कल फिर सुबह नई होगी

दिन को ही हो गई रात-सी, लगता कालजयी होगी

कविता बोली- “मत उदास हो, कल फिर सुबह नई होगी।”

गली-गली कूड़ा बटोरता, देखो बचपन बेचारा

टूटे हुए ख्वाब लादे, फिरता यौवन का बनजारा

कहीं बुढ़ापे की तनहाई, करती दई-दई होगी!

जलती हुई हवाएँ मार रही हैं चाँटे पर चाँटा

लेट गया है खेतों ऊपर यह जलता-सा सन्नाटा

फिर भी लगता है कहीं पर श्याम घटा उनई होगी!

सोया है दुर्गम भविष्य चट्टान सरीखा दूर तलक

जाना है उस पार मगर आँखें रुक जाती हैं थक-थक

खोजो यारो, सूने में भी कोई राह गई होगी!

टूटे तारों से हिलते हैं यहाँ-वहाँ रिश्ते-नाते

शब्द ठहर जाते सहसा इक-दूजे में आते-जाते

फिर भी जाने क्यों लगता- कल धरती छंदमयी होगी!

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-राम दरश मिश्र

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