कहां कहां से लौटेंगे हम…..!

सूर्यबाला

मेधा, बेटू और साशा, ढाई हफ्तों की बोरियत भरी थकान के बाद अपनी-अपनी सीटों पर लुढ़क लिए हैं।

बच रहा मैं, अपनी मनमानी आवाजाहियों के साथ… हमेशा एक कदम आगे, तो दो कदम पीछे… उन्हीं बीते तीन हफ्तों में बार-बार लौटकर आता जाता, चहलकदमियां करता, मनचाहे पलों में बंधता, बिंधता और मोहाविष्ट होता हुआ।

फोन… पापा… घर… लोग… अपने घर में अजनबी मेहमानों सा रहता मैं, मेधा, बच्चे… और वह शाम…

सब कुछ कितना अप्रत्याशित! एक अविश्वसनीय, अविस्मरणीय नाटक की तरह। सुहास के साथ मैं ‘उस नये घर‘ में घुस रहा हूं।… यानी ‘वसु के घर‘ में। विशाखा दीदी और वृंदा के बाद अब वसु का भी घर! अनमना और उद्विग्न… शायद वसु के इस ‘घर’ को मान्यता नहीं दे पाया है, मेरा मन।…

सुहास, ‘बेल’ नहीं बजाते। जेब में रखी चाबी से दरवाजा खोलते हैं और मेरे साथ अंदर दाखिल होते हैं- वसुधाऽऽ! प्रियाऽ! देखो कौन आया है- तत्क्षण एक कदम और आगे बढाते हैं, मुझे साथ लिए-लिए।

अब सामने किचन के दरवाजे पर वसु है, गैस पर रखे तवे पर पराठा डालती और बगल में छोटी-सी कुर्सी मेज पर पराठे वाली प्लेट के साथ प्रिया…

अचानक मुड़ी, हाथों में कलछी थामे हकबकी खड़ी वसु, मुझे विस्फरित आंखों से देखे जा रही है।… देखे जा रही है। अपलक। एकटक। उसके बाल पीछे एक चोटी में बंधे हैं और भौहों के बीच छोटी सी बिंदी हैं। वह पूरी की पूरी बीसों साल पहले की मां सरीखी दिख रही है।

– दाऽऽदाऽऽ! अचानक पूरे घर में एक बदहवास चीख गूंजती है और वसु कलछी फेंक, दौड़ती आकर मुझे अपनी दुबली बाहों में जकड़ लेती है।… तेज और खूब तेज रोती हूई… तब तक नहीं छोड़ती जब तक सुहास आकर जबरन मुझे मुक्त नहीं करते। अपने को मुक्त करवाने की कोई इच्छा मुझमें भी कहां है! क्योंकि वसु की रूलाई एक महानद है जिसमें उसके सारे रोष, आक्रोश, विक्षोभ और धिक्कार हिमखंडों की तरह बहते चले जा रहे हैं…।

शायद उसे पता है, इस समय भगीरथ हुआ मैं, सारे आवेगों को रोपने, शिरोधार्य करने के लिए प्रस्तुत हूं। कहीं कुछ गलत नहीं। ये बहुत जरूरी उपालंभ थे जो मेरे और वसु के बीच जैसे बहुत सारे जलजलों और प्रलय के बाद वे एक मजबूत खंभों वाला पुल बना रहे थे। उसके अंतहीन आरोप जितनी अनकहे थे, मेरा मौन स्वीकार, उतना ही निःशब्द। मेरे रोयें-रोयें से निकल रहा था- तू जीत गई वसु…। और तेरी इस जीत से, तुझ से ज्यादा मैं खुश हुआ। (मेधा भी तो… होगी ही)… (तेरी बिना दहेज शादी जो हो गई)

मां की बात याद आई- ‘वसु के तरीके हमेशा से आग-पानी वाले ही रहे, लेकिन उसके उद्देश्य की निर्मलता में मुझे कभी संशय नहीं रहा’…। वसु अब भी मुझसे हिलकी खड़ी सुहास की तरफ (शायद) गुमान से देख रही थी, विजय दर्प से भी… कि तभी किचेन से तेज जलने की गंध आई। तवे पर पड़ा दूसरा पराठा पूरी तरह जल गया था – प्रिया, प्लेट पर चम्मच मारती हंसती हुई चीख रही थी ‘वसु आंटी! ’पलाता’ जल गया न!‘… और इसके पहले कि वसु उसे डपट कर चपतियाती, वह बेतहाशा खीं-खीं-खीं हंसती जा रही थी – वेणु मामा! वसु आंटी का पलाता जल गया। ही-ही-ही-ही……

और मैं सोच रहा था ’वसु आंटी…’ यानी वसु ‘मम्मी’ या ‘मां’ नहीं कहलाती प्रिया से… और वेणु मामा! इसका मतलब, वसु ने खूब सारी बातें बताई हैं, इसे मेरे बारे में। वसु के पास हमेशा से जीने के अपने तरीके अपनी शर्तें रही हैं। और यह ‘सुहास जोशी‘!… कैसे उस दिन, अकेले घर आकर मेरा पैर छूने के साथ ही ‘सुहास’ बन गया था। कितना अंतर था, उस सुने हुए सुहास जोशी और सामने खड़े पारदर्शी आंखों वाले सुहास में –

– आप बिलकुल वैसे ही हैं जैसा वसु बताती थी।‘ – कहा था सुहास ने।

तुम एक दिन लंबी चोटी बनाना मेधा!

कलछी लिए पराठे उतारती वसु मुझे वापस मां जैसी लगने लगी थी। ऐसे ही मां हम तीनों को बिठा कर हमारी छोटी तश्तरियों में पराठे डाला करती थी। खाकर अपनी, अपनी तश्तरियां उठाई या नहीं, मुंह ठीक से साफ किया या नहीं। अगर हम चुगली खा रहे हैं, एक दूसरे को चिढ़ा रहे हैं तो हमारे चिढ़ाने का स्तर क्या है। हम पढ़ रहे हैं तो, झूठ-झूठ का रट्टा मार रहे हैं, या समझ भी रहे हैं! कुछ सालों, रंजन भइया भी तो हमारे साथ रह कर पढे थे। तब सबसे पहले, हम सब के सब अपने ‘बड़े भइया’ से हंसी मजाक करते हुए भी कहीं अशिष्ट तो नहीं हो रहे है। हमारे बीच गाली-गलौज हुआ तो भी जाने कहां से उन्हें खबर लग जाती ओर दोनों ’भाइयों’ को तलब कर कहा जाता, – अभी-अभी तुम लोग एक दूसरे को जो-जो गालियॉं, (उल्लू, गधा, घोंचू, निकम्मा, नालायक लंपट और सुअर का बच्चा आदि) दे रहे थे न…. उसमें सबसे लंपट और सुअर का बच्चा निकाल दो ‘कह कर हंस देती… मां… रंजन भइया ठीक है ठीक है… कहते हुए भाग खड़े होते और हम वापस वसु को मूर्ख बनाने की योजना बनाने लगते। क्योंकि वृंदा तो सीधी थी, लेकिन वसु छोटी होने पर भी अव्वल नंबर की शरारती और चुगलखोरिन।

वही वसु इस समय बालों को एक साथ पीछे बांधे, भौहों के बीचो-बीच वाली लाल बिंदी में, मेरी और सुहास की प्लेटों में चाय के प्यालों के साथ पराठे डाल रही थी।

उस समय मेरा मन कर रहा था, मैं वसु से कहूं, जा, पहले सी दो चोटियां करके आ। जैसे बचपन में मां तेरी और वृंदा की किया करती थीं। चिकने बालों वाली दो लंबी चोटियां। फिर उन्हें एक दूसरे में फंसा कर दोनों तरफ रेशमी रिबन के फूल बना दिया करती थीं। मां को लंबे रेशमी बाल अच्छे लगते थे। बड़े मन से बेटियों की चोटियां गूंथती थी, और वे बेटियां उन चोटियों में खुद को बला की फैशनबुल समझती थीं और मुझे और रंजन भइया को लड़ाका और बुद्धू एक साथ। सचमुच बारीक शरारतें तो लड़कियां ही कर ले जातीं थीं। हमेशा चुलबुली, हमेशा नटखटी… हम भाइयों के पीछे हाथ धोकर पड़ी रहतीं। बेशक दिन भर घर में दौड़-दौड़ कर मां की मदद करतीं। सारे छोटे, बड़े काम। जैसे कपड़े तहाना, आंटा गूंथना, सब्जी काटना, उफनती दाल का ढक्कन दौड़कर हटाना, भाइयों के दोस्तों के लिए चाय बनाना और पहुंचाना भी। अपना और भाइयों का भी टिफिन लगाना। भाइयों को पानी का ग्लास भी पहुंचाना (मुंह चिढ़ाचिढ़ाकर) लेकिन कसर बाद में निकलती न… जब, ‘रंजन भइया! जरा अंग्रेजी के शब्दार्थ बता दो और जब वेणु दादा! जरा स्वास्थ्य रक्षा का डायग्राम बना दो…. ऊपर से बाजार दौड़ा-दौड़ा कर कभी शार्पनर, कभी स्केल तो कभी कैम्पस बॉक्स…. जान पहचान वाली, अंटियां समझतीं मिसेस शुक्ला बहुत बैकवर्ड हैं। लड़कियों से ही घर के सारे काम करवाती हैं। मां हंसतीं, लड़कियां ज्यादा करीने से काम करती हैं। लड़के चीजें रखते कम, तोड़ते ज्यादा हैं। काम करते कम बिगाड़ते ज्यादा है। पहले झेंपते हैं फिर मौका पाते ही बहनों की पिटाई करने दौड़ते हैं। ये भाई-बहनों वाली आपसी खटमीठियां हैं। यहां लड़का, लड़की और भेदभाव वाला मामला न उठाया जाये तो ही अच्छा। मेरी बच्चियों में, न किसी की तुलना में आत्मविश्वास कम है, न समझदारी।

अचानक मन किया, प्लेन में मेरी बगल की सीट पर सोती मेधा को जगाकर कहूं, सुनो तुम एक दिन लंबी चोटी बनाना और उसे जूड़े की शक्ल में घुमाकर मोड़ देना। फिर भौहों के बीच एक छोटी लाल बिंदी भी लगाना मां की तरह। छोटी थी तो वृंदा, वसु खी-खी-खी-खी करके चिढ़ातीं- ‘मां! तुम बिल्कुल अमर चित्र कथा की राजा हरिश्चंद्र वाली शैब्या लगती हो….‘ चुपकर! ताई जी डपटतीं- जो मन में आया, बोल दिया। सात जनम लोगी तो भी अपनी मां जैसी समझदारी नहीं पाओगी… पूरे कुटुंब में एक वही तो है जो सबको एक में बांधकर रखती हैं। उससे जुड कर ही सब आपस में जुड़े हैं नही तो ‘काटो-खाओ‘ करने वाले कम हैं क्या अपने यहां भी। यानी चाहें दुनिया-जहान एक तरफ ही जाये, ताई अपनी इस देवरानी के खिलाफ एक शब्द भी बरदाश्त नहीं कर सकती थीं।

मां की सौभाग्य-रात्रि

अचानक वह प्रसंग याद आ गया जो ताई ने एक-दिन मां-पापा और सारे कुटुंबियों की उपस्थित में ठिठोलियों के बीच थपोड़ी मार कर हंसते हुए बताया था।

हुआ यह था कि विवाह की अगली सुबह दोस्तों के चिढ़ा-चिढ़ा कर तंग करने पर जब पापा ने अनायास अपनी सौभाग्य -रात्रि की दुर्दशा बनाम आप बीती बयान की तो दोस्तों का हंसते-हंसते बुरा हाल हो रहा था। तब घर में टिके मेहमानों को बूंदी के लड्डू और मठरियां बटवांती ताई ने भी बिना जतलाए सुना। सुनकर कंठस्थ कर लिया, और अब जब मूड आता अपने विशिष्ट अंदाज में छौंक बघार लगाकर बतातीं कि कैसे उनकी पंडिता देवरानी ने बेचारे उनके ‘भकुआ‘ देवर को पहली रात ही अपने ज्ञान-धरम से चित कर दिया था।

बकौल ताई-

मथटीके झुमके से सजी, रूनझनी पायल बजाती मां ने पहले तो ‘मदर इंडिया’ फिल्म की नरगिस की तरह पति के चरणों में झुक कर माथा नवाया। फिर शहदघुली गुनगुनी आवाज में बोल गईं – पता नहीं मैं आपके योग्य हूं या नहीं… लेकिन पिता ने जब झुकने से पहले उन्हें कंधों से उठा (डायलॉग वे भी रट कर आये रहे होंगे) कर कहा ‘योग्य, अयोग्य’ की कैसी बात आज से हम तुम एक दूसरे के पूरक होंगे…

तो मां वैसी ही धीमी आवाज में फुसफुसाईं ‘जैसे आप ‘जोड़‘ तो मैं बाकी आप ‘गुणा‘ तो मैं ‘भाग…‘ अचकचाये पिता को ’भाग’ ने सहारा दिया-

– हां, मेरा भाग यानी मेरा अटूट हिस्सा, मेरा भाग्य-

– भाग्य न भी बन पाई तो भी साथ दूंगी हमेशा सौभाग्य और दुर्भाग्य में…

– कैसी बातें करती हो, अब कैसा दुर्भाग्य

– हां, आप ठीक कहते हैं, जब हम दोनों साथ होंगे तो कैसा दुर्भाग्य। विवेकानंद ने कहा है न मनुष्य अपने भाग्य का विद्याता स्वयं है….

पिता मन में खीझे, पूछो इस भागमानी से इस समय विवेकानंद को बीच में लाने का क्या तुक? तब तक मां को याद आया –

– ठीक इसी आशय का बिंदु जी महाराज का एक भजन भी है-

– अब तो पिता मन ही मन पस्त हो लिये- हे भगवान। अभी विवेकानंद गए भी नहीं कि बिंदु जी महाराज पधार गए। आइये महाराज। पवित्र कीजिए हमारी सुहाग शैय्या को…. फिर मां का ध्यान दूसरी और खींचने की गर्ज से मुस्कराते हुए कह तुम्हें सप्तपदी के सातों वचन याद हैं न! पंडित जी ने क्या कहा था….

– यही कि आप किसी चीज के खरीद- फरोख्त क्रय विक्रय, मैं मुझसे मशविरा करेंगे- अनुष्ठान में हमेशा मुझे साथ रखेंगे…. खुश हुए पापा।

– तो चलो अभी यह प्रतिज्ञा लें कि हम दोनों एक दूसरे की राय सुझाव से हमेशा सहमत होंगे…

अब मां की ईमानदारी आड़े आई-

– लेकिन हर बात पर एक दूसरे से सहमत होना तो बहुत कठिन है व्यवहारिक भी नहीं लेकिन आदर सम्मान तो करूंगी ही…. वैसे भी सहमति देना, और सहमत होना दो अलग चीज हैं और जानती हूं बहुत समझदारी मागती हैं…

– वो तो तुम हो ही…’पिता अंदर से कुढ़ कर ऊपर से मुस्कराये- (अभी ही देख लिख मैंने न) और लाड़ जताया, चलो तुम मुझसे न सही, मैं तुमसे सहमति लेकर ही…

– अरे नहीं… इस तरह तो आप अपने ऊपर अत्याचार करेंगे। मैंने कहा न  किन्हीं दो व्यक्तियों का एक दूसरे से सहमति लेना और सहमत होना दो अलग…

पिता का कहना था कि यहां तक आते-आते उनका सब्र जवाब दे गया- किसी तरह झल्लाहट पर काबू पाते हुए बोले- ये बताओं सारे शास्त्रार्थ आज ही पूरे कर लेने हैं या कुछ बाकी की जिंदगी के लिए भी छोड़ना है… आधी से ज्यादा रात तो बीत गई थोड़ी बची है और भी जिन-जिन महापुरूषों को न्यौता देना है, बुला लो वरना…

फिर? फिर?…. दोस्तों की उतावली चरम पर थी।

’फिर क्या’ पापा थोड़ी झेंप, थोड़े मज़ाकिया लहजे में बोले थे- ’सहमत’ हो गई और क्या!… छतफोड़ ठहाकें ने सारे घर को झनझना दिया था।

 ताई जब कभी चुहल के मूड में होतीं, बुआओं और चाचा के सामने अपने प्रभाकर लाला और लाडली देवरानी की खिंचाई करने से बाज नहीं आती। सबके सामने बकायदे घोषणा कर देतीं, अच्छा भइया, अब तो मेरा मन, विवेकानदं और बिंदु महाराज वाली कथा सुनाने का हो रहा है। क्यों ‘लाला’? सुरू करूं…

पापा तत्क्षण झोंपते – भौजाई! मेरी नहीं तो अपनी उमर का लिहाज करो…. और हाथ जोड़ देते। संकोच और शर्म से पानी-पानी होतीं मां, पापा को आंखें तररेतीं अंदर चौके में चली जातीं…

पता नहीं, मुझे अपनी मां की सौभाग्य रात्रि का यह प्रसंग इतना प्रिय क्यों लगता है? शायद इस लिए कि यह मात्र एक प्रसंग नहीं एक पूरा कालखंड है। एक पूरी जीवन-शैली है।

अभी हमने जी भर के देखा नहीं है।…

एक बार अपनी गली के नुक्कड़ वाले अहाते में नवरात्रि की रामकथा चल रही थी। इस तरह की रामकथा, भागवत कथा या किसी न किसी माता का श्रृंगार, या जगराता, आये दिन की घटनायें थीं। आगे पीछे का गलियों से चंदा उगाहा और चार-छः तख्त जोड़कर मंच बना दिया। ऊपर यहां से वहां फहराती पतंगी कागजों की झांड़ियां। और फिर रात-रात भर चलते झांझ-मंजीरे, दोहे चौपाई से कौव्वालियों तक। वैसे भी वह उम्र, राम कथा सुनने की न होकर यार दोस्तों की जबरदस्ती पकड़ाई उल जलूल किताबें पढ़ने की थी। ऊपर से लाउडस्पीकर से आती आवाजें सारी पढ़ाई और मूड का कचरा कर डालतीं थी।

लेकिन उस दिन अनायास कथा-वाचक गुसांई महाराज की अगाध भक्ति में डूबी आवाज मुझे अलग तरह से चौंकागई। जानकी माता की श्रृंगार के प्रसंग में वे रामचरित मानस के श्रृंगार-रस पर बोलते हुए विभोर हो रहे थे कि मानस में गोस्वामी जी ने तो सीता के नखशिख का प्रसंग आते ही माथा टेक दिया… उस जगत जननी जगदंबिका भवानी की श्रृंगार शोभा का वर्णन करना मुझे अंकिचन के वश का है क्या!

श्रृंगार की दिव्यता की पराकष्ठा है जानकी का नखशिख। एक नहीं, ऐसे अनेकों प्रसंग हैं, हमारे भारतीय वाड्मय में। एक प्रसंग में, जब सीता की भेजी चूड़ामणि दिखा कर राम लक्ष्मण से पूछते हैं, देखो लक्ष्मण यह सीता की ही है क्या?… तो लक्ष्मण कहते हैं कि- ‘कैसे पहचानूं मैं भइया!…. भाभी के पैरों के ऊपर कभी मेरी दृष्टि पहुंची ही नहीं न’… और कथा वाचक गोसाई महाराज का छंदों में बंधा तन्मय स्वर गूंजता है- ‘अभी हमने जी भर के देखा नहीं है… अभी हमने जीकर के देखा नहीं है….

गोस्वामी जी, गायक-वृंदों के साथ गा रहे हैं… हारमोनियम तबला और मजीरे की समवेत धुनों के बीच लरजते स्वर – ‘तो, रोकर के कहा लक्ष्मण ने कि भइया! पहचानता नहीं हूं – क्योंकि-

अभी हमने जी भर के देखा नहीं है… अभी हमने जी भर के-

मैं गाने की कोशिश करते-करते झेंप और सकुचा जाता हूं।…. आधी रात में प्लेन के अंदर के निरभ्र सन्नाटा और मेरे अंदर तरन्नुम में बजते तबला, हारमोनियम और गाते हुए ‘गोसाईं महाराज की आवाज गूंज रही थी…’ हमारी संस्कृति की एक झलक… श्रृंगार-रस की दिव्यता की पराकाष्ठा है यह… और आज हमने श्रृंगार को जिस विकृति के गर्त तक पहुंचा दिया है, वहां मात्र असंतोष, लोभ, विनाश और विध्वंस के सिवा कुछ नहीं है। तथा मूल में है, असंतुलन, असंतोष और अपरिमित लोभ…। भटक गए हैं हम आपकी धुरी से, इस हद तक कि संभलने का होश तक गंवा बैठे हैं।

तब यह सब सोच पाने की न उम्र थी, न समझ… सौभाग्यरात्रि वाली बात भी घर में चलते एक मजेदार प्रसंग से ज्यादा कुछ नहीं थी – लेकिन अब वह एक समूचा कालखंड है।

वसु उसी कालखंड की उपज है।

आने से पहले मुझे जकड़ कर चीत्कार करती वसु (न जाने कितनी चीजों के लिए थी उसकी चीत्कार…) और मां की सौभाग्य रात्रि की स्मृति कैसे एक साथ होली, पता नहीं।

मेरे साथ हमेशा स्मृतियों का यह काफिला न चला करता तो मैं भी मेधा की तरह आधी रात की इस फ्लाइट में चैन से सो न रहा होता!….

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पुरचावर्ती लवकर या…

हां, मैं नहीं सो पा रहा न!…

बावजूद इसके कि पिता की मृत्यु के शोक संताप से जुड़े सारे आवेग क्रमशः थम चुके हैं। मां ने शांत, निरुव्देगी भाव से मुझे विदा भी दे दी, मन चाहे जितना भारी रहा हो।

भारत प्रवास के दौरान बच्चे बीमार नहीं पड़े और मेधा सब के साथ ठीक-ठाक रह ली। मेरी तो सबसे बड़ी उपलब्धि यही।

सारे कर्तव्यार्कतव्य के बाद अब स्वेच्छा से वापसी हो गई, होनी भी चाहिए थी। भरे-पूरे परिवार का तृप्त, संतुष्ट, गृहस्थ, सुख-सुविधाओं से समृद्ध जीवन। सबसे बढ़कर इससे ज्यादा रह पाना अब अपने उस घर में संभव भी नहीं था। बच्चे तो शायद यह सोच कर ही आखिरी दिनों में शांत थे कि अब तो दो चार दिनों में ‘अपने घर‘ जाना ही है।

लेकिन यह कैसे काफिले हैं जो लगातार साथ-साथ चल रहे हैं। फ्लैश बैक की आवाजाहियां खत्म होने को नहीं आ रहीं। जब पहली बार कॉलेज टूर पर कलकत्ता गया था।… दशहरे की छुट्टियों में दुर्गापूजा की धूम। हर जगह लंबे घुंघराले बालों और बड़ियारी आंखे वाली तेजोदीप्त दुर्गा। पीछे-पीछे नाचते, झूमते बावले बंगाली…. ‘आ वारे ऐशो मां…’ चैतन्य महाप्रभु की तरह हाथ उठाये गाते-बजाते, अबीर गुलाल उड़ाते… सौभागयवती युवतियों का ‘शिंदूर-खेला’…. अंदर बाहर की समूची चेतना में सनसनाता एक तन्मय भाव…

उससे भी बहुत पहले, जब पापा को पहली बार एल.टी.ए. मिला था हम सब साथ-साथ मुंबई आये थे। हम चकबके से देखते रहे थे, आसमान छूती इमारतों और डबल डेकर बसों को… हर कहीं हलकोरता समंदर, झमझमाती बारिश गीले पतो के पंख फड़फडाते नारियल के पेड़ और उसी भीड़भाड़ में ट्रकों, वैनों और ट्रालियों में विराजते, सूंड में मोदक लिये, गदबदे बच्चे से, प्रसन्न-वदन गणपति…. एक दो नहीं अनेक, अधिकसंख्य…. जुलूस निकल रहे हैं…। समवेत उद्घोषों से आकाश गूंज रहा है। गणपत्ति बप्पा मोर्या… पुरचावर्ती लवकर या…. पता चला गणपति विसर्जन का त्योहार है, बहुत मान्यता है इसकी।

ठस्सम-ठस्स भरी सड़कों पर नाचते कूदते लोग, नगाड़ों की तड़ातड़-तड़, तड़ातड-तड़ का तेज शोर, अबीर गुलाल के गुबार, माथे पर रंगबिरंगे बैंड वाले लड़के, रंगीन चमचम साड़ियां में सजी युवतियां, सुध-बुध बिसरे मस्त मगन नाचती हुई रास्ता बनाते लोग- इंतजाम बरोब्बर… बाई लोक इदर कूं, मर्द माणस वो बाजू….

लो भइये, कलकत्ता में ‘मांऽ गोऽ, मुंबई में ‘बप्पा मोरिया रे‘… तो मगन है लोग ‘मइया-बप्पा‘ से लेकर भगवानों की तैंतीस करोड़ रिश्तेदारियों में। कहीं ‘माता की चौकी‘, कहीं बांकेबिहारी का श्रृंगार, कहीं हनुमान जी की जयंती कहीं शिव शंकर का रूद्राभिषेक इसके सामने सारे डिस्को फेल। दिस इज़ रियल इंडिया…,

– व्हाट इंडिया, छोड़ो भी… इससे कहीं बड़ा समंदर, इससे कहीं ज्यादा साफ-सुथरी और प्रदूषण मुक्त नदियां…., पहाड़, हरियाली, घाटियां, सड़कें…, रोशनी की हाट वाला यह महादेश

लेकिन मेरे अंदर एक बारिश झमझमाती है, एक समंदर हलकोरता है, एक बेसुधी तारी होती है। अनजाने, एक आवाज, उन समवेत आवाजें के साथ हो लेती है –

पुरचावर्ती लवकर या….

अगले बरस जल्दी लौटना… आना जल्दी… लौटना… किस देश, किस काल से….. या फिर हमारे अपने अंदर ही बार-बार लौटना…

लौटूंगा तो किवाड़ों की ओट, विशाखा दीदी खड़ी रो रही है।… मेरी दी घड़ी, हाथों में बांधे वृंदा… और मुझे जकड़ कर हुमसती हुई वसु… हां, लौट रहा हूं मैं…

मुझे अच्छा लग रहा है…. वरना असल के भाई-बहन तो अब सिर्फ जिक्रों में मिलते हैं न! और उनके बच्चों का तो जिक्र भी नहीं हो सकता क्योंकि वे सिर्फ एक दूसरे के मुंह से सुने जाते हैं, देखे, महसूसे नहीं। देखे महसूसूसे जाते तो राखी बांधते, टीका करते… फिर उसी बात पर रोते-गाते, लड़ते-झगड़ते… भाई अपनी बहनों से ज्यादा, मौसियों, चाचियों वाली छोटी बहनों को प्यार करते। या फिर ताई वाली दीदी को। अपनी बहनें खीझतीं लेकिन मांएं कभी नहीं कहतीं कि यह तुम्हारी सगी बहन है, वह चचेरी।…

प्रतिमाएं विसर्जित हो रही हैं।….

पुरचावर्ती लवकर या….

कहां, कहां से लौटेंगे हम!

क्या है जो यह समय हमें नहीं दे पा रहा!…

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