भीषण गर्मी के मारे सबका बुरा हाल था। आख़िर कब तक कोई घर की चारदीवारी में बन्द, पंखों और कूलरों की ओट में छुपा रहता, काम-काज के लिए बाहर तो निकलना ही था। और एक बार बाहर आ गये तो सूरज देवता के प्रकोप से बचने के उपाय सोचने पड़ते। अगर बचना सम्भव न होता, तो उसके असर को कम करने के तरीक़े बूझने पड़ते। नींबू-पानी, संतरे का रस, ठण्डे पेय, जो मिल जाए वही ठीक। लेकिन जब तक बरखा बरस नहीं गयी, चैन की साँस किसी को नहीं मिली। क्या इन्सान, क्या जानवर और क्या पेड़-पौधे, सभी हाँफते नज़र आते। आख़िरकार बरखा की एक बौछार ने सबके तन-मन की गर्मी का इलाज कर ही डाला। और बारिश भी क्या मूसलाधार हुई, देखकर ही मन मयूर नाच उठा। लेकिन जब तक मैं ऑफ़िस से घर पहुँचता, बारिश मद्धम पड़ चुकी थी। बस हल्के-हल्के छींटे रह गये थे। सोचा छींटे ही सही, कुछ राहत तो मिलेगी। सो घर आकर कपड़े बदले और सीधा मैं छत पर जा बैठा। मेरी पत्नी प्रिया, बस मुझे असमंजस से देखती ही रह गयी। न मैंने उससे कोई  बात की और न ही दिन भर का हाल सुनाया। बस एक धुन के साथ बारिश में जा बैठा।

पानी की नन्ही नन्ही ठण्डी बूँदें जब तन पर  पड़तीं, तो अन्तरात्मा तक एक मदभरी सिहरन दौड़ जाती। प्रकृति के इस निराले खेल का मैं आनन्द लेने लगा। फिर अनायास ही मैं छत पर लेट गया और अम्बर पर उमड़ते-घुमड़ते बादलों का नृत्य देखने लगा। आकाश पर काली घनघोर घटायें हिरनी के चंचल बच्चों सी प्रतीत होती थीं। एक क्षण यहाँ, फिर चुपके से फुदक कर, अगले क्षण वहाँ। लगता जैसे इतनी उछल-कूद के बाद भी इनका मन नहीं भरा, अभी फिर धमा-चौकड़ी मचायेंगे। मेरा मन भी यही चाह रहा था कि ये फिर धमा-चौकड़ी मचायें और फिर एकबार जम के बरसें, लेकिन मेरे मन की, मन में ही रह गयी।

ज़मीन पर लेटकर आकाश को देखना एक विचित्र अनुभव है, लेकिन जब हम ‘बड़े’ हो जाते हैं तो ऐसे अनुभव हमें ‘बच्चों‘ के खेल जैसे लगते हैं। परन्त सच्चाई यह है कि जब तक हम धरती पर लेटकर ऊपर फैले आकाश को नहीं देखते, तब तक हमें उसकी विशालता का अनुमान नहीं हो पाता। नीचे से ऊपर देखने पर ही एहसास होता है कि किस तरह आकाश हमें चारों ओर से घेरे हुए है, अपनी गोद में लिए हुए है। बिलकुल वैसे जैसे एक माँ अपने बच्चे को ममता भरी गोद में प्यार से लिए रहती है। बहरहाल, कुछ देर तक अठखेलियाँ करते बादलों को देखने पर लगने लगा कि वास्तव में वे इतने दूर नहीं हैं, जितने प्रतीत होते हैं। बस हाथ बढ़ाओ और छू लो।

धीरे-धीरे बादल छँटने लगे और आकाश खुलने लगा। दूर गगन में पंछी नज़र आने लगे। मैं हाथ फैलाए उन्हें निहारता रहा और फिर अचानक ही, अपने-आप को उनके साथ उड़ता पाया। मेरे हाथ पंख बन गये और मेरी कल्पना ने इन्सानी हदों को तोड़ डाला। मैं ‘बड़ा’ होते हुए भी एक ‘बच्चे’ की मनस्थिति में आ गया। उस अविस्मरणीय क्षण को अपनी आँखों में क़ैद करने की चाह में मैंने आँखें  मूँद लीं और अपने शरीर पर पड़ती पानी की नन्ही बूँदों की गुदगुदाहट का आनन्द लेने लगा। उनका हर एक ‘स्पर्श’ एक गहरे आनन्द की विचित्र अनुभूति दे जाता, जिसे शब्दों में कहना कठिन है। उस पल सारी कायनात जैसे थम गयी। फिर अचानक मैं उस ‘एक बूँद’ के बारे में सोचने लगा जो न जाने कब कहीं बादलों से गिरी, उड़ती-लहराती, हवा के हिंडोले में झूलती, मेरे चेहरे पर आ पड़ी और एक कोमल से स्पर्श के बाद विलीन हो गयी। शायद उसका अस्तित्व आकाश से गिरकर एक मधुर स्पर्श प्रदान करने तक ही सीमित था, जो मात्र कुछ क्षण ही रहा होगा, लेकिन कितना सत्य, कितना पावन,  बिलकुल निश्छल। फिर अचानक मेरे कानों में माँ की आवाज़ गूँज पड़ी। लेकिन यह आवाज़ आज की नहीं, बल्कि इक्कीस वर्ष पुरानी थी। मैं भ्रम में पड़ गया कि कहीं यह आवाज़ इक्कीस वर्षों तक ब्रह्माण्ड में घूमने के बाद वापस तो नहीं आ गयी। जैसा पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि “आवाज़ें मरती नहीं, वे कई वर्षों तक ब्रह्माण्ड में रहने के बाद पृथ्वी पर फिर सुनायी पड़ती हैं।” तो शायद यह माँ की वही आवाज़ थी जो इक्कीस वर्ष बाद मुझे फिर सुनायी दे रही थी। आँखें मूँदे, मैंने ध्यान लगाकर फिर सुना, बिलकुल साफ़ सुनायी पड़ रहा था। माँ ऊँचे स्वर में कह रही थी, “वीरेन, इतनी देर क्यों लगा रहे हो? क्या बर्तनों में पानी इकट्ठा नहीं हुआ? जल्दी करो, अमन को नहलाना है। तुम बाद में बारिश में नहाते रहना।” इस एक स्वर के साथ मेरे जीवन की घड़ी इक्कीस सावन पीछे घूम गयी। “हाँ माँ, अभी आया। पानी इकट्ठा हो गया है, लाता हूँ।” इतना कह कर मैं छत पर रखे छोटे-छोटे बर्तनों में इकट्ठा बारिश का पानी एक बाल्टी में डालने लगा। पानी कम ही इकट्ठा हुआ था, लेकिन अमन को नहलाने के लिए काफ़ी था।

यह अमन की पहली बरसात थी, इसलिए उसे इस पानी में नहलाना था। “छोटे बच्चों के लिए बरसात का पानी अच्छा होता है, इससे नहाने के बाद उन्हें गर्मी नहीं सताती” ऐसा माँ ने मुझे बताया था। अमन भी छोटा बच्चा था, बस तीन महीने का, और मैं ‘बड़ा बच्चा’ था नौ बरस का। बड़ा था, इसलिए तो छत पर अकेला नहा रहा था बारिश में। रिम-झिम गिरती बरखा की बूँदों ने सब कुछ भिगो डाला था, सब नया-नया सा दिख रहा था, बिलकुल साफ़, धुला धुला। वो समाँ बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था। पेड़ों के पत्ते चमक उठे थे और उनकी टहनियाँ यूँ झूम रही थीं जैसे पिया मिलन के बाद प्रेमिका झूम उठती हैं। नौ वर्ष की आयु में अगर मुझे ‘पिया-मिलन’ और ‘प्रेमिका’ जैसी बातें पता थीं तो भला मैं ‘बच्चा‘ कैसे हो सकता था? लेकिन जिन्होंने अस्पतालों के नियम बनाए थे, उन्हें यह बात कौन समझाता?

यह बात तीन महीने पुरानी थी, जब अमन पैदा हुआ था। अस्पताल में सब लोग उसे देखने जा सकते थे, बस मुझे छोड़कर। वह इसलिए कि मैं अभी दस वर्ष का नहीं हुआ था, और अस्पताल के नियमों के अनुसार कोई भी ‘बच्चा’ या ‘बड़ा’ जिसकी आयु दस वर्ष से कम होगी, उसे अन्दर जाने की अनुमति नहीं मिलेगी। कारण, यह कि दस वर्ष से कम उम्र के बच्चे (या बड़े) अस्पताल में शोर मचाते हैं। कैसे ‘बच्चों जैसे’ नियम थे उस अस्पताल के। एक-एक कर सब अन्दर चले गये मेरे छोटे भाई  और माँ से मिलने, मेरी बड़ी बहन तनु और अन्त में पिताजी भी। और बाहर मैं बिलकुल अकेला रह गया, पिताजी के इस निर्देश के साथ कि यहाँ से मैं कहीं न जाऊँ क्योंकि (उनके अनुसार) मैं बच्चा था। कभी-कभी बड़े भी बच्चों जैसी बातें करते हैं और पिताजी ने तो आज हद ही कर दी थी। आख़िर क्या ज़रूरत थी अस्पताल वालों को बताने की कि मैं नौ वर्ष का था? अगर कह देते कि मैं दस वर्ष का हूँ तो क्या फ़र्क़ पड़ जाता? इतना कहने भर से मुझे अस्पताल के बाहर इस तरह अकेले तो न खड़े रहना पड़ता, और वह भी इस डर के साथ कि अगर यहाँ से ज़रा भी हिला, तो गुम हो जाऊँगा। यों भी मेरे चेहरे पर थोड़े ही लिखा था कि मैं नौ वर्ष का हूँ, फिर पिताजी को थोड़ा सा झूठ बोलने में क्या आपत्ति थी, मैं समझ न सका। बहरहाल, जब तक मैं अकेला खड़ा रहा, वहाँ से आता-जाता हर आदमी मुझे उत्सुकता से देखता जैसे वह ‘हिन्दी फ़िल्मों’ वाला बदमाश हो जो किसी भी समय मेरा अपहरण कर सकता था। इसलिए मैं एकदम सतर्क हो गया और ऐसे दर्शा ने लगा जैसे ‘दस वर्ष से अधिक हूँ’ और अस्पताल के बाहर बस यूँ ही बैठा हूँ, रोका नहीं गया। फिर पिताजी ने कमाल कर दिखाया। वे शीघ्र ही लौट आए शायद यह सोचकर कि मैं कहीं अकेला ‘घूमने’ न चला जाऊँ। वे मुझे अस्पताल के कोने में बने एक दवाखाने में ले गये जिसके पीछे से होता हुआ एक सँकरा सा रास्ता ‘आपातकालीन निकास’ वाली सीढ़ियों को जाता था। हम दोनों वहाँ से होते हुए उस जगह आ गये जहाँ माँ का कमरा था। कमरे में नानी, माँ के पास बिस्तरे पर बैठी थीं और मेरी बड़ी बहन तनु पास रखे पालने में मुस्कुराहट भरीनिगाहों से एक टूक देखे जा रही थी। वो धीरे-धीरे पालने को हिला भी रही थी। मुझे माँ से गले मिलकर और उनकी मुस्कान देखकर इतना विश्वास तो हो गया था कि वे बीमार नहीं हैं, लेकिन उन्हें दूसरे बीमारों की तरह अस्पताल में क्यों रखा गया, यह बात मेरी समझ से बाहर थी। हमारे घर एक छोटा बच्चा आने वाला था, ये तो मुझे पता था, लेकिन इसके लिए अस्पताल आना होगा मेरे लिए यह बात बहुत अटपटी थी।

सफ़ेद बिस्तर, हरे पर्दे, चश्मे पहने डॉक्टर, सिर से पाँव तक सफ़ेद कपड़ों में लिपटी काली नर्सें, मैली-कुचैली आयायें, हर आते-जाते के हाथ में खाने के टिफ़िन, पानी के थर्मस या फलों के थैले, दवाई, रूई और पट्टियों की मिली-जुली दुर्गन्ध। न जाने अस्पतालों का वातावरण इतना विचित्र क्यों होता है? काश यहाँ किसी को न आना पड़े। बहरहाल, इस समय इन सब बातों से ज़्यादा मेरे लिए सिर्फ़ इस बात की अहमियत थी कि ‘पालने मे लेटे छोटे बच्चे कैसे होते हैं’। मैं सीधा पालने के पास जा पहुँचा और झुक कर उसमें देखने लगा। उजले कपड़े में लिपटा एक छोटा सा गुड्डा उसमें सो रहा था। उसने अपनी छोटी-छोटी उँगलियाँ कस कर बंद कर रखी थीं, मानों अपनी हथेलियों में कुछ छुपाए हुए हो। शायद उनमें वो ढेर सारी ख़ुशियाँ थीं जो वह हमें देने आया था। उसके कान, नाक, आँखें और मुँह बहुत छोटे थे, इतने छोटे कि जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। उसका रंग ऐसा था जैसे दूध में किसी ने चुटकी भर सिन्दूर डाल दिया हो। वह गहरी नींद में सो रहा था, इसलिए ज्यों ही मैंने उसे नज़दीक से देखना चाहा तो पालना ज़ोर से हिल गया और वह रोने लगा। पिताजी ने तुरन्त आकर उसे बड़ी सावधानी से उठाया और पुचकारने लगे। मैंने उनकी आँखों में और चेहरे पर अथाह प्रसन्नता देखी और समझ गया कि ये गुड्डा उन्हें मेरी तरह ही प्रिय था मेरा भाई। लेकिन जब उसका रोना बन्द नहीं हुआ, तो पिताजी ने उसे माँ को थमा दिया। माँ की गोद में आते ही वह सिसकियाँ भरता हुआ चुप हो गया। मैं अपनी उत्सुकता और दबा न सका और झट से माँ के पास जा बैठा। गुड्डा अब जग गया था। जब मैंने उसे पहली बार छुआ तब मुझे अहसास हुआ कि उसका शरीर कितना कोमल था। बस उसी क्षण मैं उससे जुड़ सा गया और मेरा मन बल्लि यों उछलने लगा। मुझे एक जीता-जागता खिलौना मिल गया था, जो मेरे स्वरूप का ही हिस्सा था। उत्सुकता भरे स्वर में मैंने माँ से पूछा, “हम इसे घर कब ले जा सकेंगे, मुझे इससे बहुत सी बातें करनी हैं?” तो पिताजी हँसकर बोले, “बस एक ही दिन बाद। फिर जितनी जी चाहे इससे बातें करना।” और सब ज़ोरों से खिलखिलाकर हँस दिए।

वह ’एक दिन’ मेरे जीवन का सबसे लम्बा दिन बन गया, जो समाप्त होने को ही न आता था। जिस दिन वह घर में आने वाला था, उस दिन सुबह से ही मैं और तनु घर के बाहर आँखें बिछाये बैठे रहे। कभी मैं बाहर सड़क पर दूर तक देख कर आता और कभी तनु। पिताजी हमें बताकर भी गये थे कि उन्हें माँ और गुड्डे को लाते-लाते शाम हो जाएगी, लेकिन हम दोनों को आराम कहाँ था। अब तक हमारा पूरा आस-पड़ोस जान चुका था कि आज माँ और गुड्डा घर आने वाले हैं। हमने अपने सभी दोस्तों की पलटन इकट्ठा कर ली थी और ये ‘घोषणा’ कर चुके थे कि आज हमारे घर एक ख़ास मेहमान आने वाला था। सभी व्याकुल थे उस अतिथि को देखने के लिए। आख़िरकार जब माँ उस ‘ख़ुशियों की गठरी को लिए घर आईं, तो हम दोनों भाई-बहन उनके पीछे यूँ चलने लगे जैसे किसी राजा के पीछे उनके वफ़ादार सेनापति चलते हैं। गर्व से हमारे सीने यूँ तन गये जैसे हमने कोई बहुत बड़ा मोर्चा मार लिया हो। आज हमारे लिए यह दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी थी और इस बात का एहसास हमारे सभी दोस्तों को भी था। वे सभी व्याकुल हो रहे थे गुड्डे को नज़र-भर देखने के लिए। माँ की गोद में रखी नन्ही सी पोटली का परिचय अब तक हमने इशारों-इशारों में अपने सभी दोस्तों को करवा दिया था। लेकिन मैं ‘अपना गुड्डा’ अपनी गोद में उठाकर अपने दोस्तों को दिखाना चाहता था पर डरता भी था कि अगर वह फिर से रो पड़ा तो मैं उसे चुप कैसे कराऊँगा। इसलिए तुरन्त ही मैंने अपना विचार बदल डाला और उसे माँ की गोद में ही रहने दिया। फिर सोचा, अब तो यह हमारे पास ही रहेगा और जल्दी ही उसे पता चल जाएगा कि मैं इसका ‘बड़ा भाई ’ हूँ, तब यह मेरे पास आने पर नहीं रोएगा। अगले कुछ दिनों तक हमारे यहाँ रिश्तेदारों का ताँता लगा रहा। सभी ने बेटा होने की बहुत बधाइयाँ दीं। माँ भी इसी आनन्द में लीन थी कि अब उनके पास दो बेटे थे, दो सहारे। कुछ दिनों बाद गुड्डे का नाम रखा गया ‘अमन’, जिसका अर्थ है शान्ति। लेकिन हमारे अमन का दूर-दूर तक शान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था। वह जब से हमारे घर आया था, हमारे यहाँ हर समय शोरगुल रहता। कभी उसके रोने का शोर तो कभी हमारा उसको रिझाने का, कभी उसके खिलौनों का शोर, तो कभी उसकी किलकारियों का। घर में हर समय एक ‘गुंजन’ का आभास रहता। हम सभी की दिनचर्या अमन के इर्द-गिर्द ही घूमने लगी। पिताजी  की सख़्त हिदायत थी कि अमन का हमेशा ख़्याल रखा जाए, क्योंकि माँ अब अकेली नहीं थीं, उनके पास ‘दो सेनापति ’ भी थे, जिन्हें अमन की सारी ज़िम्मेदारी दी गयी। तनु और मेरे लिए इससे बढ़कर और ख़ुशी की क्या बात हो सकती थी। अमन को अब हमें पालना था। लेकिन एक छोटा बच्चा दो बड़े बच्चों को नानी याद दिला देगा, इसका पता हमें बाद में चला।

ज्यों-ज्यों अमन बड़ा होने लगा, त्यों-त्यों उसकी शरारतें भी बढ़ने लगीं। उसका कोई भी खिलौना साबुत नहीं बचता था। यहाँ तक कि बरसों से सम्हाले हुए मेरे बचपन के खिलौनों को भी उसने टुकड़े-टुकड़े कर डाला, जिनसे जुड़ी मेरी यादें घर के कोनों में बिखरी पड़ी रहतीं। अमन हर समय कोई ख़ुराफ़ात करने को बेचैन रहता। उसे अपनी बग्गी में बैठ कर सैर करना कभी पसन्द न आता। जब हम उसे घुमाने ले जाते तो वह बग्गी से उतरकर स्वयं उसे धकेलता और फिर गिर जाता। जब हम में से कोई भी उसको रोकता या उसकी मदद करता, तो वह शोर मचाने लगता। उसके स्वभाव में ही ज़िद और  मनमानी थी। इतनी छोटी उम्र में भी वह अपनी बात मनवा लेता था, बिना कुछ बोले, बस अपने हठ के बल पर। उसको देखकर मैं असमंजस में पड़ जाता, क्योंकि था तो वह मेरा ही स्वरूप, लेकिन हम दोनों के स्वभाव बिलकुल विपरीत थे। मैं जितना सरल और शान्त था, अमन उतना ही कठिन और व्याकुल। वह एक जगह शान्त होकर बैठ ही नहीं सकता था, बस हर समय धमा-चौकड़ी मचाए रहता। सुबह से शाम तक वह हमें दौड़ाए रखता। सबसे छोटा होने के कारण सब उसे लाड़ करते और उसकी शरारतों का आनन्द लेते। लेकिन अमन को लेकर मैं मन-ही-मन भयभीत रहने लगा क्योंकि कब वह क्या मनमानी कर बैठे और उसका क्या अन्जाम होगा, कोई नहीं जानता था।

‘एक बार फिर’ बरसात का मौसम आया, और इस बार न जाने कहाँ से हमारे घर में काले मकोड़े घुस आए। माँ दिन-रात उन्हें भगाने के लिए सफ़ाई करती लेकिन वे फिर कहीं से अन्दर घुस आते। इन मकोड़ों के साथ अमन को एक नया खेल मिल गया। वह इनके पीछे भागता और पकड़ने की कोशिश करता और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ता। हमारे लाख रिझाने और मना करने पर भी वह नहीं माना और अपने खेल में जुटा रहा। लेकिन एक मकोड़े महाशय को हमारे लाड़ले का खेल बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने अमन के हाथ पर काट खा डाला। अगले ही पल अमन ने चिल्ला-चिल्ला कर सारा घर आसमान पर उठा लिया। हैरानी इस बात की थी कि उसने हाथ पटक-पटक कर मकोड़े को भी ज़मीन पर दे मारा। यह सब देखकर मैं स्तब्ध रह गया लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही वह पिताजी के साथ बाहर जा चुका था और तुरन्त ही अपने पसन्द की चॉकलेट लेकर मकोड़े की बात भूल चुका था। लेकिन मैं यह वाक़या कभी भूल न पाया। कुछ ही देर बाद अमन फिर घर के अन्दर था और मकोड़ों के पीछे दौड़ रहा था।

समय पंख लगाए उड़ता रहा। अमन धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। अवसर मिलते ही अब वह घर से बाहर निकल जाता, बिना किसी हिचकिचाहट के और फिर वहाँ खेल रहे अपने से बड़े बच्चों के साथ यूँ घुल-मिल जाता जैसे उनका हमउम्र हो। लेकिन मुझे हर समय उसकी चिन्ता लगी रहती, क्योंकि अभी वह बहुत छोटा था। मुझे एक ही डर लगा रहता कि कहीं वह गुम न हो जाए इसलिए वह जब भी घर से बाहर निकलता मैं उसे अपनी आँखों से ओझल न होने देता। चार बरस का होते-होते, अमन अकेला ही घर से बाहर जाने लगा और घण्टों खेल-कूद कर स्वयं ही घर लौट आता। आस-पड़ोस के सभी लोग उसे पहचानने लगे थे और माँ-पिताजी भी उसके बेख़ौफ़ स्वभाव से परिचित हो चुके थे। शायद इसलिए ही वे निश्चिन्त रहते। शीघ्र ही अमन स्कूल जाने लगा और उसे पढ़ाने की ज़िम्मेदारी हम दोनों भाई-बहन को दी गयी। हम ‘सेनापतियों’ को यह एक नया मोर्चा सम्हालना था जो ज़रा कठिन साबित हुआ। अमन की पढ़ाई तो कठिन नहीं थी लेकिन उसका ध्यान पढ़ाई में लगाना बहुत कठिन था। उसे हर समय शरारत सूझती रहती। उसका मन बस खेल-कूद में ही रमता, किताबों से तो जैसे उसका बैर था। इस सब के बावजूद अमन हर साल अच्छे अंकों से पास होता जाता। उसमें बहुत आत्म-विश्वास था और वह ये मानकर चलता कि वह जो कर रहा है, ठीक कर रहा है। फिर अपनी बात को सही ठहराने के लिए वह तर्क भी देता। वह किसी भी बात में आसानी से हार नहीं मानता था और एक बार जो मन में ठान लेता, उसे करके ही दम लेता।

एक तरफ़ मैं था, जो कोई भी काम करने से पहले सौ बार सोचता, बड़ों की राय लेता, और दूसरी तरफ़ अमन था, जिसे हर काम की जल्दी रहती और अपना हर निर्णय वो स्वयं ही लेता और बाद में उसकी घोषणा करता। अक़्सर काम हो जाने के बाद हमें पता चलता कि अमन ने क्या कर डाला। किसी भी चीज़ को तोड़कर या खोलकर उसकी पूरी जाँच कर लेना अमन के स्वभाव में हमेशा से था। लेकिन फिर वह उतनी ही होशियारी से उन सब चीज़ों को जोड़ भी लेता। अगर जोड़ न पाता तो प्रयास में लगा रहता। उसका तकनीकी ज्ञान बहुत अच्छा था और बातें बनाना भी उसे ख़ूब आता था। बारह बरस का होते-होते अमन खेल-कूद में माहिर हो गया। स्कूल के खेलों में वह बढ़-चढ़ कर भाग लेता और हमेशा जीत कर आता। देखते-देखते उसके पास जीते हुए पदकों का ढेर लग गया। उसकी इन उपलब्धियों पर मुझे बड़ा हर्ष होता। मैं हमेशा उसका मनोबल बढ़ाता, क्योंकि मुझे पता था कि उसकी रुचि पढ़ाई से अधिक खेल-कूद में थी। मैं हमेशा उससे एक ही बात कहता कि जो भी काम  करो, उसमें हमेशा अव्वल आकर दिखाओ। शरारतों और खेल-कूद में तो वह था ही अव्वल, लेकिन  दोस्ती करने में भी वह सबसे आगे रहता। मेरे दोस्त उँगलियों पर गिने जा सकते थे, लेकिन अमन के दोस्तों की कोई गिनती नहीं थी। क्या बड़ा और क्या छोटा, अमन उनसे यूँ मिलता जैसे बरसों-बरस का दोस्ताना हो। न जाने कैसे वह उन सब पर अपना रौब बनाए रखता, जो मेरे लिए एक बहुत ही विचित्र बात थी। वह जिससे भी मिलता, हँस कर मिलता और अपना बना लेता। मुझे ऐसा लगता जैसे वह अपनी उम्र से आगे निकल जाना चाहता था। धीरे-धीरे आस-पड़ोस के लोग मुझे मेरे नाम से कम ‘अमन के भाई ’ के नाम से अधिक जानने लगे। अमन की हर बात उसकी उम्र के बच्चों से अलग होती। शायद इसीलिए उसका बचपन भी दूसरे बच्चों से अलग था, औरों के मुक़ाबले कहीं कठिन। उसकी अधिकतर कठिनाइयों का समाधान भी मुझे ही करना पड़ता, और उसकी सबसे बड़ी समस्या थी, एक स्कूल में न टिके रहना। किसी भी स्कूल में वह तीन-चार साल से ज़्यादा टिक नहीं पाता था। यह एक विचित्र समस्या थी अमन के साथ। या तो  उसका दिल स्कूल से भर जाता और वह उल्टी-सीधी हरकतें करने लगता, या फिर स्कूल वाले उसकी शरारतों से परेशान हो जाते। फिर ख़ुद-ब-ख़ुद हालात भी ऐसे बन जाते कि हमें अमन का स्कूल बदलता ही पड़ता। स्कूली पढ़ाई के दौरान कुल मिलाकर हमें चार बार उसका स्कूल बदलना पड़ा। हर बार यह काम मुझे ही सौंपा जाता। उसके प्रधानाचार्य को ख़ुश रखना, अध्यापकों की तरह-तरह से चापलूसी करना, उनके हर बुलावे पर सर के बल दौड़ कर जाना आदि ‘मोर्चे’ भी मुझे  ही सँभालने पड़ते। हर बार स्कूल बदलने के बाद अमन वायदा करता कि अब वह बाक़ी की सारी पढ़ाई दिल लगाकर इसी स्कूल से करेगा, लेकिन तीन-चार साल के बाद ही अमन अपना यही वादा फिर एक नए स्कूल में दोहराता। मेरी बस एक ही ख़्वाहिश थी कि किसी तरह अमन स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर ले, तो उसके भविष्य के बारे में आगे सोचा जाए।

जहाँ तक ‘सोच-विचार’ की बात थी तो अमन का यही मानना था कि सोचने से कुछ नहीं होता, जो मन हो वह कर गुज़रो। बस इसी तरह वह अपने जीवन का हर पल जीता था, खुलकर, बिन्दास। सोचने का तो उसके पास समय ही न था। सोच से दूर किसी बात पर अगर अमन कभी क्रोधित हो जाता तो अपना आपा खो बैठता। ऐसे में उसकी रही-सही सोचने की शक्ति भी समाप्त हो जाती। बचपन में एक बार माँ से झगड़कर अमन ने अपने आप को घर के स्टोर में बंद कर लिया। इसके बाद भी जब माँ ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया तो उसने क्रोध में आकर अन्दर रखे अखबारों के ढेर में आग लगा दी। चीख़-चिल्लाकर किसी तरह माँ ने अमन से स्टोर का दरवाज़ा खुलवाया और तुरन्त पानी डालकर आग बुझा दी। सारा घर धुएं और जलने की दुर्गन्ध से भर गया। वास्तव में उस दिन एक बड़ी दुर्घटना टल गयी। जिसने भी सुना, स्तब्ध रह गया। अमन ने हम सब को जैसे एक चेतावनी दे दी थी। अब उसके हर हठ के प्रति हमें सावधानी बरतनी पड़ती। कभी प्यार से तो कभी पिताजी के डर से उसे सम्हालना पड़ता। अमन क्रोध में क्या कर बैठेगा, अब यह सोच कर ही डर लगता था।

‘समय’ पंख लगाए उड़ता रहा और उतनी ही तेज़ी से ‘समय’ बदलता भी रहा। यह बदलाव हमें अमन की बातों और व्यवहार में झलकता दिखायी पड़ता। हर तरफ़ जैसे एक होड़ सी लगी हुयी थी। सभी रातों-रात आसमान छूना चाहते थे, हर कोई एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता था। धैर्य और आत्म-संयम क्या होता है, इस नयी पीढ़ी की समझ से बाहर था, और न ही ये लोग जानने की इच्छा रखते थे। इस वर्ग के लिए जीवन मात्र तेज़ रफ़्तार का नाम था। यह बदलाव का ज़माना था। यूँ तो बदलाव हर ज़माने में आते हैं, लेकिन जितनी तेज़ी से जीवन-शैली अब बदल रही थी, ऐसा पहले कभी न हुआ था। यूँ तो हम दोनों भाइयों में केवल नौ वर्ष का अन्तर था लेकिन मुझे लगता जैसे मैं अमन से, उसकी सोच से कई साल पीछे हूँ। उसका पहनावा, उसकी पसन्द, उसकी बातें, उसके विचार और उसकी ‘रफ़्तार’ सब कुछ आधुनिक थी। यही नहीं, उसका क़द भी मुझसे ऊँचा उठ गया था और दिखने में भी वह अधिक आकर्षक था।

ज़माने के इस तेज़ बदलाव के बावजूद भी मैं ‘इस ज़माने’ के साथ था। और इसका कारण था, अमन। मैंने कभी भी अपने-आप को पिछड़ता महसूस नहीं किया। अमन के जीने का अन्दाज़ हर पल मुझे इस तेज़ रफ़्तार लहर से जोड़े रखता। वह मेरा आज था। वह हम सब का आज था। हर रोज़ हम सब एक नयी ज़िन्दगी से रूबरू होते, नयी आशाओं के साथ जीते, एक नए उत्साह के साथ जुड़ते, अमन के साथ। हम सब उसके ‘आज’ में अपना-अपना ‘आज’ जी रहे थे। जैसे एक माली पौधा लगाता है, उसे सींचता है, उसकी देखभाल करता है और फिर उस दिन का बेचैनी से इन्तज़ार करता है जब उस पौधे में फूल खिलें और सारा आलम ख़ुशबू से महक उठे, बस उसी तरह हम सब भी अमन के उज्ज्वल भविष्य के सपने सँजोने लगे। मेरी बहुत सी आशायें जुड़ी थीं उसके साथ। मेरे जीवन के ख़्वाब जो अधूरे रह गये थे, मैं उन्हें अमन के द्वारा साकार करना चाहता था। मैं उसे हर वह चीज़ देना चाहता था, जो मैं ख़ुद नहीं पा सका। परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते, मैं पिताजी के कन्धों का बोझ कम करना चाहता था। इसलिए कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म करने के तुरन्त बाद ही मैं नौकरी करने लगा। हालाँकि मैं अभी और पढ़ना चाहता था, उच्च शिक्षा लेना चाहता था, लेकिन घर के हालात से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ था। तनु की शादी की फ़िक्र माँ-पिताजी को दिन रात खाए जा रही थी। ऐसे में घर की बढ़ती ज़िम्मेदारियों का बोझ पिताजी अकेले नहीं उठा सकते थे। और फिर अगर मैं आगे न आता, तो कौन आता? आख़िर मैं घर का ‘बड़ा बेटा’ जो था। बहरहाल, अपना भाग्य और धर्म समझकर मैंने उच्च शिक्षा का ख़्याल छोड़, नौकरी शुरू कर दी। लेकिन मेरी हार्दिक इच्छा थी कि अमन उच्च शिक्षा प्राप्त करे। जीवन में कुछ बन कर दिखाए।

घर में एक बार फिर ख़ुशियों का माहौल आया। तनु की शादी तय हो गयी। फिर वह दिन भी आ पहुँचा जब धूम-धाम के साथ वह विदा हो गयी। उसके बग़ैर मुझे सब अधूरा सा लगने लगा। उसकी कमी हम सब को बहुत महसूस होती थी, लेकिन हम मन-ही-मन प्रसन्न थे कि उसे एक बहुत अच्छा जीवन साथी मिला था राकेश। अब मैं अकेला ही ‘सेनापति ’ बचा था, हर मोर्चा सँभालने के लिए। किसी तरह अमन ने स्कूली शिक्षा समाप्त की। फिर पिताजी के किसी जानकार ने अमन को इन्जीनियरिंग में दाख़िला दिलाने की बात कही। शहर के बाहर कुछ इन्स्टीट्यूट थे जो मोटी रक़म लेकर बच्चों को  इन्जीनियरिंग में दाख़िला देते थे। परिवार से सलाह-मशविरा करने के बाद पिताजी ने हामी भर दी। पिताजी ने कोई कमी नहीं छोड़ी और अमन को इन्जीनियरिंग में दाख़िला मिल गया। मैं प्रसन्न था कि मैं न सही, लेकिन मेरा भाई तो क़िस्मत का धनी था। अमन अब समझदार हो गया था, और दिल लगाकर इन्जीनियरिंग की पढ़ाई करने लगा। हम सब से दूर अब वह वहीं हॉस्टल में रहने लगा। उसमें सफलता के सभी गुण नज़र आने लगे। एक दस्तकार की ‘कलाकृति ’ की तरह हम सब ने अमन को तराशा था, जिसका अन्तिम रूप सामने आने ही वाला था। अब सिर्फ़ कालचक्र घूमना बाक़ी था।

“नहीं, मुझे अभी जाना है। समझो, कि यूँ गया और यूँ आया। वैसे भी मेरी ट्रेन तीन बजे की है और एक बजे तक लौट आऊँगा,” इतना कहकर, अमन उछलता-कूदता घर से बाहर चला गया। उसके साथ उसका दोस्त पुनीत भी था। मैं दूसरे कमरे में बैठा उसकी बातें सुन रहा था। चैन से बैठना उसे अब भी नहीं आता था। वह कई दिनों से नए फ़ैशन की एक पैंट बनवाने की ज़िद कर रहा था और अपनी ज़िद के चलते उसने माँ को मना ही लिया। मगर आज उसे तीन बजे की ट्रेन से वापिस नागपुर जाना था। उसका इन्जीनियरिंग का दूसरा साल आरम्भ हो चुका था और ‘मिड-टर्म’ की आख़िरी छुट्टी थी, कल से उसका कॉलेज खुलना था और ये जनाब यहाँ दिल्ली में बैठे थे। मेरी शादी को अभी तीन ही महीने हुए थे और इन तीन महीनों में अमन का यह तीसरा चक्कर था। मेरी शादी से जुड़ी हर पहली ख़ुशी वह दिल खोलकर मनाना चाहता था। हमारी पहली दिवाली, फिर मेरी पत्नी प्रिया का पहला जन्मदिन और अब यह हमारा पहला नया साल। मैं समझता था उसकी भावनाओं को लेकिन उसका बार-बार यूँ चले आना उसकी पढ़ाई में बाधा डाल सकता था, इसलिए इस बार मैंने उससे वादा लिया कि वह अपना यह ‘टर्म’ पूरा करने के बाद ही घर लौटकर आएगा। नए साल का आज दूसरा दिन था और मेरे ऑफ़िस में कुछ दोस्तों ने प्रिया और मेरे लिए शाम को एक दावत रखी थी। मैं चाहता था कि अमन कुछ देर हमारे साथ चैन से बैठे और फिर हम उसे ट्रेन पर रवाना कर आयें। लेकिन उसे तो नयी पैंट सिलवाने की जल्दी थी। यूँ भी उसे पैंट सिलकर आज ही मिलने वाली तो थी नहीं, अगली बार आता तो चैन से बनवाता और पहनता। अजीब जल्दबाज़ी थी यह उसकी जैसे समय छूटा जा रहा हो उसके हाथों से। मैं उसे रोकना चाहता था, लेकिन जब तक मैं अपने विचारों को शब्दों में पिरोता, वह जा चुका था।

‘फिर कालचक्र घूमा’। रात का दूसरा पहर बीत चुका था। अचानक मेरा शरीर ठण्ड के मारे काँपने लगा। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी घुटन-भरे अन्धेरे कमरे में एक बड़ी सी बर्फ़ की सिल्ली पर लेटा हुआ हूँ। चारों तरफ़ से बदबू भरी ठण्डी हवा का दबाव आ रहा था। ठण्ड के मारे मेरा शरीर अकड़ता जा रहा था। मुझे अहसास हुआ कि मैं वहाँ बिलकुल अकेला था। मैंने हिलना चाहा, तो हिल न सका, उठना चाहा, तो उठ न सका। ये मुझे क्या हो गया? ये मैं कहाँ आ गया? सोचकर मेरा दिमाग़ चकरा गया। मेरे परिजन जो मुझे इतना प्यार करते हैं, सब कहाँ गये ? मेरी माँ, पिताजी, भाई, बहन, इन सभी ने मुझे यहाँ अकेला कैसे छोड़ दिया? ऐसा तो आज तक नहीं हुआ था। यह दिन है कि रात? सुबह है कि शाम? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरा दिमाग़ सुन्न पड़ चुका था, मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। मैं बहुत घबरा गया। मैंने चीख़ना चाहा, लेकिन मेरे गले से आवाज़ नहीं निकली। यह सच था, या सपना? ज़रूर सपना होगा। अगर यह सपना था, तो समाप्त क्यों नहीं होता? यह कैसे हालात थे मेरे, जहाँ मेरे शरीर और दिमाग़, दोनों ने मेरा साथ छोड़ दिया था। मैं रोने लगा, लेकिन मेरी आँखों से आँसू नहीं गिरे। फिर भी मैं रोता रहा, न जाने कब तक। इसके अलावा मैं कुछ कर भी नहीं सकता था। मुझे चुप कराने कोई नहीं आया। फिर अचानक मेरी नाभी में हल्का-हल्का दर्द उठने लगा। मेरा ध्यान बँट गया। धीरे-धीरे यह दर्द मेरे शरीर के ऊपरी भाग में फैलने लगा। ज्यों-ज्यों दर्द फैलता गया, त्यों-त्यों मेरी पीड़ा बढ़ती गयी। फिर यह पीड़ा इतनी बढ़ गयी कि मुझसे सहन नहीं होती थी। दर्द के उत्पीड़न से मैंने चिल्लाना चाहा, लेकिन चिल्ला न सका, बस तड़पता रहा। मेरा शरीर मेरा कारागार बन गया, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता न था। इस भयानक अनुभव से मेरी आत्मा काँप उठी।  लेकिन अब तक मैं समझ नहीं पाया कि आख़िर मुझे हुआ क्या था और मैं इन हालात में कैसे पहुँच गया? तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरे शरीर पर कपड़े नहीं हैं और मैं एक गुलाबी फूलों वाली चादर में लिपटा पड़ा हूँ। यह चादर मैंने कहीं देखी थी, क्योंकि इसके गुलाबी फूल मुझे अच्छी तरह याद थे। हाँ, मैं इस चादर को पहचानता था लेकिन और कुछ याद नहीं आ रहा था। मेरी सोच पूरी तरह मेरा साथ छोड़ चुकी थी।

‘समय’ जैसे समाप्त हो चुका था। सब कुछ थम सा गया था, बिलकुल स्थिर। न जाने कब तक मैं उन हालात में उस कमरे में पड़ा रहा। फिर अचानक दरवाज़ा खुला और कुछ हाथों ने मुझे उस कमरे से उठाकर दूसरे कमरे में रख दिया। यहाँ बहुत रौशनी थी और मुझे किसी पलंग या टेबल पर लिटाया गया था। किसी ने मेरी चादर उतारी और सफ़ेद दस्ताने पहने दो हाथ मेरे धड़ को उधेड़ने लगे। मैं भौंचक्का रह गया। मेरा धड़ बीच से कटा हुआ था, जिस पर टाँके लगे थे। उन दो हाथों ने इन टाँकों को खोला, मेरी अँतड़ियों को टटोला और फिर से मेरे धड़ को सिल दिया। यह कैसा खेल खेला जा रहा था मेरे साथ? किसने बनाया ऐसा घिनौना खेल? आख़िर कौन थे यह लोग? मैं समझ गया कि ज़रूर यह अमानुष ही होंगे, क्योंकि ‘मनुष्य’ तो ऐसा खेल नहीं खेलते।

वहाँ कितने लोग थे, इसका तो मुझे अनुमान नहीं, लेकिन उनकी संख्या अधिक ही रही होगी। सभी जाने-पहचाने चेहरे थे। मेरे सगे सम्बन्धी, कुछ मित्र, कुछ परिचित, और बहुत से लोग। क्यों इकट्ठा हुए थे यह लोग? और कोई भी मुझसे बात नहीं कर रहा था, ऐसा क्यों? हैरानी की बात यह थी कि किसी ने भी मेरा हाल तक नहीं पूछा। आज का दिन मेरे ‘जीवन’ का सबसे विचित्र दिन था। कुछ शोर भी सुनाई पड़ने लगा फिर, जैसे कोई यात्रा निकाली जा रही थी। सब लोग रो रहे थे या हँस रहे थे, समझना कठिन था। सबके सुर मिले-जुले से लगते थे। वहीं कोई मंत्रों का उच्चारण भी कर रहा था। मैं धरती पर लेटा आकाश को देख रहा था, उसी गुलाबी फूलों वाली चादर में लिपटा। दूर गगन में पंछी उड़ रहे थे, शायद वे मुझे बुला रहे थे। फिर पानी के छींटें पड़े, कुछ सिन्दूर उड़ा, मन्त्रों का उच्चारण तेज़ हुआ और ‘समय’ ठहर गया। अगले ही क्षण मैं पंख फैलाए पंछियों के साथ आकाश में उड़ने लगा। इससे पहले मैंने अपने आप को इतना हल्का महसूस नहीं किया था। सब कुछ जैसे पीछे छूट गया, लेकिन लोगों का शोर अब भी मौजूद था। फिर आग की लपटें उठीं, जलीं और सब-कुछ राख हो गया।

मेरा शरीर पसीने से तर-बतर हो चुका था और मैं बुरी तरह से बौखला कर नींद से उठ बैठा। यह रात बहुत लम्बी थी पिछली कई रातों की तरह। हर रात मेरा शरीर किसी घुटन-भरे कमरे में ठण्ड से काँपता, मेरे गले की आवाज़ बन्द हो जाती, मेरी नाभि में भयानक दर्द उठता, गुलाबी फूलों वाली चादर को उतार कर दो हाथ मेरा धड़ उधेड़ते, कुछ टटोलते, फिर सिल देते, लोगों का शोर सुनायी पड़ता, सिन्दूर उड़ता, मन्त्र पढ़े जाते, मैं पंख लगाए आकाश में उड़ जाता और फिर हर तरफ़ आग की लपटें दिखायी देतीं और इसके बाद, एक अल्पविराम! शेष रात मेरे कानों में कुछ भयानक आवाज़ें गूँजती रहतीं, जिनसे भागने का मैं अनायास प्रयत्न करता, और फिर ‘एक और सुबह’ हो जाती। ऐसी सुबह जिसमें मात्र अन्धकार के और कुछ न होता।

यूँ तो नागपुर एक छोटा सा शहर था, लेकिन  धीरे-धीरे इसका स्वरूप भी अन्य महानगरों जैसा होता जा रहा था। वातावरण को प्रदूषित करता वाहनों का धुआँ और शोर, हर तरफ़ लोगों की भीड़, जगह-जगह नारेबाज़ी और प्रदर्शन, गगनचुंबी इमारतों में छुपा आकाश, यह सब इस शहर की आम बातें बन चुकी थीं। बचपन में एक बार मैं यहाँ आया था, जिसकी कुछ धुँधली-सी यादें अब भी मौजूद थीं मेरे ज़ेहन में। लेकिन तब यह शहर ऐसा नहीं था। यहाँ बहुत हरियाली और शान्ति हुआ करती थी उस ज़माने में, जो अब दूर-दूर तक नदारद थी। खुले आँगन वाले सुन्दर घर हुआ करते थे यहाँ, जिन्हें ऊँची इमारतें निगल गयी थीं। लेकिन जब से अमन का इन्जीनियरिंग में यहाँ दाख़िला हुआ था, मेरा इस शहर से नाता जुड़ गया था। साल में दो-तीन बार मुझे यहाँ आना ही पड़ता। पिछले डेढ़ साल में अमन यहाँ की हर गली और हर मुहल्ले से परिचित हो गया था। मैं उससे मिलने जब भी नागपुर आता, तो वह मुझे इन गलियों में घुमाने ले जाता और वहाँ के क़िस्से सुनाता जैसे यह शहर उसका अपना ही हो। उसकी बातों से लगता जैसे इस शहर से भी उसने दोस्ती कर ली थी और उसे अपना बना लिया था। ज़िन्दगी जीने का भरपूर जोश था अमन में। इन्जीनियरिंग में दाख़िले के बाद उसे एक दिशा मिल गयी थी, वह कुछ कर दिखाना चाहता था अब। उसे इन्तज़ार था तो अब उन ‘पंखों’ का, जिनकी बदौलत वह आसमान में उड़ जाना चाहता था। उसने मुझसे वादा किया था वह दिल लगाकर पढ़ेगा और इन्जीनियरिंग की डिग्री लेकर ही घर लौटेगा।

अमन घर में सबसे छोटा था, इसलिए वह सबका लाड़ला था। उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए हम सब ने अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे अपनी आँखों से दूर भेजा था, जो किसी तपस्या से कम न था। लेकिन हमसे बड़ी तपस्या तो अमन कर रहा था। छोटी आयु में घर और परिजनों से दूर अकेले रहकर पढ़ना, अनजानों में अपनों का प्यार ढूँढ़ना, अमन की तपस्या ही थी। हमारे सपनों को साकार करने में जुटा था अमन। यहाँ इस अनजान शहर में, हर ‘मोर्चा ’ उसने अकेले ही सँभाला था। वह स्वयं अपना सहारा बन कर जीना सीख रहा था। शायद मैं इतना साहस कभी न कर पाता फिर चाहे वो अकेले हॉस्टल में रहने का होता या किसी बदबू भरे बर्फ़ीले कमरे में ‘निर्जीव रात’ बिताने का। मुझे पता भी न चला कि कब मेरी आँख लग गयी, लेकिन विमान के उतरने के झटके से मेरी नींद टूट गयी, या शायद मेरा भ्रम टूट गया। मैं नागपुर पहुँच गया था। एयरपोर्ट से सीधा मैं अमन के हॉस्टल गया। उसके मित्र से उसके कमरे की चाबी लेकर जब मैंने कमरा खोला तो मुझे हर तरफ़ अमन का चेहरा नज़र आने लगा। दीवारों पर लगे पोस्टर, मेज़ पर रखी किताबें, चाबियों के तरह-तरह के छल्ले, तार पर टँगे रंग-बिरंगे कपड़े, ऊँची एड़ी के जूते, सभी में अमन की झलक थी, मानों अभी कमरे से निकल कर बाहर गया हो। किसी तरह हिम्मत जुटाकर मैंने उसकी एक-एक चीज़ को समेटना शुरू किया। मेज़ की दराज़ में रखे पत्र और ग्रीटिंग कार्ड अपनी-अपनी कहानी कहते थे। इनमें से अधिकतर पर स्वाति का नाम था। मुझे याद था कि स्वाति अमन के साथ स्कूल में पढ़ती थी, लेकिन वह अब तक अमन के साथ संपर्क में थी इसका अनुमान मुझे नहीं था। चन्द एक पत्रों में से जब नज़र दौड़ाई तो मुझे समझते देर न लगी कि यह मात्र ‘सम्पर्क’ नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा था। स्वाति अमन के अकेलेपन की साथी बन चुकी थी। उसका हर पत्र मोतियों में पिरोए शब्दों की माला सा ख़ूबसूरत था। उसकी लिखी हर बात अमन को उसका लक्ष्य प्राप्त करने की प्रेरणा से लबरेज़ थी, और कहीं-कहीं कमसिन प्यार की ख़ुशबू भी महकती थी इन पत्रों में। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि अमन सिर्फ़ हमारी आँखों का तारा ही नहीं, बल्कि स्वाति के दिल का नूर भी बन चुका था। अमन इतना बड़ा हो गया और हमें पता भी न चला। दोनों ही उम्र के उस नाज़ुक दौर से गुज़र रहे थे, जब ऐसी भावनाओं का जन्म लेना स्वाभाविक ही होता है। बहरहाल, मैं बड़े असमंजस में था कि अमन के कमरे से कौन सी चीज़ उठाऊँ और कौन सी छोड़ दूँ। जिस-जिस पल मैं जो सामान समेटता जाता, उस-उस पल उसके साथ जुड़ा अमन का रिश्ता भी तोड़ता जाता। उस कमरे में एक छोटा सा सपनों का संसार उजाड़ना था मुझे अपने हाथों से आज, और फिर उसके अवशेष उठाकर लाने थे। कैसी विडम्बना थी मेरे समक्ष।

अन्त में अमन के कॉलेज के प्रधानाचार्य से मिलकर मैंने बाक़ी की औपचारिकतायें पूरी कीं। वहाँ से आते समय अमन के मित्रों ने मुझे घेर लिया। सभी स्तब्ध थे, किसी से कुछ कहते न बना। “शायद अब कभी नागपुर आना न होगा।” बस इतना कह कर मैंने उनसे विदा ली और उस शहर से सारे रिश्ते तोड़ डाले। अगली सुबह मैं पहले विमान से ही दिल्ली के लिए रवाना हो गया। चालीस हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर आँखें बन्द किए मैं पिछले दिनों हुए घटनाक्रम से अपना ध्यान हटाने की फिर एक नाकाम कोशिश करने लगा। लेकिन आवाज़ें इन्सान का पीछा कब छोड़ती हैं। ऐसी ही कुछ आवाज़ें मेरे कानों में ‘फिर’ से गूँजने लगीं। मैंने हताश होकर दोनों हाथों से अपने कानों को कस कर बन्द कर लिया, लेकिन ये आवाज़ें बन्द नहीं हुईं बल्कि और तेज़ और साफ़ सुनायी पड़ने लगीं। मैं छटपटाने लगा। चाह कर भी मैं अपनी सोच से भाग नहीं पाया। मैंने ईश्वर को मदद के लिए पुकारा, लेकिन उस ‘रचयिता’ ने भी मुझे अनसुना कर दिया। घबरा कर मैंने आँखें खोल दीं। मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा क्योंकि विमान बिलकुल ख़ाली था और मैं उसमें अकेला यात्री था। आगे से पीछे तक मैंने विमान के कई चक्कर लगाए, लोगों को पुकारा, चालक कक्ष (कॉकपिट) में भी गया, लेकिन कहीं कोई न मिला। यह कैसी परिस्थिति थी? मैं इसमें कैसे फँस गया? और अब इसमें से निकलूँगा कैसे? – ऐसे कई सवालों की झड़ी मेरे दिमाग़ में कौंध गयी। अगले ही पल पूरे विमान में वही आवाज़ें गूँजने लगीं जिनसे जुड़े कुछ चेहरे ‘शून्य’ से बार-बार उभर कर सामने आते और गुम हो जाते। अब मैं कहीं नहीं भाग सकता था क्योंकि यह विमान मेरी दिमाग़ी हालत का आईना बन चुका था। आख़िर मैं थक कर बैठ गया और अपने आप को हालात के हवाले कर दिया।

‘शून्य’ से दो चेहरे उभरे और एक आवाज़ आयी, “आपको अभी अस्पताल चलना होगा। नहीं, हम उसकी हालत के बारे में कुछ नहीं जानते, हमने उसे बस दूर से ही देखा था और पहचान गये थे, इसलिए आपको बताने चले आए। कुछ लोग उसे उठाकर अस्पताल ले गये हैं। उसका स्कूटर पूरी तरह टूट गया था।”

‘अस्पताल’ के स्वागत-कक्ष से एक महिला का चेहरा उभरा, और उसकी सर्द आवाज़ सुनायी पड़ी, “उसकी हालत बहुत गम्भीर है, उसे आपातकालीन वार्ड में ले जाया गया है।”

सफ़ेद बिस्तरे, हरे पर्दे, चश्मे पहने डॉक्टर, सिर से पाँव तक सफ़ेद कपड़ों में लिपटी काली नर्सें, मैली कुचेली आयायें, हर आते-जाते के हाथ में खाने के टिफ़िन, पानी के थर्मस या फलों के थैले, दवाई, रूई और पट्टियों की मिली-जुली दुर्गन्ध। एक बार फिर वही अस्पताल का विचित्र वातावरण और मैं आपातकालीन वार्ड की ओर पागलों की तरह भागा जा रहा था, ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ कि स्वागत-कक्ष में बैठी महिला को ग़लतफ़हमी हुयी हो। लेकिन किसी को कोई ग़लतफ़हमी नहीं हुई थी।

‘आपातकालीन वार्ड’ मे अन्दर ‘कर्त्तव्यपरायण’ डॉक्टरों के भावहीन चेहरे और बन्दूक की गोली की तरह दागी गयी मेरे हृदय को चीरती हुई एक आवाज़, “इसका बचना मुश्किल है। चोट बहुत गहरी है, लीवर पूरी तरह कट गया है। खून बहुत बह गया है, दो बार हृदय भी रुक चुका है। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ‘उम्मीद’ बहुत कम है।”

डॉक्टरों के बीच स्ट्रेचर पर लेटे अमन का शान्त चेहरा, और कहीं कोई आवाज़ नहीं। अमन गहरी बेहोशी (कोमा) में जा चुका था।

फिर मेरी आवाज़- “अमन! अमन!! तू घबरा मत, मैं आ गया हूँ। तेरा भैया आ गया है। मैं सब सम्हाल लूँगा। सब ठीक हो जाएगा, तू जाना नहीं। मैं तेरे पास हूँ, हिम्मत रखना, जाना नहीं मेरे भाई!”

दो पथरीली आँखों के नीचे पट्टी से ढका नर्स का चेहरा और एक निर्देश, “आप बाहर इन्तज़ार कीजिए, अब ‘पीड़ित‘ का ऑपरेशन किया जाएगा।” यह कैसी विडम्बना थी कि कुछ देर पहले तक उछलता-कूदता अमन अचानक ‘पीड़ित’ बन गया था, जिसके बचने की संभावना बहुत कम थी। फिर एक डॉक्टर, फिर एक चेहरा और फिर एक आवाज़, “आपको इस फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर करने होंगे। इसमें लिखा है कि आपको पीड़ित’ की हालत अच्छी तरह समझा दी गयी है और ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी आपकी अपनी होगी।”

“ज़िम्मेदारी आपकी अपनी होगी”, यह वाक्य मैंने पहले भी कई बार सुना था। कभी अमन के अध्यापकों से तो कभी अमन के प्रधानाचार्य से। लेकिन तब मुझे पता था कि अमन मेरा कहा अवश्य मानेगा, इसलिए मैं उसकी हर ज़िम्मेदारी लेने को तत्पर रहता था। लेकिन आज अमन ने मेरी कोई बात नहीं सुनी, मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया तो मैं कैसे उसकी इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी ले लेता? उसकी ज़िन्दगी और मौत की ज़िम्मेदारी? लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था, मैंने हस्ताक्षर कर दिए और सारी ज़िम्मेदारी ले ली, एक वफ़ादार सेनापति की तरह।

माँ-पिताजी का बिलखता चेहरा, अमन के दोस्तों के व्यग्र चेहरे, पुनीत का स्तब्ध चेहरा और उसकी रुआँसी आवाज़, “मुझे पढ़ना था, इसलिए मैं घर लौट गया था, और अमन अकेला ही चला गया, अपने स्कूटर पर। काश, मैंने उसका साथ न छोड़ा होता।”

वह एक सड़क दुर्घटना थी। क़ायदे-क़ानून और नियमों की बेपरवाह खिल्ली उड़ाती हुई एक कार ने अमन के स्कूटर को ज़ोर से टक्कर दे मारी थी। कार चालक बहुत तेज़ी से सड़क की बाईं ओर से, ग़लत दिशा से अपनी धुन में चला रहा था। अचानक विपरीत दिशा से आ रही तेज़ कार ने अमन को सम्हलने का मौक़ा भी न दिया। टक्कर बिलकुल सामने से हुई जिससे अमन का स्कूटर पूरी तरह टूट गया। स्कूटर का हैण्डल अमन के पेट में जा लगा। चोट इतनी गहरी लगी, कि हमारी आँखों का तारा वहीं सड़क पर ही अस्त हो गया। कुछ लोग उठाकर उसे नज़दीक के अस्पताल में ले गये और फिर किसी पड़ोसी ने आकर हमें सूचना दी।

दुर्घटना की जाँच कर रहे दो पुलिस वालों के चेहरे और ‘शून्य’ से गूँजती एक आवाज़, “आपका नाम? लड़के का नाम? उम्र? लड़के के बाप का नाम? घर का पता?”

क्षणिक मौन, फिर एक आवाज़, “कार वाला हिरासत में है, आपको एक बार थाने आना होगा।” अगले तीन घण्टे तक ऑपरेशन थियेटर के बाहर बैठे लोग ईश्वर से अमन के जीवन की प्रार्थना करते रहे। अल्पविराम! ऑपरेशन हो चुका था। कोई सफलता नहीं मिली। अमन आख़िरी साँसें ले रहा था। एक डॉक्टर का भावहीन चेहरा और एक आवाज़, उसका हृदय कई बार रुक चुका है। हम उसे मशीनों पर ज़िन्दा रखे हुए हैं। अब कोई आशा नहीं है।

मेरी आवाज़, “डॉक्टर साहब, करिश्मे भी तो होते हैं, आप कोशिश करते रहें, शायद कोई करिश्मा हो जाए।” लेकिन कोई करिश्मा नहीं हुआ। गहन-चिकित्सा-कक्ष में स्ट्रेचर पर अमन का मृत शरीर, धड़ बीच से सिला हुआ, कपड़ों के नाम पर शरीर पर चन्द पट्टियाँ, यह था हमारी ‘कलाकृति’ का अन्तिम स्वरूप।

मैं गहन-चिकित्सा-कक्ष से बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, जैसे मेरे पाँव ज़मीन से चिपक गये थे। मेरी नज़र एकटक अमन के मृत शरीर पर पड़ी, जिसमें मैं अपने छोटे गुड्डे को तलाश रहा था, बिलकुल असहाय। मेरे साथ तनु के पति राकेश भी थे, जिन्होंने मुझे बाहर खड़े परिजनों को यह दुःखद समाचार देने को कहा। मैंने हिम्मत जुटाई और बाहर गया। सब साँस रोके खड़े थे कि मैं क्या समाचार लेकर आता हूँ। मैं निःसहाय था। मैंने समाचार दिया। सभी फूट-फूट कर रोने लगे।

चाय पीते हुए एक वार्ड-ब्वाय का चेहरा और एक सूचना, “यह एक पुलिस केस है। आपको ‘शव’ पोस्टमॉर्टम के बाद मिलेगा। शाम के पाँच बज चुके हैं, अब कुछ नहीं होगा। कल रविवार है, डॉक्टर नहीं आयेंगे। आप परसों आयें, पोस्टमॉर्टम होने के बाद शव ले जाना। तब तक इसे शवगृह (मोर्चरी) में रखा जाएगा।” सूचना समाप्त हुई।

कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या न करें। अमन की मौत ने हम सब को एक बहुत गहरा घाव दे दिया था, और फिर उसके शरीर को दो दिन तक शवगृह में रखने की बात से जैसे हम सब की आत्मा भी चिल्ला उठी। मैंने उस विधाता से सवाल किए, “हे ईश्वर, यह कैसा संसार है तेरा? यह कैसे इन्सान बना दिए तूने? और उनके बनाए ये क्रूर नियम, पाँच बज चुके हैं, कल रविवार है, परसों आना, शव ले जाना? यह सब इन्सान से पत्थर कैसे बन गये ? शायद उसी तरह, जैसे अमन ‘मेरे भाई से एक ‘शव’ बन गया। मुझे किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला। सब कुछ निर्जीव लग रहा था -कोई दर्द, कोई पीड़ा, कोई भावना, कोई आँसू, सब निरर्थक, सब बेमानी लग रहे थे।”

शव को ढाँपने के लिए घर से एक चादर लायी गयी। अमन की चादर, गुलाबी फूलों वाली चादर, जिसमें लपेटकर उसे शवगृह में रखा गया। एक घुटन-भरा, अन्धेरा कमरा जिसके फ़र्श पर बर्फ़ की सिल्लियाँ पड़ीं थीं और चारों तरफ़ से बदबू भरी ठण्डी हवा का दबाव आ रहा था। फिर दरवाज़ा बन्द कर बाहर से ताला लगा दिया गया। शाम ढल चुकी थी, हमारा सूरज भी अस्त हो गया था। हम सब घर लौट आए, अमन को वहाँ अकेला छोड़कर। उस अन्धेरे में अगर उसने हमें पुकारा भी होगा, तो उसकी आवाज़ दब गयी होगी। न जाने कितनी देर तक वह अकेला ही रोया होगा, और वहाँ उस अन्धेरे में उसे कितना डर लगा होगा। और उस घाव के दर्द को कैसे सहा होगा उसने? कितनी भयानक थी वह रात जो काटे नहीं कटती थी।

फिर सुबह हुई। इन दर्दनाक परिस्थितियों में एक और दिन बिताना असम्भव था। रविवार का आनन्द लेते हुए एक डॉक्टर को किसी तरह मनाया और मेरा एक मित्र अपनी कार लेकर उन्हें लाने गया ताकि वे आयें और पोस्टमॉर्टम करें। पुलिसवालों को भी कई मिन्नतों के बाद राज़ी किया क्योंकि शव सौंपने की कार्यवाही उन्हीं को पूरी करनी थी। पुलिस की हाज़िरी में पोस्टमॉर्टम आरम्भ हुआ। परिवार के एक सदस्य को गवाह बनना था, मुझे बनाया गया। मैंने सब देखा। डॉक्टर ने अमन की चादर उतारी और सफ़ेद दस्ताने पहने हाथों से उसके धड़ पर लगे टाँकें खोलने लगा। अमन का धड़ बीच से कटा हुआ था। उन हाथों ने अमन की अँतड़ियों को टटोला, एक जगह माँस बुरी तरह से कटा हुआ था, जो शायद अमन का लीवर था। फिर उतनी ही तेज़ी से उन हाथों ने अमन के धड़ पर टाँके लगा दिए और उसके शरीर को फिर से चादर से ढाँप दिया। ‘औपचारिकता’ पूरी हुई, शव हमें सौंप दिया गया, हमारा अमन हमें सौंप दिया गया।

शून्य से उभरते कई चेहरे, रोते-बिलखते,  परिजनों के, रिश्तेदारों के, मित्रों के। रोती हुई आवाज़ों के बीच पंडित का मन्त्रोच्चारण। पिताजी टूट चुके थे। आज फिर मुझे एक और मोर्चा सँभालना था, अकेले। गंगा-जल के छींटे, सिन्दूर, आकाश में उड़ते पंछी, यह थी अमन की अन्तिम यात्रा। अमन समय से आगे निकल गया था। उसके हाथ खुले थे, अब कोई ख़ुशी नहीं बची थी उनमें हमारे लिए। अमन सब ख़ुशियाँ लुटा चुका था। आज उसकी सभी समस्याओं का हल होने जा रहा था मेरे हाथों। मुझे उसे मुक्ति देनी थी, अपने छोटे से खिलौने को विदा करना था। पंडित ने मुझसे जैसा कहा, मैं करता गया। फिर आग की लपटें उठीं और न जाने कब तक जलती रहीं। अमन हमारी आँखों से ओझल हो गया, वह सदा के लिए गुम हो गया। मेरे बचपन का भय आज एक क्रूर सत्य बन कर अपनी तपिश से मुझे जला रहा था, अमन के खो जाने का भय।

आवाज़ें बन्द हो गईं हर तरफ़ शान्ति थी। मेरा भ्रम टूटा और मेरी आँखें खुलीं। विमान दिल्ली पहुँच चुका था। सब कुछ सामान्य था, अपनी जगह, ठीक-ठाक, कर्मचारी दल, अन्य यात्री, सभी कुछ। मैं शून्य से बाहर आ गया। सभी यात्रियों को उतरने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। बाहर बारिश हो रही थी। सब नया-नया सा दिख रहा था, बिलकुल साफ़, धुला-धुला। बारिश के धुँधलाते मौसम में दौड़ती सड़कों पर गाड़ियों की क़तारें और उनकी धुँधियाती बत्तियाँ, पेड़ों, इमारतों और छज्जों के नीचे बारिश के थमने का इन्तज़ार करते लोग। यहाँ-वहाँ घूमती रंग बिरंगी छतरियाँ, बरखा में गिलहरी की तरह फुदकते नंग-धड़ंग बच्चे। सब कुछ पहले जैसा था, कहीं कुछ नहीं बदला। लेकिन कहीं और सब कुछ बदल चुका था, हमारा संसार बदल चुका था।

माँ की आवाज़ फिर सुनाई देने लगी। इक्कीस सावन बाद, थकी-हारी, हौसलापरस्त, हालात से लड़ती माँ की आवाज़, “वीरेन, बारिश बन्द हो चुकी है बेटा, अब नीचे आ जाओ। ऑफ़िस से आकर चाय भी नहीं पी।” न जाने मैं किन ख़्यालों में खोया था, बारिश वास्तव में बन्द हो चुकी थी। लेकिन मेरा चेहरा अब तक गीला था, मेरी आँखें अब भी नम थीं। अपने-आप को समेट कर मैं ज्यों ही उठा, न जाने कहाँ से बादलों से गिरती, उड़ती-लहराती, पवन के हिन्डोले में झूलती, बारिश की एक बूँद मेरे चेहरे पर आ गिरी और मेरे आँसुओं से जा मिली। उसके मधुर स्पर्श से मुझे ऐसा लगा जैसे दूर  नील गगन में बैठा कोई है जो मेरे हृदय की पीड़ा को जानता है। उस एक बूँद के अस्तित्व का आभास लिए मैं घर लौट आया।

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-हरीश मसंद

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