जुलाई १९९४ में हिंदी परिषद् (टोरोंटो), हिंदी लिटरेरी सोसाइटी (ओटवा) एवं अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (यू.एस.ए.) द्वारा यॉर्क यूनिवर्सिटी (टोरोंटो) में एक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन का आयोजन बड़ी सफलता पूर्वक सम्पन्न किया गया था। अधिवेशन के दूसरे दिवस सायंकाल एक सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मलेन सहित, आयोजित किया गया था। हॉल में प्रवेश करने से पहले टिकट-विक्रय अथवा लिस्ट में लिखे लोगों को निःशुल्क टिकट देने का कार्यभार मैं ही निभा रहा था।
मुझे यह ज्ञात था कि कवि सम्मलेन में भाग लेने वाले कवियों का प्रवेश निःशुल्क होना निर्धारित किया जा चुका था। इस हेतु मेरे पास कवियों के नाम की एक लिस्ट भी थी। मैं अपनी ड्यूटी पर सुचारु रूप से तैनात था। तभी एक गोरे, लम्बे और शुभ्र वस्त्रों में सुसज्जित एक सज्जन मेरे सम्मुख (टेबल के दूसरी ओर) आकर खड़े हो गए। कदाचित उन्हें यह आशा थी कि मैं उन्हें पहचान जाऊँगा। लेकिन मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा में उनकी ओर दृष्टि की और पूछा, “क्या आपको कार्यक्रम की टिकट चाहिए?” स्पष्ट था कि मैं उन सज्जन से कदापि भी परिचित नहीं था। इसका कारण, टोरोंटो के हिंदी-जगत में मैंने हाल ही में पदार्पण किया था। अतः कुछ ही व्यक्तियों से परिचय था।
उन्होंने कहा, “मेरा नाम प्रोफ़ेसर हरिशंकर आदेश है और, सम्मलेन में भाग लेने वाले कवियों की लिस्ट में मेरा नाम होना चाहिए।”
दुर्भाग्यवश किसीसे त्रुटि हो जाने के कारण उनका नाम कवियों की लिस्ट में नहीं था। अतः अज्ञात अनजान एवं कर्त्तव्य परायण होने के कारण, मैंने कहा, “मेरे पास जो लिस्ट है उसमें आपका नाम नहीं है। इसलिए मैं असमर्थ हूँ।” मेरा ऐसा कहने पर वह सज्जन एक ओर हटकर खड़े हो गए क्योंकि इसी बीच प्रवेश के लिए और भी लोग आ चुके थे, मुझे उनकी भी सेवा करनी ही थी।
भीड़ छटने पर वह सज्जन मेरी ओर मुड़ कर बोले, “आप मेरा नाम पुनः लिस्ट में चैक करें। अवश्य होना चाहिए। हो सकता है कि नामों की एक से अधिक लिस्ट हों।”
मैं कुछ कह पाता, इससे पहले, कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे सज्जन, जो यह सब देख और सुन चुके थे, मेरे पास आकर बोले, “आप नहीं जानते कि आप किससे बात कर रहे हैं? आप प्रोफ़ेसर आदेश जी को यहाँ खड़ा न रखें और इन्हें हॉल में प्रवेश करने दें।”
यद्यपि उस समय मेरे ऊपर,अपनी ड्यूटी और नियमों का उत्तरदायित्व निभाने में संलग्न होने के कारण, उनके कथन अथवा सुझाव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, किन्तु अंदर प्रवेश करने वालों की पंक्ति की लम्बाई पुनः बढ़ रही थी। अतः न चाहते हुए भी मैंने प्रोफेसर आदेश जी को टिकट एवं उनके नाम की चिट लिख कर, उन्हें प्रदान कर दी।
कवि सम्मलेन के मध्य मुझे प्रोफेसर आदेश जी का परिचय व उनके विषय में कुछ और जानकारी, विशेषतः कवि एवं लेखक के रूप में प्राप्त हुई। जानकर मुझे प्रोफ़ेसर आदेश जी के प्रति मेरे द्वारा कि ये गए व्यवहार पर मुझे बड़ी आत्मग्लानि का अनुभव हुआ, यद्यपि वो अनजाने में ड्यूटी निभाते हुए ही सही।
उस घटना के पश्चात मेरा प्रोफेसर आदेश जी से समय-समय पर मिलना होता रहा। प्रथम भेंट के अवसर पर, यद्यपि वो मुझसे क्रोधित हो सकते थे किन्तु, मेरे प्रति प्रोफ़ेसर आदेश जी का व्यवहार अत्यंत भद्र एवं शांति पूर्वक था।
सदैव उनके प्यार एवं उत्साह भरे, आत्मीय शब्दों का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा है। मेरे पूजनीय स्वर्गीय पिताजी कभी किसी की आलोचना नहीं करते थे। यदि संभव होता तो वे केवल उत्साह और सहायता ही प्रदान करते थे। आदरणीय प्रोफ़ेसर आदेश जी में भी मैंने यही गुण और अन्य अनुकरणीय गुण एवं करतबों का भंडार पाया।
उन्होंने ७ महाकाव्य, सौ से ऊपर पुस्तकें – कविता, कहानी, नाटक और उपन्यासों की रचना की है – जो विश्वविद्यालयों में शोध के विषय हैं। उन्हें संगीत ज्ञान और संगीत यंत्रों के वादन की भी उच्चतम दक्षता प्राप्त है। हिंदी जगत, विशेष रूप से कैनेडा में, संपूर्ण हिंदी समाज, उनकी उपलब्धियों एवं उनके प्यार भरे भद्र और सदैव उत्साहित करने वाले व्यवहार से आदर सहित अति प्रभावित हैं।
-राज माहेश्वरी