सुना था कि हवाएँ मौसम का रुख़ बदलती हैं, हमारी सोच के मौसम का भी, समाज के मौसम का भी।
आजकल सुबह होते ही फ़ोन पर दिन का मौसम देखने की आदत सभी को हो गयी है। फ़ोन के ऐप्प तापमान, वायुमंडलीय दाब, हवा की गति वग़ैरह के साथ अब एक और पैरामीटर दिखाते हैं – जो बताता है कि तापमान कितना महसूस हो रहा है। ज़ाहिर सी बात है कि सर्दियों के दिनों में महसूस होने वाला तापमान अनुमानित से कम और झुलसती गर्मियों में अनुमानित से अधिक होता है। इस साज़िश में किसका हाथ होता है, यह तो आप समझ ही गए होंगे, बेचारी हवा का। वह न बहे तो दुश्वारी, सब कहेंगे पत्ता तक नहीं हिल रहा सब कुछ ठहरा हुआ सा है, साँस लेना दूभर है। बहे तो कहेंगे कि देखो तूफ़ान बरपा कर रखा है। जो मौसम ठहरा-सा कहलाता है वह भारत के मैदानी इलाक़ों में आमतौर पर अप्रैल के आख़िर और मई में होता है।
इस मौसम में हम दिन भर घरों में बंद रहा करते थे और शतरंज, ताश, लूडो जैसे खेलों में अपने हाथ साफ़ किया करते थे। ठंडई, बेल और ख़स के शरबत से दोपहरियों को रंग और स्वाद से भरा करते थे। किताबें भी इन्हीं दिनों सबसे ज़्यादा पढ़ी जाती थीं। खिड़कियों के शीशे गाढ़े रंगों में रंग कर, बरामदों में ख़स की टट्टियों को ख़ूब नहलाकर धूप के हमले को थोड़ा कम किया जाता था। फ़र्श को ठन्डे पानी से धोकर चटाइयाँ बिछाई जाती थीं, किसी ए०सी० या कूलर की ज़रूरत महसूस ही न होती थी। पंखे महाराज की कृपा-दृष्टि पर्याप्त होती थी। अगर आँधी-अंधड़ आ जाता, तो बिजली चली जाती थी, उसमें भी आनंद तलाश लेने का हुनर न जाने तब सबको कैसे आता था। आँधी का आना भी हवा का क़हर होता था। बहरहाल सबको इन दिनों इंतज़ार रहता था पुरवाई का, उसके बहते ही मन के साथ घर-आँगन भी महक-चहक जाते थे।
अब तो बरसों से गर्मी के मौसम में घर जाना नहीं हुआ। लेकिन घर बात करने पर यह तो समझ में आता है कि गर्मियाँ अब तब जैसी नहीं रहीं। उनसे जूझने के नुस्ख़े वो नहीं रहे और न ही उन्हें बिताने के तरीक़े अब हमारे वाले हैं। हमारी वे आदतें प्रकृति को ज़्यादा भाती थीं। अब हर तरफ़ ए०सी० का बोलबाला है। भारी परदे खिड़की-दरवाजों को ओढ़ाए जाते हैं और वातानुकूलित हवा में गर्मी के दिन भी बाक़ी दिनों की तरह ही बिताए जाते हैं। न रात में छत पर लगने वाले बिस्तर रहे और न ही हाथ से बुनी चटाइयाँ; इन दोनों का होना भी पर्यावरण के लिए कितना बड़ा वरदान था, यह अब समझ में आता है। सुबह चिड़ियों के साथ जागना और दिन का समापन विविध-भारती की रात्रि-सभा के साथ ही होना – ये जो गरमी के दिनों की नेमतें थीं इनके बारे में आज के बच्चों को विश्वास दिलाना शायद टेढ़ी खीर हो जाए। हर मौसम से जुड़ीं यादें तो हैं पर बातें नहीं रहीं। सिर्फ़ एक बात जो अब भी रही है वह यह कि लू अब भी चलती है, आँधियाँ भी आती हैं और आकर मौसम बदल जाती हैं। इन हवाओं का मिज़ाज भी हमारी बदलती आदतों के चलते बिगड़ता जा रहा है।
…. आइये अब भीषण गर्मी से कड़ाके की सर्दी की ओर रुख़ करते हैं, और पहुँचते हैं रूस।
मॉस्को में इस साल सर्दियाँ अच्छी रहीं। इसका मतलब यह है कि एक बार बर्फ़ जो गिरी वह फ़रवरी के आख़िर और मार्च की शुरुआत तक बिछी ही रही, यानी तीन-चार महीने तापमान सेल्सियस में शून्य से 5-6 डिग्री कम ही रहा। सर्दियों के दिनों में कई बार उत्तर-पश्चिम से हवाएँ आती रहीं और तापमान जो सामान्य से पहले ही कम होता था, उसे अपनी आमद से घटाती रहीं। यों नवम्बर से मार्च तक ख़ूब बर्फ़ गिरी, इतनी कि लगता था सूरज के गरमाते ही शहर नदी बन जाएगा, बाढ़ आ जाएगी। मॉस्को तो इस बाढ़ से बच गया लेकिन रूस के कई इलाक़ों को बर्फ़ का प्लावन झेलना पड़ा। बड़ी इमारतों की एक मंज़िल तो पानी में डूब ही गई थी, एक या दो मंज़िला मकानों का तो और बुरा हश्र हुआ, घर का सारा सामान तो बर्बाद हुआ ही, दीवारों से पपड़ी झड़ने लगी, लकड़ी के दरवाज़े वग़ैरह ऐंठ गए। आपातस्थिति मंत्रालय के कर्मियों के साथ नागरिकों ने कंधे मिलाए और काफ़ी मशक़्क़त के बाद कुछ जगहों पर जीवन सामान्य की ओर लौटने लगा है, कई इलाक़े अभी भी पानी के प्रकोप से त्रस्त हैं। इन बाढ़ों का आना क्या रोका जा सकता है? पता नहीं, कुछ का मानना है कि बर्फ़ की तादाद को देखते हुए अगर प्रकृति के तेवर बदलने के पहले ही उसको हटाने और पिघलाने के काम में तेज़ी लाई गई होती (यहाँ पर रिहायशी जगहों से बर्फ़ उठाकर ऐसी जगहों पर ले जाकर पिघलाई जाती है जहाँ पर पानी की निकासी की व्यवस्था होती है) तो शायद बाढ़ का इतना उग्र रूप न देखना पड़ता। दूसरा कारण निश्चित रूप से पर्यावरण पर हमारी करतूतों का पड़ता दुष्परिणाम है।
मौसम तो आते ही जाने के लिए ही हैं। बहरहाल हमारे शहर में मार्च में हवाएँ फिर मचलीं, मौसम को अंगड़ाई लेनी पड़ी। बादल छटे, सूरज गरमाया, बर्फ़ ने हथियार डाले और सफ़ेदी का साम्राज्य दिन-प्रतिदिन सिमटता गया। मॉस्को में या तो इंतज़ामात बेहतर थे या फिर इस शहर में गाड़ियों और लोगों की चहलपहल दूसरे शहरों की तुलना में कई गुना ज़्यादा होती है और इस चहलक़दमी के चलते बर्फ़ धीरे-धीरे पिघलती रही होगी, या फिर उसकी मात्रा इतनी विषम न रही होगी जितनी बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में थी।
दिन की मियाद का बढ़ना और बर्फ़ की ऊँचाई का घटना— ये दोनों ही प्रक्रियाएँ अदृश्य तरीक़े से होती हैं, और दोनों ही सबको अपने जादू में ले लेती हैं। कई बार सोचती हूँ कि दूर देश गए पंछियों को यह पाती कौन भेजता होगा कि लौट आओ अपने देस, यहाँ सब कुछ तुम्हारी पसंद का होने को है। तभी तो प्रवास को गए पंछी ताल-तलैयों पर रह गई बर्फ़ की झीनी चादर पर बैठ धूप में संगत लगाने समय पर आ ही जाते हैं, अपनी भी दास्ताँ सुनाते हैं, ठन्डे मौसम में भी देस में रह गए अपने सूरमा-साथियों से सर्दियाँ गुज़ारने के उनके क़िस्से भी सुनते हैं। उनकी बैठकों के गीत ज़माना सुनता है।
यहाँ के प्रवासी पंछी तो भारत तक भी पहुँचते हैं और लगभग तीन महीने अपनी चहक से हमारे वन-उपवन चहकाए रखते हैं। सर्दियों में यहाँ नज़र आने वाले पक्षियों में मुख्यतः कबूतर, कौवे, बत्तखें, श्वेत काक (Sea Gull) आदि होते हैं। कुछ छोटे पंछी जो किन्हीं कारणों से उड़ के जा न पाए होते हैं, वे यदाकदा सर्दियों में दिख तो जाते हैं पर वसंत तक वे जीवित रह पाते हैं कि नहीं, यह सवाल चिंतित करता है। वसंत के आते ही हर दिन कुछ नए परिंदे बसेरा बनाने के लिए तिनके और अपनी चहक को दूसरों की तानों से जोड़ते दिख जाते हैं, पक्षी जैसे किसी सम्मोहन से अपने देस खिंचे चले आते हैं और वातावरण अधिकाधिक संगीतमय होता जाता है। पक्षियों के घरौंदे अधिक आरामदेह बनें इसलिए दरख़्त भी मानो काम में जुट जाते हैं।
पेड़ भी यहाँ दो प्रकार के हैं: सदाबहार पेड़ और पतझड़ में सब तज देने वाले पेड़। मॉस्को के वनों, उद्यानों, पार्कों में सर्दियों में आमतौर पर सब तरफ़ भूरी-स्लेटी तनों, शाखाओं, टहनियों का एक बीहड़ होता है और हमेशा सम भाव से खड़े रहने वाले चीड़, देवदार जैसे पेड़ों के झुंड उस वीरानी के बीच यदाकदा वायु शुद्धीकरण का अपना फ़र्ज़ निभाते दिख जाते हैं। सदा हरे रहने वाले पेड़ों की हरियाली में भी वसंत में एक नई चमक होती है, वे भी अपने साथी-वृक्षों के जश्न में मुस्कुराते से लगते हैं। ठूठ से दिखने वाले पेड़ वासंती धूप से मिलन को रोज़ अपने परिधान की छटा बदलने लगते हैं। बहुत मासूम होते हैं ये पेड़, सोचते हैं उनका प्रेम और अठखेलियाँ सिर्फ़ धूप के लिए हैं। धूप से मिलकर पेड़ों में आता निखार सभी को हर्षित और उत्साहित करता है। कितना उदार है उनका प्रेम!
यहाँ बसंत धीमी चाल आता है और वनों, उद्यानों में खड़े शाहबलूत के सौ-सौ साल पुराने पेड़ अभी कुछ साल पहले वजूद में आए अपने हमसायों को अपनी छाँह में रखते हैं, पालते-पोसते हैं, मज़बूत होने का हुनर सिखाते हैं। साथ में ही खड़े रहते हैं नीबू जाति के पेड़, मेपल अपनी बेशुमार प्रजातियों के साथ, तो कहीं सेब, नाशपाती और चेरी के बाग़, तो चिनार, सनोबर, देवदार, फ़र आदि के झुरमुट, व पोपलर के ऊँचे वृक्ष निगेहबानी करते हुए। कुछ वृक्षों में कोंपलें पहले आती हैं तो कुछ में कलियाँ और फूल।
पिछले रविवार मसक्वा नदी के तट पर दौड़ते हुए, जो शहर के एक सबसे पुराने उद्यानों ‘नेसकुचनी साद (जीवंत उद्यान) के बग़ल से गुज़रता है, मैंने अगल-बग़ल खड़े मेपल के दो अलग जातियों के पेड़ों को देखा— एक था नॉर्वे मेपल और दूसरा ऐश-लीव्ड मेपल। कहने को तो एक ही नाम के पेड़, परन्तु दोनों पर आए फूल बिलकुल अलग थे। एक पर धानी झालर वाले नाज़ुक से फ़ानूस लटक रहे थे और दूसरे की टहनियों पर गुच्छेदार बटन-इयररिंग्स टके हुए थे। मेपल के कुछ वृक्षों पर हलके गुलाबी झालर-नुमा फूल भी झूलते रहते हैं। इन विशालकाय वृक्षों के फलों का उपयोग अपनी प्रजाति बढ़ाना ही होता है और वे कई-कई सालों तक पेड़ पर लटकते रहते हैं, सर्दी के मौसम में भी परागकण बिखेरते रहते हैं, जिनमें से कुछ बर्फ़ की तमाम तहों को चीरते हुए मिटटी के आग़ोश में पहुँच ही जाते हैं। बड़े पेड़ों के बिलकुल विपरीत होते हैं सेब, नाशपाती, चेरी वग़ैरह के पेड़। इनकी ऊँचाई बहुत अधिक नहीं होती और इन पर फूल हमारी समझ वाले फूलों के समान ही आते हैं। यानी कोमल पंखुड़ियों वाले सफ़ेद, हल्के गुलाबी, गुलाबी रंगों वाले। ये पेड़ आमतौर पर पहले फूलों से लदते हैं, अपनी ख़ुशबू और सौंदर्य से सबको मोहते हैं और फिर जैसे जैसे पंखुड़ियां झरती जाती हैं, हरी कोपलें खिलती जाती हैं। नीबू जाति के पेड़ों में फूल मई के आख़िर या जून की शुरुआत में आते हैं, और अपनी मीठी सुगंध से तमाम मधुमक्खियों को आकर्षित करते हैं और शुरू हो जाता है ‘लीपअवी शहद’ बनने का कारोबार। एक बात और जो मुझे हर साल अचंभित करती है। पेड़ों की नंगी टहनियों पर कली नुमा कुछ दिखना शुरू होता है और अपने देश की तरह लगता है कि अब चटख रंग के पलास या मंगोलिया के फूल आएँगे, लेकिन इन कलियों में बंद होती हैं पत्तियों की कोंपलें और हरे रंग की अंगड़ाई लेती हैं। वैसे यहाँ पेड़ों पर लगने वाले फूल कभी भी भारत की तरह चटकीले लाल, पीले, नारंगी, बैंजनी नहीं होते, धूप यहाँ कभी वहाँ जैसी गरमा जो नहीं पाती है। पेड़ों के साथ-साथ झाड़ियाँ और अलग-अलग तरीक़े की घास भी यत्र-तत्र-सर्वत्र हरियाली और फूलों का साम्राज्य फैलाती रहती हैं। मैदानी फूलों से रस चुराकर भी मधुमक्खियाँ बहुत अच्छा शहद बनाती हैं।शहद का व्यवसाय यहाँ बड़े पैमाने पर होता है और सितम्बर-अक्टूबर के महीनों में अनेक क़िस्म का शहद बाज़ारों में आ जाता है। ख़ैर शहद के बारे में कभी और।
ठूठ से खड़े पेड़ों पर नर्म धानी रंग में जीवन का पनपना एक ऐसी प्रक्रिया होती है कि कोई भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता, इसके लिए प्रकृति प्रेमी होना ज़रूरी नहीं। ये ऐसे दिन होते हैं जब माँ प्रकृति के हाथों में कूची होती है और वह अपनी बनाई पेंटिंग में रोज़ नए ढंग से नए रंग भरती रहती है। इस मौसम में तेज़ हवाओं वाले कुछ दिन ज़रूर होते हैं, वे नई, टहनियों, कोंपलों पर गाज गिराते हैं, मानो कह रहे हों कि वक़्त से पहले खिलने की क्या ज़रूरत थी। तूफ़ान बरपा करने वाले यह भूल जाते हैं कि मौसम को बदलने का जूनून रखने वाले अपने वुजूद को ज़्यादा तवज्जो नहीं देते, उन्हें डर छू कर भी नहीं गुज़रता। नाज़ुक टहनियाँ अब मज़बूती पकड़ रही हैं, उनसे भी नई शाखाऍं निकल रही हैं। छितरा-बितरा और सहमा सा हरा रंग अब आत्मविश्वास से भरता जा रहा है और ख़ुद को नित गाढ़ा करता जा रहा है। उसकी यह प्रक्रिया तब तक चलेगी जब तक आसमान और धरती के बीच वह एक अभेद्य हरा वितान न बिछा देगा। हरा रंग बख़ूबी जनता है कि उसकी सल्तनत कुछ समय की है, उस वक़्त को वह भरपूर जीता है और ज़िन्दगी जीने के अपने शऊर दूसरों में भी ख़ूब बाँटता है। प्रकृति धरती के मंच पर मौसम का एक परदा गिराने और दूसरे को उठाने का क्रम जारी रखती है, उसके इस खेल में रंग और जीवन के ढंग बदलते रहते हैं।
मनुष्य यों तो धरती का सबसे विकसित जीव है, उसकी बुद्धि और समझ का कोई सानी नहीं है। मौसम के चक्र को, धरती की क्रिया और कर्म को, तारों, नक्षत्रों के होने व बनने-टूटने को उससे बेहतर कोई नहीं जानता। क्या समझ और अनुभूति विपरीत क्रम में चलती हैं, एक बढ़ती है तो क्या दूसरी घटती जाती है? हमारी समझ और ज्ञान के दायरे जितने बढ़ते जा रहे हैं, हमारी संवेदनशीलता घटती जा रही है! प्रकृति के ख़ूबसूरत मंचन में जितनी भी विद्रूपताएँ दिखती हैं उनका किरदार मनुष्यजाति ही निभा रही होती है। वसंत को अंगड़ाई लेता देखकर प्रसन्नता के साथ-साथ एक भय की सी भी अनुभूति साथ रहती है कि क्या क़ुदरत के अद्भुत कारनामे भी कल के बच्चों के लिए ठीक वैसे की क़िस्से-कहानियों की बातें हो जाएँगे, जैसे भारत के मैदानी इलाक़ों के शहरों में गरमी की रातों में छतों पर सोने और ख़स की टट्टी को पानी से तर करके घर ठंडा करने की बातें? अभी तक इस बात का फ़ैसला हमारे हाथों में है पर आख़िर कब तक यह स्थिति यों बनी रहेगी? हमारे जीवन में वह हवा कब उठेगी और तेज़ होगी जो हम में पर्यावरण संरक्षण के रंग भर देगी?
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-प्रगति टिपणीस