वर्मा जी बहुत परेशान हैं। उनके छठे कहानी संकलन पर एक बड़ी गोष्ठी ज़ूम पर आयोजित की जा रही है और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि वे कल कहाँ बैठ कर इस मीटिंग में बोलें?

हर कोना अपने पुराने और बदरंग होने का दर्द बयान कर रहा है। कहीं पेंट उखड़ा दरवाज़ा मुँह बाए खड़ा है तो कहीं प्लस्तर तक ऊँचा-नीचा! हर कमरे को मरम्मत की ज़रूरत है। स्कूल मास्टर की कमाई पर वे अपना परिवार कैसे चलाते हैं, ये वे ही जानते हैं। कमाई का कोई और ज़रिया नहीं। छपी किताबों के दो-दो, तीन-तीन संस्करण निकल जाने पर भी एक पैसे की रॉयल्टी तक नहीं। बीबी उनके दिन-रात बिना पैसे लिए काग़ज़ काले करने पर झल्लाती रहती सो अलग। प्रकाशक उनकी किताबों की लोकप्रियता देखते हुए बिना पैसे लिए किताबें छाप देते हैं, सीधे-सादे वर्मा जी उसी में ख़ुश हैं। बाहर सभा होने पर तो वे अपनी इकलौती बंडी पहन कर सादा जीवन वाले मंत्र के ब्रांड एम्बेसेडर बन कर काम चला लेते थे पर अब तो ज़ूम पर सारी दुनिया उनके साथ-साथ उनका घर भी देखेगी, समस्या यही है! अब वो भद्दे जीवन के एम्बेसेडर बन कर अपनी भद्द तो नहीं उड़वा सकते? क्या करें? उन्होंने आज पहली बार ज़माने और कैमरे की आँख से अपनी ग़रीबी देखी और अपनी कम आय और प्रकाशकों की सीनाज़ोरी को कोसा।

हार कर उन्होंने अपने भतीजे को फ़ोन किया। नए ज़माने के लड़के कुछ सुझा सकते हैं। दो घंटे की मग़ज़मारी के बाद अमित को एक आइडिया आया।

अगले दिन नियत समय से आधा घंटा पहले पहुँच कर अमित ने उनको हत्था हिली कुर्सी पर बिठाए हुए ही स्क्रीन पर उनके पीछे एक बहुत ख़ूबसूरत कमरा तैयार कर दिया। गद्देदार सोफ़ा, बड़ी चौड़ी खिड़की, उसमें ऊपर से लटकता खूबसूरत गमला और लताएँ, कोने में रखा लैम्प, किनारे पर अलमारी में क़रीने से लगीं किताबें! अहा! वे स्वयं मुग्ध हो गए। ज़ूम पर तैयार इस पृष्ठभूमि को देख कर एक ठंडी आह उनके दिल से निकली।

कार्यक्रम में अपने साहित्य के विवेचन से अत्यंत प्रभावित, आत्मसंतोष और गर्व से वे पूरा दिन भरे रहे। अगले दिन उन्होंने ग़रीबी के अफ़सोस को अपने पर से झाड़, पत्नी को लेखन की अमीरी पर भाषण दिया और फिर स्थानीय समाचार पत्र में तीसरे पन्ने को उत्सुकता से खोल, कार्यक्रम की रिपोर्ट ज़ोर-ज़ोर से पढ़ कर सुनाने लगे पर अंतिम पंक्ति यों तक आते-आते धूप सी चमकती उनकी आवाज़ पर क्षोभ और दु:ख के काले बादल छा गए, लिखा था: ’वर्मा जी के भव्य घर को देखते हुए उन्हें आधुनिक युग का प्रेमचंद तो नहीं ही कहा जा सकता। उन्होंने साहित्य को बहुत कुछ दिया है तो साहित्य ने भी उनका घर भर दिया है। हम इसके लिए उनके ईमानदार प्रकाशकों को भी धन्यवाद देते हैं!’

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शैलजा सक्सेना

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