पोशाकों में इधर से उधर जाते हुए देखे जा सकते थे। इसी तरह की चहल-पहल और गहमा-गहमी के बीच बलदेव धीरे-धीरे अपना बैग उठाये हवाई अड्डे में दाख़िल हुआ था।
बलदेव सिंह क़रीब पचास-पचपन साल का एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति था। आम सिक्खों की तरह उसके कपड़े भी साधारण ही थे। उसने हल्के नीले रंग की कमीज़ और काले रंग की ढीली-ढाली पैंट पहनी हुई थी। उसकी पगड़ी का रंग भी आसमानी था। इस बीच उसकी सफ़ेद दाढ़ी खुली हुई थी जो अच्छी लग रही थी परन्तु उसकी आँखों से झाँकती उदासी को छुपाने में असमर्थ थी। धीमे-धीमे क़दमों से चलता हुआ वह के.एल.एम. के काऊन्टर के सम्मुख लगी कुर्सियों के क़रीब आया और एक ख़ाली कुर्सी देख कर उस पर बैठ गया। अपना बैग उसने अपनी गोद में रखकर अपने हाथ उस पर यूँ रख लिये मानों उसमें कोई कीमती सामान हो। उसने सरसरी नज़र से हवाई अड्डे का जायज़ा लिया और अपनी पुश्त कुर्सी से टिकाते हुए आँखें बन्द कर ली। उसकी फ़्लाईट में अभी क़ाफ़ी देर थी। हवाई अड्डे के शोर-शराबे के बीच बलदेव अपनी बन्द आँखों के अन्दर ही अन्दर अतीत की दुनिया में डूबता चला गया।
जालन्धर से पठानकोट जाने वाली मुख्य सड़क पर इसापुर नाम का एक गाँव है जहाँ बलदेव अपने पुरखों से मिले मकान में रहता था। थोड़ी-बहुत ज़मीन भी उसके पास थी जो उसने ठेके पर दे रखी थी। बलदेव के पिता ने भले उसके लिये बहुत सारी ज़मीन-जायदाद न छोड़ी हो परन्तु उसने बलदेव को गाँव के स्कूल से मैट्रिक पास करवा कर, फिर जालन्धर आई.टी.आई से तीन साल का लाईनमैन वाला कोर्स करवा के बिजली बोर्ड में भर्ती करवा दिया था जिसकी वजह से बलदेव को जायदाद की कमी कभी महसूस नहीं हुई और उसकी ज़िन्दगी सुगमता से कटती चली गई। उसकी शादी भी सही समय पर राजवीर उर्फ़ रज्जी के साथ हो गई जिससे उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम विक्रमजीत था जिसे सब विक्की कह कर बुलाते थे।
बलदेव के पिता अनपढ़ होने के बावजूद एक ज़हीन क़िस्म के इन्सान थे। उनकी बातें बहुत गूढ़ अर्थ रखती थीं। बलदेव को समझाते हुए वे अक़्सर कहा करते थे, “बलदेव पुत्तर, जायदाद तो अस्थायी होती है, ज्ञान सारी उम्र का साथी होता है। शरीर में जितना लहू ज़रूरी होता है उतनी ही जीवन में विद्या ज़रूरी होती है।”
बहुत सही कहा करते थे पिताजी, वह कई बार सोचता। “एक बात और याद रखना पुत्तर,” वो आगे कहते, “सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नहीं जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं। जीवन केवल एक गुण वाला दीपक नहीं बल्कि कई गुणों से चमकने वाला सूर्य होता है जो स्वयं तो चमकता ही है दूसरों को भी रोशन करता है।”
इस तरह की सैंकड़ों बातें थीं जो बलदेव के जीवन में ढल गई थीं। उसने अपने पुत्र विक्रमजीत यानी विक्की को भी इसी अंदाज़ में पालने की कोशिश की थी। विक्की बी.ए. फ़ाईनल की तैयारी में ही था जब उसके ज़ेहन में विदेश जाने का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। एक दिन घर में बातों-बातों में वह बलदेव से बोला, “पिताजी, मैं अपने पेपरों के बाद कैनेडा जाना चाहता हूँ।”
“क्यों?” बलदेव ने पूछा, “आख़िर हमें यहाँ किस चीज़ की कमी है जो तुम बाहर हमसे दूर जाना चाहते हो।”
“क्योंकि मुझे यहाँ भारत में कोई ख़ास तरक्क़ी के रास्ते नज़र नहीं आते हैं,” विक्की ने जवाब दिया, “भविष्य नाम की कोई चीज़ यहाँ दिखाई ही नहीं देती है। यहाँ जीवन गुज़ारना दिनों-दिन टेढ़ी खीर होता जा रहा है।”
“क्यों, क्या हम लोगों ने अपना जीवन यहाँ नहीं गुज़ारा?” बलदेव अपने इकलौते पुत्र को स्वयं से दूर करने के पक्ष में नहीं था, इसलिये बोला, “मैं मानता हूँ बहुत सारे लोग विदेशों में जाकर बस गये हैं और उन लोगों ने तरक्क़ी की बेमिसाल मंज़िलें भी तय की हैं, मगर इसका ये मतलब नहीं कि जो भी मुँह उठाये विदेश चला जाये।”
“क्या बात करते हैं पिताजी,” विक्की बोला, ” भला उन मुल्कों से हमारा क्या मुक़ाबला है? जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा हो वहाँ क्यों न जाया जाये?”
“परन्तु विक्की पुत्तर, विदेश में भी अब पहले जैसे हालात नहीं रह गये हैं। पहले तो अनपढ़ व्यक्ति भी वहाँ जाकर सैट हो जाते थे परन्तु अब पढ़े-लिखे लोगों को भी अनेक मुश्किलें आती हैं। अपने तरीक़े का काम न मिलना, रोज़गार का मंदा होना, आबादी का बढ़ता प्रभाव आदि सब वहाँ भी देखा जा सकता है। ऐसे में तो मैं सोचता हूँ कि अपना ही देश बेहतर है,” बलदेव ने अपना पक्ष रखते हुए कहा।
“हो सकता है आप सही कह रहे हों, पिताजी,” विक्की फिर बोला, “पर मैं इससे सहमत नहीं, जहाँ तक मैं समझता हूँ उन देशों में अभी भी बहुत स्कोप है। तकनीकी विद्या में तो वो हमसे इतना आगे जा चुके हैं कि हमें वहाँ पहुँचने में अभी सदियाँ लगेंगी।”
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, आजकल हमारे यहाँ भी तरक्क़ी की अच्छी-ख़ासी रफ़्तार है,” बलदेव ने कहा।
“मगर उनका सामाजिक और सरकारी ढाँचा हमसे कहीं बेहतर है। जहाँ हम चींटी की रफ़्तार से चल रहे हैं वहाँ वो जेट रफ़्तार से आगे जा रहे हैं। यहाँ भारत में तो हमसे पूरी ज़मीन पर खेती तक नहीं हो पाती और वो दूसरे ग्रहों पर दुनिया बसा रहे हैं।” विक्की पीछे नहीं हटना चाहता था।
“वो लाख चले जायें दूसरे ग्रहों पर, लेकिन इस मशीनी युग में सब-के-सब मशीन बन के रह गये हैं। ऐशपरस्त तो हैं ही मतलबपरस्त भी कम नहीं। ख़ुश्क लोग, ख़ुश्क उनका देश। अपना मतलब है तो बात करते हैं नहीं तो किसी की परवाह नहीं करते,” बलदेव भी पीछे नहीं हट रहा था।
“यह उनका अपना जीने का ढंग है, इससे हमें क्या लेना-देना है?” विक्की ने बहस जारी रखी।
“और भी सुनो पुत्तर, उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं किसी के लिये कोई आदर-मान नहीं, कोई सत्कार नहीं है। ऐसे देश में रहा तो जा सकता है परन्तु अलग-थलग सा होकर। अपनी पहचान बनाते एक उम्र निकल जाती है। साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं, बस दौड़ते रहो, दौड़ते रहो . . .,” बलदेव विचलित हो उठा था।
“अब आप भावुक हो रहे हैं, पिताजी” विक्की ने फिर कहा, “यह तो आपको मानना ही चाहिये कि भावुकता से ज़िन्दगी नहीं चलती है। हवा में ख़्याली घोड़े दौड़ाने से बेहतर है कि हम ठोस धरातल पर पाँव टिका कर आसमान पर नज़र रखें। व्यर्थ की भावुकता में बह कर जीवन को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिये।”
“अपनी सभ्यता और संस्कृति बहुत अमीर है, पुत्तर,” बलदेव विक्की को समझाते हुए कहने लगा, “अगर मानव सभ्यता के इतिहास को देखो तो जानोगे किसबसे ज़्यादा योगदान हमने डाला है। यह ठीक है कि समय के साथ-साथ इस बड़े दरख़्त के आस-पास कुछ कंटीली झाड़ियाँ ज़रूर उग आई हैं परन्तु उससे दरख़्त की शान में कोई कमी नहीं आई है।”
“अगर ये सच होता तो बाहर के लोग यहाँ काम करने आते,” विक्की न समझने वाले अंदाज़ में बोला, “मगर ऐसा नहीं है। आजकल, शायद ही ऐसा कोई भारतीय नौजवान होगा जो विदेश न जाना चाहता हो। अपने ही गाँव में देख लीजिये, जिनको धेले की भी अक़्ल नहीं थी वो भी कैनेडा जैसे मुल्कों में जाकर लाखों में खेल रहे हैं। उन लोगों ने गाँव में कितनी बड़ी-बड़ी शानदार कोठियाँ बनवा रखी हैं वो तो आपने भी देखी हैं . . .!”
“और उन कोठियों में रहता कौन है . . .बताओ . . .? कोई नहीं न . . .,” बलदेव बोला, “ऐसी कोठी बनाने का क्या लाभ जिसमें रहने वाला कोई न हो . . . विक्की पुत्तर, संयुक्त परिवार के महत्व को समझो, जिसमें सुरक्षा, उन्नति और संतुष्टि संभव होती है। तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, मैं तुमसे फिर पूछता हूँ कि हमें यहाँ किस बात की कमी है जो तुम हमसे इतनी दूर जाना चाहते हो।”
लेकिन विक्की अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। विदेश जाने की धुन उस पर इस क़दर हावी थी कि बलदेव और रज्जी का समझाना किसी काम न आया। पेपर समाप्त होते ही विक्की जाने की तैयारी में व्यस्त हो गया। उसने पहले ही पासपोर्ट बनवाकर कनेडियन इंबेसी में इमीग्रेशन के लिये अप्लाई किया हुआ था। विक्की के सितारे बुलन्दियों पर थे तभी तो समयानुसार सारे काम होते चले गये। उसका रिज़ल्ट क्या निकला कि कुछ दिन बाद ही उसका वीज़ा भी आ गया। जिस दिन उसका वीज़ा आया उसके तो पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।
“मम्मी . . . मम्मी . . . माता . . . ओ माता . . . कहाँ हो,” वह चिल्लाते हुए घर में घुसा। वह जब बहुत ख़ुश होता था तो अपनी माँ को माता कह कर बुलाता था।
“क्या है . . . क्या बात है . . . क्यों आस्मान सर पर उठा रखा है . . . हे वाहेगुरू, इस लड़के को अब तू ही कुछ सिखा, मेरे तो ये बस का नहीं है,” रज्जी कमरे से बाहर आते हुए बोली, “हाँ . . . अब बता क्या बात है?”
“ये देख क्या है . . .?” विक्की ने उसके चेहरे पर वीज़े के पेपर लहराते हुए कहा।
“क्या है . . .?” रज्जी ने पूछा।
“अरे.. ये हैं मेरे कैनेडा जाने के काग़ज़ात और अब बहुत शीघ्र ही तेरा सपूत कैनेडा की धरती पर पाँव रखने वाला है . . . जट्ट चल्लेया कैनेडा नूं . . . हुण जट्ट चल्लेया कैनेडा नूं . . .,” वह गाते हुए बोला। सुनते ही रज्जी गम्भीर हो गई। माँ भी ईश्वर की अद्भुत देन है। अपनी औलाद के लिये हर ख़ुशी चाहने वाली माँ उसके दूर जाने के विचार से ही व्यथित हो उठती है। फिर भी स्वयं को सँभालते हुए रज्जी बोली।
“चलो . . . अच्छा हुआ . . . तू कब से इन काग़ज़ों की राह देख रहा था, पर बेटा, तुझे इतनी दूर भेजने को मेरा मन नहीं मान रहा है। कहीं वहाँ जाकर तू हमें भूल तो नहीं जायेगा?”
“अरे . . . क्या बात करती हो माता,” विक्की अभी भी चहक रहा था, “तुम मुझे जाने तो दो, बस साल भर में ही तुझको और पापा को वहीं बुला लेना है फिर हम वहाँ सारा परिवार मज़े से रहेंगे।”
“अब हम वहाँ जाकर क्या करेंगे पुत्तर,” बलदेव घर के अंदर आते हुए बोला। उसने अंदर आते हुए माँ-बेटे के वार्तालाप के आख़िरी हिस्से को सुन लिया था। वह सारी बात समझ चुका था।
“अपनी तो सारी उम्र इसी जालंधर से इसापुर के बीच ही कटी है। अब और कहीं जाने को मन नहीं करता है। ख़ैर, तेरा वीज़ा आ गया है, यह अच्छी ख़बर है। तू तैयारी कर और जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो वह ले ले किसी भी बात की चिन्ता मत करना, मैं हूँ न . . .,” बलदेव भावुक हो उठा था।
“और हाँ बेटा,” रज्जी बोली, “वहाँ जाकर अपने देश, अपने गाँव, गाँव की मिट्टी को भूल न जाना। ये सब तुझमे समाये हैं, बेटा। जब जी चाहे चले आना, हम सब हमेशा तेरी राह देखेंगे . . .।” कहते हुए रज्जी की आँखो से आँसू बह चले।
“और इन रिश्तों को समय की दीमक भी कभी खोखला नहीं कर पायेगी,” बलदेव ने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “और हाँ . . .एक बात है कि हम तेरा कैनेडा देखने तो एक बार ज़रूर आयेंगे। वो क्या कहते हैं उसे . . .हाँ . . . नियाग्रा फ़ॉल और सीन टॉवर . . .!”
“सीन टॉवर नहीं पापा, सी.एन. टॉवर!”
“हाँ . . . हाँ . . . वही . . . वही . . .,” बलदेव ने अपने आँसू छुपाते हुए बात समाप्त की।
इस तरह विक्की टोरोंटो पहुँच गया। नई जगह थी, नये लोग थे। यूँ तो टोरोंटो निवासी काफ़ी मिलनसार थे, मगर मशीनी युग ने उन्हे भी मशीन बना दिया था। तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी ने सबको दौड़ते रहना सिखा दिया था। विक्की अपने दोस्त लवली के घर पर ठहरा था जिसके पास कई ट्रक थे जो कैनेडा से अमेरिका के बीच सा\मान ले जाने और ले आने पर लगे हुए थे। लवली ने अपनी ख़ुद की ट्रांसपोर्ट कंपनी ”लवली ट्रांसपोर्ट” भी चलाई हुई थी जिसमें दर्जनों और लोगों के ट्रक भी चलते थे।
लवली और विक्की स्कूल के साथी थे। दसवीं पास करते ही लवली अपने माँ-बाप और छोटी बहन शालू के साथ कैनेडा आ गया था। उसकी बड़ी बहन अमन की शादी कैनेडा में हुई थी सो उसी की स्पॉन्सरशिप पर लवली समेत परिवार कैनेडा आ गया था। शालू अभी पढ़ रही थी और ज़ेब ख़र्च के लिये सप्ताहांत पर काम भी किया करती थी। शालू को विक्की भी अपनी बहन ही मानता था। विक्की के कैनेडा आ जाने से शालू भी बहुत ख़ुश थी, उसे लगता था कि उसका एक और भाई यहाँ आ गया है। लवली के माता-पिता अब शालू की शादी शीघ्र ही कर देना चाहते थे ताकि अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकें । उसके लिये वो योग्य वर की तलाश में थे। लवली के सैंकड़ों जानकार थे जिनमें से ज़्यादातर ट्रक ड्राईवर, ट्रक ऑपरेटर, डिस्पैचर्स और वर्कशॉप वाले थे। वह अपनी बहन के लिये किसी उच्च कोटि के रिश्ते की तलाश में था। उसकी अपनी शादी तो पंजाब में ही हुई थी। अब उसे एक बेटा भी था। लवली को देख कर विक्की उससे अपनी तुलना करने लगता। साथ-साथ पढ़ने वाले उन दोनों में अब कितना अंतर आ गया था। दोनों की क़िस्मत कितनी जुदा थी। इन पाँच-छह सालों मे लवली कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पंजाबियों की घनी आबादी वाले शहर ब्रैम्पटन में लवली के पास एक बहुत बड़ा मकान था। उसके पास तीन नई चमकीली गाड़ियाँ थीं और एक बड़ा सा फ़ोर-बाई-फ़ोर था जिसमें अपने दोस्तों को लेकर वह हर सप्ताहांत नियाग्रा चला जाता जहाँ सारी-सारी रात दारू पी जाती और कसीनो में पैसे उड़ाये जाते। यूँ तो लवली के बहुत सारे दोस्त थे पर हैप्पी और बल्ली उसके बहुत गहरे मित्र थे जो उसके कारोबार के साथी होने के साथ-साथ सुख-दुख के साथी भी थे। रिंकू और बिट्टू भी उसके दोस्तों में से थे। अब तो विक्की भी उनके साथ जाता था और उनकी ऐय्याशी में गाहे-बगाहे शामिल होता था। लवली उससे बराबर कहता था, “यार . . . विक्की . . . तू भी जल्दी से ट्रक का लाईसेंस ले ले और ट्रक चलाना शुरू कर दे। यह जो मेरी ऐशो-आराम की ज़िन्दगी तू देख रहा है, यह इन्ही ट्रकों की देन है। अपने लोग ज़्यादातर इसी धंधे में हैं। इसी में पैसा है, चाहे तो टैक्सी चला, चाहे तो ट्रक चला।”
“पर, लवली, मैं सोचता हूँ कि कोई ढंग का पेशा क्यों न अपनाऊँ,” विक्की बोलता, “मैं इस काम को बुरा नहीं समझता परन्तु इसमें आराम नाम की कोई चीज़ नहीं है। आदमी कोल्हू का बैल होकर रह जाता है। एक ही सीट पर घंटों बैठे रहने से हाज़मा ख़राब हो जाता है जिससे कई रोग लग जाते हैं। कभी मौसम आड़े आता है तो कभी सरकार। दिन और रात सब एक हो जाते हैं। नहीं . . . नहीं . . . यह काम मेरे लिये नहीं है। मैं तो कुछ और ही देखूँगा।”
लेकिन विक्की के लाख मना करने पर भी, लवली ने उसे ट्रक का लाईसेंस दिलवा दिया और अपना एक ट्रक उसे चलाने को भी दे दिया। विक्की उसके लिये काम करने लगा। अमेरिका के चक्कर लगने लगे। अब उसे भी मज़ा आने लग गया। चार पैसे उसकी ज़ेब में होने लगे। वह लवली से अलग होकर एक अपार्टमेंट में रहने लगा परन्तु वह जब भी टोरोंटो में होता नियाग्रा में दारू और कसीनो का प्रोग्राम ज़रूर बनता था।
धीरे-धीरे विक्की को सब समझ में आने लगा। उसके सारे दोस्त ट्रकों के जरिये किस तरह का धंधा करते हैं, वह समझने लगा। कैनेडा और अमेरिका के दरम्यान ट्रकों के जरिये ड्रग्स की स्मगलिंग का एक बहुत बड़ा जाल फैला हुआ था। माल इधर से उधर आता-जाता था। ज्यों-ज्यों यह सारी कलई खुलती गई, विक्की के रौंगटे खड़े होते गये। वह पैसा ज़रूर चाहता था मगर इस तरह के पैसे में उसकी कोई रुचि नहीं थी। लवली की सारी अमीरी का राज़ अब उसके सामने था। उसे शर्म आने लगी कि वह उन लोगों के लिये काम कर रहा है जो उसके दोस्त हैं और अब इस काले धंधे का एक हिस्सा बन चुके हैं। इस बात को लेकर कई बार उसकी लवली, बल्ली और हैप्पी से बहस भी हो जाती थी। आख़िरकार एक दिन इस बहस ने उग्र रूप धारण कर लिया।
“देख विक्की, तू हमें बार-बार समझाने का अपना यह तरीक़ा बदल दे क्योंकि इससे कुछ भी होने-हवाने वाला नहीं है और हम कोई अकेले ही इस धंधे में नहीं हैं। दुनिया के लाखों लोग इस धंधे में लगे हुए हैं,” लवली ने ज़रा तेज़ स्वर में कहा।
“सिर्फ़ कुछ लोगों के इस धंधे में शामिल होने से यह धंधा पवित्र नहीं हो जाता है लवली,” विक्की ने उसे समझाने वाले अंदाज़ में कहा, “चन्द लोग अगर कुएँ में गिरे हों तो उनको कुएँ से निकालने की बजाय क्या तुम भी कुएँ में छलाँग लगा दोगे?”
“इसके लिये हम तो उन्हें नहीं कहते,” लवली उत्तेजित होने लगा, “हमारा काम तो सिर्फ़ यह है कि माल ले जाकर उसकी डिलीवरी दें और अपना किराया लें, इसके आगे क्या होता है उससे हमें कोई सरोकार नहीं है।”
“कभी यह भी सोचो लवली कि इस धंधे के कारण जिनको ड्रग्स की लत पड़ जाती है उनका क्या हाल होता है? उनके माँ-बाप पर क्या बीतती है?” विक्की फिर बोला, ” मैंने सुना है कि यहाँ स्कूलों-कॉलेजों में छोटी उम्र के लड़के-लड़कियों को फ़्री ड्रग्स देकर उन्हें इसका आदी बनाया जाता है। आदी होने के बाद वे बिचारे इसे पाने लिये कोई सा भी अपराध कर बैठते हैं।”
“मैंने तुमसे कहा न इसमें हमारा कोई दोष नहीं है,” लवली गर्मा हट में बोल रहा था, “माल आगे कहाँ जाता है, कौन खाता-पीता है उससे हमें क्या लेना-देना है।”
“लेना-देना है लवली . . . लेना-देना है . . .,” विक्की भी तैश में बोला, “नशा समाज को खोखला कर देता है। ज़रा सोचो, एक-एक करके अगर सब-के-सब इसी तरह नशे में डूब गये तो देश और समाज का क्या बनेगा, पूरी मानव-जाति का क्या बनेगा? आने वाली नस्लें कैसी होंगी? जिन ऊँचाईयों पर हम जाना चाहते हैं क्या वह संभव हो पायेगा?”
“तुम अपनी ये दलीलें किसी और को देना, हमें इस तरह के मश्वरे की कोई ज़रूरत नहीं है।” लवली क्रोध में था।
“अच्छा लवली एक बात बताओ,” विक्की भी ज़िद पकड़े था, “भगवान न करे,कल को यदि तुम्हारा अपना बेटा नशे में धुत होकर अपनी जान गँवा बैठे तो तुम पर क्या बीतेगी और क्या तुम शालू का रिश्ता किसी ऐसे लड़के के साथ करोगे जो नशेड़ी और नकारा हो?”
“बस . . . बहुत हो गया . . .,” लवली लगभग चीख़ते हुए बोला, “आज से तेरे-मेरे रास्ते अलग हैं। अगर तुम हमारे साथ मिलकर नहीं चल सकते तो तुम अलग होकर जैसा चाहो वैसा करो।”
“ठीक है . . . मुझे कोई ऐतराज नहीं, लेकिन मैं फिर कहूँगा कि सुधर जाओ, छोड़ दो ये काले धंधे, इसमें पैसा ज़रूर है पर मन की शान्ति नहीं है। मन की शान्ति तो अपनी मेहनत से कमाये पैसे में ही होती है।”
“तुम अपना भाषण अपने पास रखो और चलते बनो,” हैप्पी भी बोल पड़ा।
“मैं तो जा रहा हूँ पर तुम सब याद रखना, जैसा बोया जाता है वैसा ही काटा जाता है। रिंकू और बिट्टू को ही लो, एक दिन किस तरह तुम्हारे साथ मिल कर यही धंधा करते थे और आज देख लो, ज़रा सी बात पर किस तरह तुम्हारे दुश्मन बने घूम रहे हैं। तुम दोनों एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो चुके हो। यही मिला है तुम्हें इस धंधे से और . . .”
“कहा न कि तुम अपना भाषण बन्द करो और दफ़ा हो जाओ। हमें जो करना है, हम जानते हैं। रिंकू-बिट्टू से भी निपटना हमें आता है,” बल्ली भी ग़ुस्से से उबल पड़ा।
इसके बाद विक्की उनसे अलग होकर किसी और कंपनी में ट्रक चलाने लगा। लवली वगैरह से अब उसकी मुलाक़ात कम होती थी। उड़ती-उड़ती ख़बरों से ही उनके बारे में विक्की को पता चलता था। लवली ग्रुप के साथ रिंकू ग्रुप की दुश्मनी बढ़ती गई। आपस में उनकी कई बार झड़पें भी हो चुकी थीं। एक बार लवली चोटें लगने की वजह से अस्पताल में भी भर्ती हुआ। जब विक्की को पता चला तो वह उसे देखने गया। वहाँ उसने लवली को फिर से समझाने की कोशिश की मगर कोई फ़ायदा न हुआ।
एक दिन विक्की अपने कमरे में बैठा था कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो देखा कि शालू अपने माता-पिता के साथ खड़ी है। सत सिरी आकाल के बाद शालू के पिता एक मिठाई का डिब्बा और एक कार्ड मेज़ पर रखते हुए बोले, “तुम तो अब कभी उधर आते नहीं इसलिये हमें ही आना पड़ा।”
“आप तो जानते ही हैं अंकल कि इस कैनेडा में समय की कितनी किल्लत है, इन्सान चाह कर भी बहुत सारे काम नहीं कर पाता है,” फिर मिठाई के डिब्बे की ओर इशारा करते हुए बोला, “यह . . . यह किस ख़ुशी में?”
“शालू की शादी पक्की हो गई है और अगले ही इतवार की शादी है।”
“हाँ . . . और तुम वहाँ एक हफ़्ता पहले ही पहुँच रहे हो . . . यानी कि कल,” शालू बोल उठी, “क्या तुम मेरी शादी की तैयारी में हाथ नहीं बँटाओगे?”
“ज़रूर . . . ज़रूर . . . मगर इतनी जल्दी सब कुछ हो गया मुझे कुछ पता नहीं चला।”
“हम तो कब के तैयार थे,” शालू की माँ ने कहा, “बस, लड़का मिलने की देर थी सो हमने और देर करनी उचित नहीं समझी।”
“यह तो बहुत अच्छा हुआ . . .खुशी की बात है . . . आप सबको बधाई हो . . .मैं कल ही आ जाऊँगा,” विक्की ख़ुश होते हुए बोला।
कुछ भी हो, इतना कुछ हो जाने के बाद भी विक्की शालू से स्नेह रखता था। वह दूसरे ही दिन लवली के घर पहुँच गया और शादी की तैयारी में लग गया। कई दिन निकल गये। कब दिन चढ़ता था और कब छुपता था, कुछ पता ही नहीं चलता था। बेटी की शादी जिस घर में हो उस घर वालों को होश कहाँ रहती है। विक्की भी जी जान से तैयारी में जुटा था।
इसी तरह शुक्रवार का दिन आ गया, रविवार को शादी थी। लेडी-संगीत का आयोजन रखा गया था। उसी की तैयारी में सुबह से सब लगे थे। घर के गैराज को खोल दिया गया था। लवली, विक्की, हैप्पी, बल्ली और कई रिश्तेदार गैराज में ही बैठे अपने शुग़ल में मसरूफ़ थे। हलवाई ने एक तरफ़ मिठाई बनाने का काम शुरू कर रखा था। शाम के क़रीब आठ बजे थे पर अभी भी उजाला काफ़ी फैला हुआ था। टोरोंटो में गर्मी के दिनों में सूरज नौ बजे के बाद ही छुपता है। घर के अंदर से औरतों के गाने-बजाने की आवाज़ें आ रहीं थीं। लेडी-संगीत अपने पूरे ज़ोरों पर चल रहा था कि घर के सामने एक काले रंग की मर्सिडीज़ आकर रुकी। सबने सोचा कि शायद कोई रिश्तेदार आया होगा। शादी वाले घर में तो आना-जाना लगा ही रहता है। जब काफ़ी देर बीतने के बाद भी कोई कार से न उतरा तो बल्ली को कुछ शक हुआ। उसने लवली को चैक करने का इशारा किया। लवली कार की ओर बढ़ा तो वह अचानक ठिठक गया। कार का काला शीशा धीरे-धीरे नीचे हुआ तो लवली ने रिंकू का चेहरा देख लिया था। वह पलट कर गैराज के अंदर की ओर भागा। विक्की ने भी रिंकू को देख लिया था। वह समझ गया कि लवली अपनी पिस्तौल लेने अंदर की ओर भागा है। वह नहीं चाहता था कि विवाह में कोई पंगा खड़ा हो। इसलिये रिंकू और बिट्टू को समझाने के लिये वह कार की तरफ़ बढ़ा। बल्ली और हैप्पी भी उसके पीछे लपके, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। धाँय-धाँय . . . की आवाज़ के साथ रिंकू के पिस्तौल से निकली गोलियाँ विक्की के शरीर में धँस चुकी थीं। वह लहरा कर वहीं सड़क पर ढेर हो गया। रिंकू और बिट्टू ने गाड़ी स्टार्ट की और भाग लिये। लवली बाहर आया तो विक्की की हालत देख कर सकते में आ गया। बल्ली और हैप्पी गनें उठाये कार के पीछे भागे परन्तु सब बेकार हुआ। हत्यारे तो कब के सुरक्षित भाग चुके थे।
लवली सकते की हालत में ही विक्की की मृतक देह के पास बैठा रहा। बल्ली और हैप्पी ने वापस आकर उसे सँभाला। घर में कोहराम मच गया। सारी गली में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर में पुलिस एंबुलेंस सब आ पहुँचे और विक्की की देह को उठा कर अस्पताल पहुँचा दिया गया।
भारत में उस वक़्त सुबह थी। बलदेव अपने कमरे में था जब इस दुर्घटना का फ़ोन आया। रज्जी चाय का गिलास लेकर उसे देने कमरे में आई, तब तक बलदेव फ़ोन उठा कर कान से लगा चुका था। अगले ही पल उसके चेहरे की उड़ती रंगत देख कर रज्जी समझ गई कि कुछ अनहोनी हो चुकी है। दुखभरी बेहोशी में बलदेव ने ज्योंही उसे बताया कि क्या हुआ है, वह स्वयं को सँभाल न पाई और अपनी छाती पकड़ कर बैठ गई। उसका दिल डूबता चला गया।
इकलौती औलाद परदेस में जाकर वहाँ गैंगवार की भेंट चढ़ जाये तो इससे अधिक दुख की बात और क्या हो सकती है? अपना भविष्य सँवारने गया बेटा अब कभी वापस नहीं आयेगा, यह सोच कर बलदेव का दिल बैठ गया। बेटे के विवाह के सपने देखने वाली माँ, रज्जी को दिल के ताबड़तोड़ कई अटैक हुए। उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया। कुछ दिन बाद रज्जी की देख भाल का ज़िम्मा लेकर गाँव वालों ने बलदेव को अपने पुत्र के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिये टोरोंटो रवाना कर दिया।
“सर . . . सर . . . क्या आप मि. बलदेव हैं?”
अचानक बलदेव की तन्द्रा भंग हुई। सामने के.एल.एम. की नीले सूट वाली एक रिसेप्सनिश्ट खड़ी थी। वह कोई भारतीय युवती लग रही थी।
“सर . . . क्या आप ही मि. बलदेव हैं . . .?” वह पूछे जा रही थी।
“क्या . . .?” बलदेव अभी तक अतीत की यादों में खोया हुआ था। पहले तो उसे कुछ समझ न आया फिर सँभल कर बोला, “हाँ . . . हाँ . . . यस . . . यस . . . मैं बलदेव . . .”
उसने अपना बैग उठाया और काउंटर पर जा पहुँचा।
“एनिथिंग टू चैक, सर,” युवती ने पूछा।
“नो, नथिंग टू चैक,” वह बोला।
अपना बोर्डिंग पास लेकर वह धीमे-धीमे सिक्योरिटी के गेट की ओर बढ़ने लगा। अंदर जाकर वह इधर-उधर देख ही रहा था कि एक स्क्रीनिंग ऑफ़िसर ने आवाज़ दी, “हैलो सर . . . दिस वे प्लीज़ . . .”
उसने चुपचाप उसके पास जाकर अपना बैग उसकी टेबल पर रखा। सेक्योरिटी वाले ने बोर्डिंग पास चैक करके ज्योंही बैग ऐक्स-रे मशीन में डालना चाहा तो उसके मुँह से निकला, “नो . . . नो . . . नो ऐक्स-रे प्लीज़।”
“कैन यू टेल मी सर . . . व्हाई नॉट?”
बलदेव ने ख़ामोशी से विक्की की मृत्यु का प्रमाण-पत्र उसके हवाले कर दिया। सर्टिफ़िकेट देख कर सेक्योरिटी वाला भी गम्भीर हो गया। बैग में विक्की की अस्थियों वाला कलश था।
“ओह . . . आई एम सॉरी सर . . .हू वाज़ ही?” सिक्योरिटी वाला पूछ बैठा।
“सन . . . ही वाज़ माई ओनली सन . . .” बलदेव की आँखों से आँसू बह चले। टोरोंटो की धरती पर उसने न जाने कितने आँसू बहाये थे। वह जबसे यहाँ आया था, आँसुओं के अलावा उसे और कुछ नहीं मिला था। आज जाते-जाते भी वह आँसुओं के अलावा इसे और कुछ नहीं दे पा रहा था। सिक्योरिटी वाले ने आदर सहित अस्थियों वाला कलश उठाया और बिना ऐक्स-रे कि ये, दूसरी तरफ़ से बलदेव को पकड़ाते हुए बोला, “सर, आई ऐम रियली वैरी सॉरी . . . आई कैन अन्डरस्टैण्ड हाऊ डिफ़ीकल्ट इट इज़ फ़ॉर यू . . .”
बलदेव ने बैग उठाया और अपने गेट की ओर बढ़ने लगा, जहाँ शाम के धुँधलके में नीला सा जहाज़ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। ड्यूटी फ़्री के सामने से गुज़रते हुए उसके ज़ेहन में रज्जी का चेहरा घूम रहा था। वह कैसे सँभालेगा उसे। फिर उसे रज्जी की बात याद आई कि मौत और रिज़्क बन्दे के पास नहीं आते बल्कि बन्दा इनके पास स्वयं जाता है। फिर अचानक उसे अपने पिता के कहे बोल याद आये कि “सच्चाई और ईमानदारी के बोये बीज कभी ज़ाया नहीं जाते, कभी न कभी तो फूटते ही हैं।”
बलदेव को लवली की याद आई। आते-आते उसने सुना था कि लवली अब सुधर चला है। उसे लगा कि विक्की के बोये बीज अब लवली में फूटने लगे हैं।
–निर्मल सिद्धू