
फिर मिलेंगे
– जय वर्मा, ब्रिटेन
“माँ मुझे अपना हीरे का कंगन और शादी की अँगूठी उतारकर दे दो। मैं घर जाकर आपके सेफ़ बोक्स में इन्हें रख दूँगी। वरना आप कहीं रख कर भूल जायेंगी।” बेटी इंडिया ने नर्सिंग होम से वापिस घर जाते हुए माँ को आश्वासन देकर धीरे से कहा।
“हम अँग्रेज औरतें अपनी शादी की अँगूठी कभी नहीं उतारते। यह मेरे पति इंद्रजीत सिंह की आख़िरी निशानी है। इसे मैं जीवन भर अपने पास रखूँगी।” कंगन देते हुए माँ ने दृढ़ता से कहा।
“माँ मैं वायदा करती हूँ कि आपको जल्दी ही घर वापिस ले जाऊँगी। यह नहीं सोचना कि आप यहाँ चैस्टरफ़ील्ड नर्सिंग होम में हमेशा रहने के लिए आयी हैं। नर्सिंग होम की पालिसी है कि आप कोई क़ीमती सामान, ज़ेवर या धनराशि कमरे में अपने साथ नहीं रख सकते।” इंडिया ने माँ डेज़ी को समझाने की कोशिश की।
माँ की बूढ़ी आँखों में अकस्मात बहुत से सवाल उभर आये थे। माँ के अँग्रेज गोरे रंग पर घुँघराले सफ़ेद बाल और ख़ूबसूरत तीखी नाक बूढ़े चेहरे को सचमुच आकर्षक बना रहे थे। कॉश! मेरा रंग डैडी की तरह भारतीय गेहूँआ न होकर माँ जैसा गोरा होता। इंडिया को माँ पर प्यार आ रहा था। माँ की भोली सूरत देखकर उसे तरस भी आ रहा था। जब से इंडिया माँ के पास रहने आयी थी उसने पहले कभी उन्हें अकेले घर पर नहीं छोड़ा था।
इंडिया की सहेली रोमा मिसेज़ डेज़ी सिंह को सँभालने के लिए उनके साथ नर्सिंग होम आयी थी।
“रोमा यह मेरी वही माँ हैं जो शेरनी की तरह घर में राज्य किया करती थीं। हैरानी की बात है कि वे अब बार-बार एक ही बात को दोहराती रहती हैं। मुझे यह देखकर बहुत दुख होता है।”
“अफ़सोस!….” रोमा ने सहानुभूति के साथ सिर हिलाया।
“तुम्ही बताओ कि मैं क्या करूँ? यदि माँ की देखभाल मैं घर पर कर सकती तो अवश्य करती। लेकिन मेरे लिए हर समय घर पर रहना केवल मुश्किल ही नहीं असंभव है। इनकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। आजकल तो मुझे पता ही नहीं चलता कि मैं अपनी माँ से बात कर रही हूँ या किसी और इंसान से। माँ के लिए हम सब अजनबी बन गये हैं।” इंडिया अपनी उलझन की उधेड़बुन में लिप्त थी।
“थैंक गुडनैस, तुम सही समय पर आंटी को डॉक्टर के पास तुरंत ले आयी।”
“जब माँ की मनोदशा में उतार-चढ़ाव और बदलाव अधिक मात्रा में होने लगा उस समय किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है? बोलते-बोलते वे भूल जाती थीं और उन्हें सही शब्द नहीं सूझते थे। उनका व्यवहार बदला-बदला सा लगता था। उनके व्यक्तित्व में भी फ़र्क़ आ गया था। प्रश्नों को पूछकर फिर से बार-बार दोहराने लगी थीं। धीरे-धीरे उनकी स्मरण शक्ति भी कम हो गयी थी।”
फ़ेमिली डाक्टर ने जाँचकर एवं मेमरी टैस्ट करने के बाद बताया, “इनको आज का दिन और तिथि याद नही थी। ये वस्तुओं के चित्र देखकर नहीं पहचान रही थीं कि वे किसके चित्र थे? ये भी भूल गयी थीं कि वे किस शहर में रहती हैं? नंबर जोड़ने और घटाने में इन्हें परेशानी हुई। नाम लिखने में भी इन्होंने ग़लत स्पैलिंग्स का इस्तेमाल किया। बचपन की पुरानी बातें तो इन्हें अच्छी तरह याद थीं परन्तु आज की घटनाएँ इन्हें याद नहीं। मेरे विचार से इन्हें डिमेंशिया बीमारी की शुरूआत हो गयी है।”
डॉक्टर की बात सुनकर इंडिया स्तंभित रह गयी और बौखलाकर बोली, “अब माँ की देखभाल मैं अकेले कैसे कर सकूँगी?”
इंडिया ने माँ के चेहरे की तरफ़ देखकर सोचा, ‘क्या माँ इस बीमारी का अर्थ समझती हैं?’ माँ के चेहरे के हाव-भाव नहीं बदले थे…।
डॉक्टर से पूछा, “यह क्या बीमारी है? माँ कब तक ठीक हो जायेंगी?”
“डिमेंशिया एक प्रगतिशील बीमारी है यह विभिन्न प्रकार की होती है। मनोभ्रंश कोई रोग नहीं है बल्कि मस्तिष्क के कार्य का ह्रास है। इस बीमारी की पहचान है कि आवश्यक चीज़ों को भूल जाना। विशेषतः तुरंत किए हुए काम, जैसे कि नाश्ता किया या नहीं? आज की तिथि क्या है? इत्यादि।”
“इस बीमारी का क्या इलाज है डॉक्टर?”
“यह मानसिक दशा है परन्तु पागलपन क़तई नहीं है। इन्हें कुछ और टेस्ट्स के लिए अस्पताल में विशेषज्ञ डाक्टर के पास भेजना होगा। इस बीमारी को सामान्य बुढ़ापा समझ कर नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए…।
“इनकी हालत को सुधारने के लिए हमें क्या करना होगा?”
“तुमने मिसेज़ डेज़ी सिंह की सूझ-बूझ में कब से बदलाव देखा है?” डॉ. ने जिज्ञासा पूर्वक पूछा।
इंडिया ने डाक्टर को जल्दी-जल्दी बताया, “माँ कुछ महीनों से प्रायः चीज़ों को अनुचित या ग़लत जगह पर रख देती हैं। एक दिन इन्होंने घड़ी को फ्रिज में रख दिया। चाबी को रख कर भूल जाना तो आये दिन की बात है।”
“क्या मिसेज़ डेज़ी सिंह आजकल गाड़ी चलाती हैं?”
“गाड़ी चलाना तो माँ ने पिछले एक वर्ष से बंद किया हुआ है। आजकल मैं ही घर में एक ड्राइवर हूँ।”
“माँ कोई भी काम आरम्भ करने के तुरंत बाद भूल जाती हैं कि वे क्या करना चाहती थीं। बहुत कोशिश करने के बाद भी याद न कर सकने से कुण्ठित हो जाती हैं। आजकल लोगों से मेल-जोल भी बंद कर दिया है। अपने आप में चुप्पी साधकर गुमसुम घर के किसी कोने में पड़ी रहती हैं।” इंडिया ने संकेत दिया
“डाक्टर ने इंडिया को आश्वासन देते हुए कहा, “तुम्हें धैर्य से काम लेना होगा। घर में सभी परिवार के सदस्यों, मित्रों एवं आसपास के लोगों को मिलकर आने वाले वर्षों में इनकी देखभाल करने के लिए तैयार होना होगा।“
“इस बीमारी का निदान क्या है डॉक्टर साहब?”
“बीमारी का प्रभाव बढ़ने से धीरे-धीरे मानसिक कार्यों पर असर पड़ता है। छोटी-छोटी बातों पर, बिना कारण ही बौखलाकर चिल्लाना और रोना इस बीमारी में सामान्य हो सकते हैं। दिमाग के स्कैन के बाद ही बता सकेंगे कि मस्तिष्क का कौन सा हिस्सा क्षतिग्रस्त है।”
“परन्तु डॉक्टर मेरी माँ की दशा कब तक ऐसी रहेगी?”
“अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। समय ही महत्वपूर्ण है। धीरे-धीरे मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) से ग्रस्त लोगों को वस्त्र बदलने, शौचालय जाने, नहाने तथा खाना खाने जैसी दैनिक गतिविधियों में सहायता की ज़रूरत पड़ सकती है। इन लीफ़लेट्स को पढ़कर आप जान जाएंगे कि रोग दशा बढ़ने के साथ किन आवश्यकताओं में बदलाव आयेगा। जहाँ तक संभव है इनको स्वतंत्र रूप से सक्रिय रहने में परिवार के सहयोग और सहायता की आवश्यकता होगी।” लीफ़लेट्स देते हुए डाक्टर ने इंडिया को समझाया।
आशंकाओं में घिरी इंडिया डॉक्टर से प्रश्न कर रही थी। अपने मन में उठे अनेक सवालों का यही एक तरीक़ा उसे सूझ रहा था।
“माँ की बीमारी की हालत मुझसे देखी नहीं जाती। इन्हें नर्सिंग होम में भरती करते समय मुझे ग्लानि और अकृतज्ञता की भावना भी आ रही है।”
इंडिया अपने पति को छोड़कर शादी के 19 वर्ष के पश्चात माँ डेज़ी के पास रहने के लिए घर वापिस आयी थी। उसने शादी के बाद इतने वर्षों तक माँ का हाल नहीं पूछा था। सहानुभूति और सहयोग की अपेक्षा माँ से वह कैसे कर सकती थी? फिर भी माँ डेज़ी अपनी केवल एक ही शर्त पर उसे घर में रखने के लिए तैयार हुई थी कि वह बुढ़ापे में माँ को नर्सिंग होम में नहीं भेजेगी। आख़िरी दम तक उसकी देखभाल घर पर ही करेगी। डेज़ी नर्सिंग होम में बिल्कुल नहीं जाना चाहती थी। वह अपना अंतिम समय घर में ही बिताना चाहती थी।
“अपने दिये हुए वायदे के अनुसार मुझे माँ की देखभाल घर पर ही करनी चाहिये थी। अतः रोमा इन सब बातों को सोचकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ और व्याकुल हूँ।”
“क्या तुमने अपनी बड़ी बहन सिमरन से इस समस्या के बारे में बात की है?”
“अगर बड़ी बहन थोड़ा सा उत्तरदायित्व ले लेती तो मुझे भी चैन मिलता।…..मेरी बहन को किसी भी बात से मतलब नहीं है। संपर्क करने के बाद भी बड़ी बहन ने माँ के बारे में कोई चिंता व्यक्त नहीं की। बहन ने साफ़ जवाब दे दिया था। सब ज़िम्मेदारी मेरी ही है।” इंडिया झल्लाई।
“सोच समझकर इंडिया तुम्हें ही निर्णय लेना होगा कि आंटी की देखभाल स्वयं घर पर कर सकोगी या नर्सिंग होम में भेजना चाहोगी?”
“देखा जाये तो मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है और मेरे अपने काम की ज़िम्मेदारियाँ भी हैं।” इंडिया ने एक गहरी साँस ली।
“अपनी बहन से एक बार फिर पूछकर देखो। यू हैव नथिंग टु लूज़।”
“हम बहनों में न कभी आपसी झगड़े हुए और न कभी कहा-सुनी हुई परन्तु न जाने हम दोनों बहनें आपस में इतनी दूर कैसे हो गईं?”
“ऐसे में माई डियर फ्रैंड तुम्हें ही मज़बूत बनकर क़दम उठाना होगा। आंटी डेज़ी तो अपनी ही अलग दुनिया में हैं।”
“मेरे सामने भी घर पर रहने की व्यावहारिक समस्या है वरना मैं माँ को कभी नर्सिंग होम में नहीं भेजती। परन्तु मैं क्या करूँ? मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं ठीक कर रही हूँ या नहीं? माँ के हित के लिए ही इतना सख़्त क़दम मुझे उठाना पड़ रहा है। अगर मैं नौकरी नहीं करूँ तो घर के ख़र्च कैसे चलाऊँगी? मेरी पार्ट-टाइम नौकरी तथा माँ की पेंशन मिलाकर ही घर का ख़र्च चल रहा है।”……..
संताप और संशय छोड़कर इंडिया ने स्वयं सोच-समझ कर हैल्थ प्रोफ़ेशनल की सहायता से माँ डेज़ी को नर्सिंग होम में छोड़ने का निर्णय ले ही लिया।……..
चैस्टरफ़ील्ड नर्सिंग होम में डेज़ी अपने कमरे में श्वेत स्वच्छ बिस्तर पर आराम करने लगीं। ड्रैसिंग टेबुल पर इंडिया ने माँ का सामान सजा दिया। चैस्टरफ़ील्ड नर्सिंग होम ओसटिन एवन्यू शैफ़ील्ड रोड़ पर घर के पास ही था और प्रतिष्ठित भी था।
‘आने-जाने में आसानी रहेगी।’ इंडिया ने सोच समझ कर फ़ैसला किया था।
निस्तब्धता को तोड़ते हुए नर्सिंग होम की नर्स ने सामान की सूची देने के लिए कमरे में आते हुए पुकारा, “मिसेज़ डेज़ी इंद्रजीत सिंह……..।”
माँ ने जल्दी से मुड़कर लिस्ट नर्स के हाथ से लेकर इंडिया को देते हुए कहा, “इस सूची में लिखी सब चीज़ें कल घर से ज़रूर लेकर आना।”
नर्स की आवाज़ से माँ की प्रतिक्रिया को देखकर इंडिया चकित रह गयी। वरना बीमारी के कारण डेज़ी की अपनी अस्मिता विच्छिन्न हो चुकी थी। मानसिक बीमारी डिमेंशिया (मनोभ्रंश) की सूक्ष्मता उद्घाटित होने से पहले डेज़ी इतनी ही जल्दी अपने चारों तरफ़ के वातावरण पर स्वाभावतः तत्क्षण उत्तर दिया करती थीं।
इंडिया ने सामान की सूची संभालकर अपने हैंड बैग में रखी तथा जल्दी-जल्दी क़दमों से अपनी कार की ओर कार पार्क में बढ़ गयी। पीछे मुड़कर एक बार झरोखों से बस माँ को देखने की कोशिश की।
“रोमा, मैंने माँ से अच्छी तरह से गुडबाई भी नहीं की। क्या माँ को बुरा नहीं लगा होगा? …..वे दुःखी हो रही होंगी?.. घर को याद कर परेशान हो रही होंगी?.. मुझ से भी माँ अधिक प्रसन्न नहीं हैं?”…….
रोमा को रास्ते में उसके घर छोड़ते हुए माँ के नर्सिंग होम से आटोमैटिक कार चलाकर न जाने कब और कैसे इंडिया घर पहुँची?
घर में आते ही उसे अकेलापन सताने लगा। माँ के बिना घर काटने को दौड़ रहा था। घर पहुँचकर इंडिया ने चाय बनायी।
ट्रे में दो प्याले रखने के लिए हाथ बढ़ाया, फिर ठिठक गयी, ‘अरे यह क्या? माँ तो घर पर ही नहीं हैं। मैं भी पागल हूँ।’ ख़ुद ही उसे अपने ऊपर हँसी आ गयी।
‘माँ के बिना घर इतना सूना हो जायेगा? मेरी समझ में नहीं आता कि मैं अब किससे अपने मन की बातें कहूँ?… घर के सन्नाटे में एक-एक ईंट मेरी बातें सुन रही है। मैं परिश्रम से अपने जीवन की कठिनाइयों को स्वयं ही सहन करती रही हूँ। मुझे स्वीकार करना होगा कि मेरे साथ अब कोई नहीं है। घर की प्रत्येक ज़िम्मेदारियों को मुझे ही सोच समझकर स्वयं ही सँभालना होगा। मुझे बेटी होने के नाते अपने कर्तव्य का पालन करना होगा। मेरी भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं। माँ के भले में ही मेरी ख़ुशी है।’ इन सब बातों को विचार करते हुए थक कर न जाने कब उसे नींद आ गयी?
डेज़ी को अपना घर बहुत पसंद था। इंगलैंड के योर्कशायर कॉउंटी में सेल्बी गाँव की सेल्बी नहर के किनारे पर बना हुआ एक सजीव जीवंत सेमी-डिटैच्ड घर था। बग़ीचा छोटा होते हुए भी आकर्षक था। सदाबहार झाड़ियों के कारण हमेशा हरा-भरा रहता था। डेज़ी को घुड़सवारी का बहुत शौक़ था। अतः वह घुड़सवारी क्लब में निरंतर जाया करती थी। अगर घर के पीछे बग़ीचे में जगह होती तो वह घर पर ही एक ‘पोनी’ रख लेती। परन्तु उसके सेमी-डिटेच्ड घर में यह संभव नहीं था। इंडिया को भी वह कभी-कभी पोनी-राइड के लिए ले जाया करती थी।
गाँव के स्कूल में सब बच्चे कभी साइकिल और कभी पैदल चलकर पढ़ने जाया करते थे। चर्च स्ट्रीट के दूसरे किनारे लॉर्ड नेल्सन पब्लिक हाउस लीड्स रोड पर शाम को मिलने के लिए समीप सुगम्य था। वहाँ सब मोहल्ले के लोग पब में अक्सर शाम को मनोरंजन के लिए जाते थे। इतवार की सुबह डेनिसन रोड के पेरिश चर्च ऑफ ऑल सेंट्स में संडे सर्विस होती थी।
‘परन्तु न जाने पढ़ाई और नौकरी के चक्कर में हमारी आदतें कब बदल गयीं? माँ अकेले होते हुए भी सदैव चर्च जाया करती थीं। चर्च के भले पादरी के संपर्क में रह कर फूलों को सजाने से लेकर चैरिटी या धार्मिक काम के लिए माँ तत्पर रहती थीं।’ इंडिया ने एक गहरी साँस लेकर घर में माँ की कमी को महसूस किया।…..
साथ वाले घर में आंटी ग्रेस रहती थी। वह डेज़ी की पड़ौसन तथा सखी थी।
इंडिया ने ग्रेस को पिछले बग़ीचे की दीवार के ऊपर से आवाज़ दी। थोड़ी देर में ही दरवाज़े की घंटी बजी और घर में घुसते हुए ग्रेस ने कहा, “हैलो हाऊ आर यू माई डियर?.. डेज़ी की तबीयत व मनःस्थिति कैसी हैं?”
“आंटी ग्रेस मैं तो माँ को दिया गया वचन और दायित्व भी नहीं निभा सकी।”
“तुम ऐसा क्यों सोचती हो माई चाईल्ड़? …तुमने डेज़ी के हित के लिए ही उन्हें नर्सिंग होम में छोड़ा है।”
“यह बताओ मुझे कि नर्सिंग होम कैसा है?” आंटी ग्रेस ने पूछा
“चैस्टरफ़ील्ड नर्सिंग होम वैसे तो ठीक है, लेकिन जब मैंने वहाँ एक बुज़ुर्ग पुरुष को बग़ीचे में नंगा और उछलते हुए देखा तब मैं एक क्षण के लिए डर गयी थी” इंडिया ने एक साँस में बताया।
“अरे वह कैसे? ” ग्रेस की आँखें गोल-गोल घूमने लगीं।
“पहले आश्चर्य मुझे भी हुआ था। बाद में मालूम पड़ा कि वह आदमी किसी समय हाई कोर्ट में जज के पद पर काम किया करता था। अब उसे डिमेंशिया की बीमारी हो गयी है। वह कौन है?…. और कहाँ है?…. उसे कुछ याद नहीं है। अब उसे अपने कपड़ों की भी सुध-बुध नहीं है।”
“क्या वह मिक्सड नर्सिंग होम है?…क्या डेज़ी वहाँ ठीक रहेगी?”
“हां बिल्कुल, माँ जब घर पर होती थी तो मुझे उनकी चिंता प्रतिदिन बनी रहती थी कि कहीं उन्हें कुछ हो न जाये?”…..
“क्यों क्या हुआ? डेज़ी तो स्वस्थ दिखायी देती थी।”
“परन्तु देखो पिछले हफ़्ते ही की बात है कि माँ दो बजे रात को उठकर खाना बनाने लगीं। वे गोभी की सब्ज़ी काट चुकी थीं। आलू के चिप्स बनाने से पहले ही भाग्यवश मैं स्वयं उनके पास नींद से उठकर रसोई में पहुँच गयी। डर था कि कहीं माँ के कपड़ों में आग न लग जाये?……. गैस ऑन करते समय अगर इग्निशन काम न करता और माँ गैस को ग़लती से खुली हुई छोड़ देती तब क्या होता? मैं सोचकर ही काँप जाती हूँ।”
“अख़बारों में घर में आग लगने की ख़बरें प्रत्येक दिन पढ़ने को मिलती हैं।” ग्रेस ने अपनी चिंता व्यक्त की।
“काम से वापिस आकर दरवाज़े में चाबी लगाते ही डर लगता था कि माँ घर में ठीक हैं क्या? उनके हैंड बैग में हमेशा घर की चाबी का गुच्छा और घर का पता एवं टेलीफ़ोन नम्बर स्थानीय कोड के साथ लिखकर मैं रख देती थी। जिससे कि इमरजैंसी में माँ को कोई घर पहुँचा सके। एक मोबाइल फ़ोन भी उनके बैग में रखने की कोशिश की लेकिन वे घंटी सुनते ही उसे निकाल कर बाहर फेंक देती थी।”
“चलो तुम्हें अब चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। तुम ऐसे विचार मन से निकाल दो। अपनी माँ को नर्सिंग होम में छोड़कर तुमने अच्छा किया।” ग्रेस ने समझाया।
“माँ तो जाना भी नहीं चाहती थी लेकिन मैं अकेले कैसे देखभाल करती। रात को सोते हुए भी चिंता बनी रहती थी कि माँ घर का दरवाज़ा खोलकर कहीं बाहर न चली जाये? अतः घर की चाबी भी मैं छिपा देती थी। फिर डर लगता था कि कहीं घर में आग न लग जाये। फ़ायर एवं स्मोक अलार्म्स की बैटरी भी लगातार चैक करती रहती हूँ।”
ग्रेस ने इंडिया के कंधे पर हाथ रख कर धीरे से कहा, “क्या तुम्हें मालूम है कि जब तुम तीन दिनों के लिए लेक डिस्ट्रिक्ट घूमने के लिए गयी थी, मैं तुम्हारी माँ डेज़ी की देखभाल कर रही थी। उस समय डेज़ी ने मेरे सामने अपनी माँ के पुराने घर को देखने की इच्छा व्यक्त की थी। घर का विवरण देते हुए कह रही थी कि वहाँ पर एक छोटा बच्चा रहता है। मेरे समझाने के पश्चात भी उसने ज़िद नहीं छोड़ी। मैंने स्पष्ट मना कर दिया था कि वहाँ कोई नहीं रहता और शायद अब मकान भी गिर चुका है। लेकिन वह बार-बार मुझसे चलने का आग्रह करती रही।“
“आंटी ग्रेस फिर आपने क्या किया?”
“मैं बेमतलब ही बेकार की बातों में आ गयी और आख़िर में थककर उसी समय एक टैक्सी बुला ही ली। स्थिति की चुनौती और जटिल समस्या को समझकर मैं स्वयं घबरा गयी थी। अंतिम मिनट में मैंने डेज़ी को तुम्हारे बिना अकेले घर से बाहर ले जाना उचित नहीं समझा। वे निराश हो गयीं। ग़ुस्से में हतोत्साह होकर नाराज़ हुई फिर मुझसे कई दिन तक उसने बात नहीं की।”
“आंटी आपने समझदारी से काम लिया। आई एम वैरी प्राउड ऑफ़ यू।”……
“अच्छा बताओ इंडिया, क्या चैस्टरफ़ील्ड नर्सिंग होम बहुत मँहगा है? ”
“नर्सिंग होम का ख़र्च आजकल नई सरकार के नियमों के अनुसार बढ़ता ही जा रहा है।”
“क्या सोशल सर्विस तुम्हारी कुछ मदद करेगी?” ग्रेस ने अनुभव और संजीदगी दिखायी।”
“माँ ने यह एक बात अच्छी की आंटी कि उन्होंने कुछ साल पहले यह अपना घर मेरे नाम ट्रांसफ़र कर दिया था। अगर यह घर माँ के नाम होता, सोशल सर्विस हमारी कोई भी सहायता नहीं करती। नर्सिंग होम का मासिक व्यय हमें इस मकान को बेच कर देना पड़ता। सोशल सर्विस वाले अपने नियमों में बहुत ही सख़्त होते हैं। घर बिकवाकर वे उसी से नर्सिंग होम के ख़र्च का भुगतान करवाते हैं। वे कोई भी परवाह नहीं करते कि किस पर क्या बीत रही है? मरीज़ कैसे अपनी मानसिक क्षति को सँभाल रहे हैं? उन्हें बस अपने पैसों के भुगतान से मतलब।” ……..
अगले दिन माँ से मिलने नर्सिंग होम जाते समय रास्ते में इंडिया माँ के हेयर-ड्रैसर का रेगुलर अपॉइन्टमेंट कैंसिल करने के लिए दुकान पर रुकी। भले ही डेज़ी बाहर नहीं जाती थी परन्तु हमेशा अपने बालों का अपॉइन्टमेंट हर हफ़्ते शनिवार के दिन बना कर रखती थीं।…….
नर्सिंग होम में जाकर इंडिया ने देखा की माँ बहुत ख़ुश थी। चिड़चिड़ापन भी कम था। मौसम की बातें करते-करते उन्होंने उत्साह के साथ बेटी से पुरानी बातें करनी आरंभ कर दीं, “इंडिया तुम्हें याद है कि हम सेल्बी नहर में एक लम्बी एवं पतली नाव किराये पर लेकर गर्मियों में सैर करने अक्सर जाया करते थे?”
“हाँ माँ मुझे अच्छी तरह याद है। …यॉर्कशायर की मरिना पर मीलों दूर नैरो बोट पर घूमना कितना सुखद लगता था…………रास्ते में नाव को रोक कर नहर किनारे हम पिकनिक करते थे।………वहाँ पर खाने का टिफ़िन डिब्बा और बास्केट के साथ घास पर कम्बल बिछा लेते थे। कभी-कभी लंच खाने के लिए हम सब मैनर फ़ार्म के विशिंग वैल होटल पर भी रुक जाया करते थे।”
“धीरे-धीरे चलने वाली नैरो बोट हमें धरती की गति याद दिलाती थी जैसे मानो समय रूक जाता था। बादलों का एक ओर से दूसरी और तैरना तथा पानी में उनकी तैरती धुँधली छवि मन को लुभाती थी।” माँ डेज़ी के चेहरे पर पुरानी यादों की ख़ुशी की चमक थी।
“वहां की ताज़ा हवा, तरह-तरह के पंछी, छोटे जानवर और मछलियाँ देखकर हम सब बहुत ख़ुश होते थे। धूप, ठंडी हवा, कभी गर्मी और कभी वर्षा हो जाती थी। जब नहर का पानी एक हिस्से में ऊपर और दूसरे में नीचे होता था, हम सब मिलकर ‘लॉक’ (जलबंधक द्वार) को एक तरफ़ से खोलते और दूसरी तरफ़ बंद करते थे। उससे नहर के पानी में नैरो बोट के लिए रास्ता बन जाता था।” इंडिया ने बचपन की बातों का वर्णन किया।
“नहर के किनारे मख़मली हरी घास के खेत, पौधे और रंग बिरंगे फूल वातावरण को सुहाना बनाते थे। खेतों में चरती हुई भेड़ें, गायें एवं घोड़े दूर से दिखायी देते थे। भेड़ों का झुण्ड दूर से कभी-कभी बिछे हुए पत्थरों जैसा दिखायी पड़ता था। खेतों में हिनहिनाते घोड़े किनारे पर आकर पर्यटकों के हाथों से ब्रेड खा जाते थे। यॉर्कशायर का मनोहर प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था।” माँ डेज़ी का उल्लास बच्चों जैसा था।
इंडिया ने माँ से कहा, “अगली बार जब मिलने आऊँगी, मैं अपने साथ नैरो बोट के मनमोहक दृश्य के फ़ोटोग्राफ़्स अवश्य लाऊँगी।”….
अचानक माँ के चेहरे के भाव बदल गये और गंभीर होकर विलाप करने लगीं, “मैंने ऐसी संतान को जन्म दिया। ऐसी नीच संतान को तो पैदा होते ही……। मैं यहाँ अकेली नर्सिंग होम में।”…………
तभी नर्स ने आकर इंडिया को विनम्रता से कहा, “बहुत समय हो गया है अब इन्हें आराम की आवश्यकता है। तुम अब घर जाओ।”….
रास्ते भर इंडिया विचलित और भयभीत थी। विचारों मैं खोई हुई न जाने क्या-क्या सोचती रही। चर्च के पादरी की कही हुई बातें ध्यान आने लगी कि शरीर नाशवान होता है।
‘परन्तु मैं नादान, अपने जीवन को अकेले कैसे सँभालूँ? माया, मोह और मोक्ष को मैं नहीं जानती कि क्या सही है और क्या ग़लत है? पूरब और पश्चिम के संस्कार भी यही सिखाते हैं कि भविष्य की चिंता किये बग़ैर वर्तमान में जीना सीखो।’
आँखों से आँसू पोंछते हुए इंडिया अपने आपसे स्वयं बातें कर रही थी, ‘मुझे माँ को नर्सिंग होम में भर्ती करने का मुश्किल फ़ैसला सोच समझकर करना ही पड़ा। डाक्टर की सलाह से मेरे मन को स्थिर होने में सहायता मिली।’
अपने को धीरज देते हुए इंडिया बुदबुदाई, ‘अकेले में मुझे स्वयं विवेक और बुद्धि से काम लेना होगा। दूसरों की निंदा की मुझे परवाह नहीं। इस कठिन समय में मैं अपनी माँ को ख़ुश देखना चाहती हूँ। माँ के लिए जो इस वक़्त उत्तम है वही काम मैंने किया।’
सवेरा होने पर कमरे के पर्दे हटाते हुए इंडिया ने देखा कि सात बजे भी सूर्य नहीं निकला था। थोड़ी देर बाद लालिमा फैलने लगी। दिन के उजाले में सब संशय दूर होने लगे।।
पोस्टमैन की आवाज़ सुनकर वह नीचे उतरी। पोस्ट खोलते समय देखा कि डाक में आयी चिट्ठियाँ अधिकतर जंक मेल थीं। ‘माँ की पोस्ट बग़ैर खोले ही मैं उनके पास नर्सिंग होम ले जाऊँगी।…… लेकिन इस हालत में क्या माँ इस ज़िम्मेदारी का बोझ उठा सकेंगी? माँ की चिट्ठियाँ झिझकते हुए इंडिया ने खोली। एक लिफ़ाफ़ा खोलकर आश्चर्य हुआ कि माँ ने इस सप्ताह में सौ पाऊंड का एक प्रिमियम बॉन्ड जीता है।’
‘जब कल माँ से मिलने जाऊंगी अपने साथ जीता हुआ प्रिमियम बॉंन्ड लेकर जाऊँगी। माँ बहुत प्रसन्न होंगी।’
इंडिया को प्रिमियम बॉंन्ड के लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी। पोस्ट ऑफ़िस के जीते हुए पाऊंड्स माँ के निर्देश से आटोमैटिक इनवैस्टमैंट फ़न्ड में स्वयं जमा हो जाते थे। प्रिमियम बॉंन्ड लैटर को माँ के बक्से में न रख कर उसने माँ को दिखाने के लिए अपने हैंड बैग में रख लिया।……
इंडिया ने नर्सिंग होम पहुँचकर उत्साह के साथ कहा, “माँ आपको जान कर ख़ुशी होगी कि आपने सौ पाऊँड का प्रिमियम बॉंन्ड जीता है।” ……
माँ के हाव-भाव में कोई बदलाव नहीं हुआ। बिना कुछ कहे वे पथराई आँखों से बेटी को देखती रही।
इंडिया थोड़ी देर के बाद फिर बोली, “आंटी ग्रेस ने आपके लिए ढेर सारा प्यार एवं शुभकामनाएँ भेजी हैं। मौसम अच्छा होने पर मैं आपकी सहेली आंटी ग्रेस को मिलवाने के लिए अपने साथ लेकर आऊँगी।”
माँ ने पूछा, “हाथ पकड़े हुए छोटे बच्चे की फ़ोटो कहाँ है? उसको अपने साथ क्यों नहीं लेकर आयी ? ” इंडिया ने फूलों को गुलदस्ते में लगाते हुए कहा, “माँ कौन सा छोटा बच्चा? किस फ़ोटो की बात कर रही हैं आप? ”
“माँ आपको अपना गिफ़्ट कैसा लगा?”… कहकर वह माँ के उत्तर का इंतज़ार करने लगी । परन्तु माँ ने कोई प्रतिक्रिया या रुचि नहीं दिखायी। उदासीन निगाहों से एक टक छत की ओर देखती रही। माँ ने जवाब दिये बग़ैर करवट बदलकर दूसरी तरफ़ अपना मुँह फेर लिया।
डेज़ी ने इंडिया की सब बातें सुनी या नहीं सुनी?…… वे अपने ही ख़यालों की दुनिया में पहुँच गयीं थीं? …
इंडिया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। रास्ते भर वह असमंजस में रही। उसके हाथों की मुट्ठियां कसकर भिंची हुई थीं।
‘डैडी इंद्रजीत सिंह ने केवल अपने देश की याद में मेरा नाम इंडिया रखा होगा। मैं भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानती। उन्होंने मुझे संबंधियों एवं रिश्तेदारों के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। मैं किससे बात करूँ? अपने बचपन के किसी साथी से भी मेरा सम्पर्क नहीं है। बहन सिमरन भी किसी बात में रुचि नहीं दिखा रही है। भाई जॉर्ज को मैं कहाँ ढूँढ़ूँ? उसका कोई अता-पता नहीं है।’
इंडिया का मन बहुत बेचैन था। उसने घर आकर घर की खिड़कियाँ खोलीं। विश्राम करने के बाद सुप्त चेतना में स्टडी में रखे सेफ़ बॉक्स को टकटकी निगाहों से देखने लगी। माँ की संदूकची उसने कभी भी खोलकर नहीं देखी थी।
एक सुंदर जड़ी डिबिया संदूकची के पास कमरे में पड़ी देखकर वह सोचने लगी, ‘इसमें क्या है?…. संदूकची को खोलकर व्यवस्थित कर देती हूँ और डिबिया को अंदर रख दूँगी। माँ को अवश्य अच्छा लगेगा।’… संदूकची को खोलने की ओर हाथ बढ़ाया लेकिन ठिठक कर रह गयी।
अपना हाथ पीछे खींच लिया, ‘माँ की व्यक्तिगत सम्पति की छान-बीन करना उचित न होगा।’
‘नहीं….नहीं यह तो माँ का निजी सामान है। इजाज़त के बिना एकांत में उनकी धरोहर को खोजने या ढूँढ़ने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।’
स्वयं को सांत्वना देकर उसने झिझकते हुए संदूकची को खोल लिया, ‘मुझे नहीं मालूम क्या सही है और क्या ग़लत? .. नये अधिकारों के सदुपयोग एवं दुरुपयोग की सीमा मुझे कौन बतायेगा? मेरा प्रयोजन माँ के हित में ही है।’
संदूकची के अंदर पेपर फ़ाइल में वकील का लिखा वसीयतनामा देखकर इंडिया चाहकर भी पढ़ने की लालसा को न रोक सकी। वह पढ़कर चकित हो गयी कि माँ डेज़ी ने अपना सब कुछ उसके नाम ही लिख दिया था। मकान तो माँ पहले ही इंडिया के नाम ट्रांसफ़र कर चुकी थी। बैंक अकाउंट्स, ज़ेवर तथा अन्य प्रोपर्टी भी इंडिया के नाम लिख दिये थे। बड़ी बेटी सिमरन को ‘विल’ में कुछ भी नहीं दिया था। बेटा जॉर्ज अपनी माँ डेज़ी की इच्छा के बिना फ़ौज में भर्ती हो गया था। कभी वापिस नहीं आया और न ही कोई ख़बर भेजी। वह इस बात से बहुत ही दुःखी हुई थी, उसने भी बेटे से कोई सम्बंध नहीं रखा था। अतः ‘विल’ में भी उसको कुछ नहीं दिया। बहन सिमरन तथा भाई जॉर्ज का नाम विल में न देखकर इंडिया को आश्चर्य एवं दुख हुआ।..
‘क्या माँ की ‘विल’ के बारे में बहन को पहले से ही पता था?… जब मैंने बहन से सलाह माँगी थी कि माँ को नर्सिंग होम में भेजूँ या घर पर रखूँ?.. तब भी बहन सिमरन ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी थी। उन्होंने मेरी कोई सहायता भी नहीं की थी।’
‘…बक्से में माँ का हाथ पकड़े हुए भाई की बचपन की फ़ोटो को देखकर मैं अचम्भित हूँ। कमाल की बात है कि कैसे माँ ने भाई की फ़ोटो को सँभालकर रखा था?…. माँ मुझसे पिछले कुछ महीनों से पूछती आ रही थी कि वह छोटा बच्चा कहाँ गया?… मैं माँ से पूछती रहती थी कि माँ कौन सा बच्चा? अब समझ में आया कि माँ नर्सिंग होम में किस छोटे बच्चे के बारे में मुझसे पूछ रहीं थीं।’….
‘डैडी को बचपन में ही खो दिया था। केवल माँ का प्यार मुझे मिला है।’ इंडिया ने कंधे झटकते हुए गहरी साँस ली।
उसी संदूकची में एक लिफ़ाफ़े के अंदर ताज महल के सामने बैंच पर बैठे हुए माँ और डैडी की फ़ोटो थी। हाथ में माँ ने हीरे का इंडियन कंगन पहना हुआ था। दूसरी ब्लैक एंड व्हाईट फ़ोटो में भारत के एक पुराने घर के सामने कुछ लोग खड़े थे। इंडिया उन्हें नहीं जानती थी, मगर सब लोग जाने पहचाने से लग रहे थे। मकान का नाम तख़्ती पर हिंदी, पंजाबी या किसी भारतीय भाषा में लिखा हुआ था। इंडिया सोच में पड़ गयी, ‘काश! मैं हिंदी पढ सकती। मैं विश्व की पुरातन भारतीय सभ्यता के बारे में और भी जानना चाहती हूँ। माँ का स्वास्थ्य ठीक हो जाने पर मैं माँ को अपने साथ भारत ले जाऊँगी। लेकिन मैं अपने घर का पता भारत में कैसे ढूँढ़ूँगी…? क्या मालूम माँ को तो शहर का नाम भी याद है या नहीं?….
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