विराम को विश्राम कहाँ!
-आरती लोकेश
गए दिनों कुछ संपादकीय कार्य करते हुए मुझे लगभग एक ही जैसी चीज़ें बार-बार खटकीं। कुछ रचनाएँ, शब्द संयोजन, वाक्य विन्यास और विराम चिह्न मेरे सामने जीवंत हो उठे और मेरी बाँह थाम जबरन बचपन की पी.टी. कक्षाओं में खींच ले गए। ऐसा नहीं कि इस तरह की विसंगतियों से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था। देख-समझ तो बहुत दिनों से रही थी बस अपनी अनुभूतियों को अक्षर में ढालने का ख्याल अब ही आया।
माध्यमिक स्कूल की बात है कि पी.टी. मास्टर साहब सप्ताह में एक बार पी.टी. करवाते थे। 1-2-3-4 तक की गिनती तक कोई फ़िज़िकल एक्सरसाइज़ होती और 4-3-2-1 उसी उलट क्रम में उसकी वापसी होती। कोई एक्सरसाइज़ 8 तक जाकर यू-टर्न मारती तो कोई 4 से ही रिटर्न टिकट कटा लेती। कक्षा के शुरू और अंत के 5-5 मिनट केवल ‘सावधान-विश्राम’ का अभ्यास कराया जाता। मास्टर जी विश्राम कुछ खींच के बोला करते… विश्…राम। यह एक शब्द, दो शब्दों जैसा सुनाई पड़ता।
बचपन में उस विश्राम को हम विष राम समझते थे। बड़ा अचरज होता था। विष और शिव का साथ तो मालूम था, राम जाने ‘राम’ कैसे ‘विष’ से जुड़ गए। मन ने एक कल्पना कर ली कि उनके वन-वन भटकने और कष्ट सहने से ही विष के साथ उन्हें जोड़ा गया है। बालक मन था, जितना ज्ञान था सीमित-सा, उसी में सारी दुनिया को बुन लेना चाहता था। यह बात और है कि कई बड़े आज भी उसी के अभ्यस्त हैं।
सावधान और विश्राम तो पता होगा न आपको! हाँ, होगा ही। नहीं, मैंने ऐसे ही पूछ लिया। न भी पता हो तो ‘अटेंशन’ और ‘स्टैंड एट ईज़’ तो जरूर पता होगा। पता होने और उसे करने का तरीका पता होने में अंतर है, हाँ-हाँ! मालूम है मुझे भी। कौन सा पैर बाहर निकालना है, कितनी दूर तक ले जाना है, हाथों की क्या पोज़ीशन होनी है, यह केवल पी.टी. मास्टरों के सिखाने पर ही पता चल पाता है।
खैर, सावधान तो सावधान, विश्राम सिखाने पर भी मास्साब की खास तवज्जो रहती। हमें सावधान की स्थिति में लाकर वे सब बालकों के इर्द-गिर्द घूमकर मुआयना करते कि सब सावधान के नियमों का पालन कर रहे हैं कि नहीं। हम बच्चे डर के मारे विश्राम में भी सावधान सरीखे चौकस रहते क्योंकि यही मुआयना फिर से होता और अब की बार तो और भी कड़क … कि सब बच्चों के बाहर निकले हुए बाएँ पैर एक सीध में दिख रहे हैं कि नहीं। धुरंदर से धुरंदर बच्चों के भी पसीने छूट जाते। हमें ‘विश्राम’ का निर्देश देकर वे स्वयं विश्राम कभी न करते। हाथ पीछे बँधे हैं कि नहीं? कहीं दाएँ पर बायाँ हाथ तो नहीं चढ़ा है? चकरघिन्नी की तरह वहीं चक्कर काटते रहते और गलती करने वालों के बाएँ हाथ को नीचे करवा उस पर दाएँ को चढ़वाते। ‘विश्राम’ के सारे नियमों का वे मुस्तैदी से पालन करवाते। उनके सामने, आजू-बाजू सब विश्राम में होते केवल एक उन्हें छोड़कर।
अंतिम अभ्यास से पहले ही वे बता देते कि यह आखिरी राऊंड है। हमें पता होता कि किस विश्राम के बाद कक्षा समाप्त होनी है। अपनी क्लास में जाकर बेंच पर आराम से बैठने की कल्पना से हमारे दु:खते पैरों में उतनी ही जान आ जाती जितनी कि सामाजिक विज्ञान की कक्षा से छूटकर पी.टी. कक्षा में जाने के समय होती थी। चलिए, विश्राम की चीर-फाड़ बंद करते हैं, मतलब की बात पर आते हैं।
आगे बढ़ने के पहले ही अगला पड़ाव बता देने से उत्साह बना रहता है। जो थककर पहले ही रुका हो, उसे कहो- “रुको यहीं”, कैसा लगेगा उसे। यह एक तरह का धोखा हो गया। शिखर पर पहुँचने वाले पर्वतारोही को आखिरी कैंप पर यह पता होता है कि अब आगे की चढ़ाई चोटी तक की है। ऐसा हो सकता है क्या कि बछेंद्री पाल को शिखर पर कैंप गाढ़ने के बाद पता चले कि उनका सफ़र यहीं तक था बस। कुछ लुटा हुआ-सा महसूस न होगा क्या? श्रम और उत्साह का अपव्यय भी।
कुछ ठीक यही स्थिति आज हमारे विराम चिह्नों की भी है। हमारे मतलब…? मतलब… हिंदी के। बताती चलूँ कि वैसे तो ‘पंक्चुएशन मार्क्स’ भी कोई बहुत शानदार हालत में नहीं हैं। पर उनकी चर्चा उनके प्रेमियों के लिए छोड़ देते हैं। दूसरों के फटे में पैर अड़ाना हमारी आदत नहीं। वैसे सच पूछो तो कान में बताए देती हूँ कि मज़ा तो बहुत आता है पर ये डर लगने लगता है कि फटा हुआ तो हमारा भी है। उसे हम चीह्न लें, पूरा चिरने से पहले सिल लें, कहीं उससे पहले ही वे ‘दूसरे’ हमारे चिरे में टाँग न अड़ा बैठें।
पहले तो मैं ‘चिह्न’ की ही बात कर लूँ कि जब भी ‘चिन्ह’ लिखा हुआ देखती हूँ तो किसी बिगड़े हुए बच्चे को देखने जैसे गुस्सा और तरस आता है। इसके साथ ही जब इसके छोटे-बड़े बिगड़े हुए भाई-बहन ‘चिन्हित, चीन्हा’ आदि भी दिख जाते हैं तो ‘चिह्नित, चीह्ना’ पर तरस आना भी बंद हो जाता है।
वाक्यों के शब्दों के बाद आए विश्राम और विराम चिह्नों को देखकर आपको पी.टी. मास्टर जी की याद नहीं आती क्या? मुझे तो बहुत आती है। कुछ वर्ण जब एकट्ठा होकर वाक्य की संरचना को घर से निकले हैं तो आराम करके ही निकले होंगे। कुछ-कुछ दूरी पर उन्हें रिले रेस के जैसे अपनी पारी खत्म करने पर आराम भी मिलता है ताकि हमारी जिह्वा को बीच-बीच में आराम मिल सके और एक शब्द की दूसरे शब्द से उचित दूरी बनी रहे, उनका अर्थ भी भली प्रकार समझ आता रहे। जब वे आराम कर चुके हों, फिर उन्हें आगे चलाने की बजाए अल्पविराम या अर्धविराम का हुक्म सुनाया जाए तो उन्हें कक्षा में अपने फेल होने जैसा अहसास होगा। लगेगा कि कहा गया है- यहीं पड़े रहो तुम सब और बाकी लोग आगे जाएँगे। थोड़ी देर बाद जब वे आराम कर के उठने को तैयार हों तो पूर्ण विराम लगाकर उन्हें कहा जाए- ‘चलो फूटो यहाँ से’ तो वे अपराधबोध से मर ही जाएँगे।
वाक्य के नियमों की हत्या और विराम चिह्न के विश्रामस्थलों का घालमेल आजकल बहुत बढ़ गया है। उदाहरण देखिए-
मैंने कहा ,” आप ! कब आए ? मिलने तो आ जाते । ”
अनावश्यक विश्राम ने इलैक्ट्रोनिक मीडिया की कृपा से उद्धरण के प्रारम्भ का चिह्न भी बदल डाला है। उद्धरण चिह्न आरंभ के तुरंत बाद बात कही जानी चाहिए और बात खत्म होते ही समाप्ति उद्धरण चिह्न द्वारा वक्तव्य की समाप्ति की घोषणा। बीच में जगह की कोई गुंजाइश ही नहीं। क्या आप चेक पर रकम भरते हुए भी /- से पहले स्पेस छोड़ देते हैं? नहीं न! वहाँ आप कोई चूक नहीं करते। आप जानते हैं कि खाली जगह में अंक भरकर आपको चूना लगाया जा सकता है। चलो, चेक हाथ से लिखकर बनाए जाते है। टाइपिंग से भी बनाते हैं तो इस विषय में आप अति सावधान और सतर्क रहते हैं। यही सतर्कता लेखन में भी बरतने की बात भर है।
पूर्ण विराम के पहले विश्राम देने का आलम तो यह है कि कहीं-कहीं किसी-किसी पंक्ति में तो अकेला पूर्ण विराम विश्राम करता दिख जाता है जबकि उसके संगी-साथी वर्ण जिन्हें विश्राम देने के लिए वह सिक्योरिटी गार्ड बना घूम रहा था, ऊपर वाली पंक्ति में ही छूट गए। अगली पंक्ति में अकेला बैठा वह किसके पूरा होने की घोषणा कर रहा है यह तो आप तकनीकी कृपा से खुद ही समझते फिरो।
मज़ा तो तब आता है जब पूर्ण विराम अपने बाद वाले शब्द से चिपका मिलता है। मतलब कि जिन्हें काम खत्म कर घर जाना हो, वे अभी आराम फरमा रहे हैं और जो ज़रा देर में काम पर आने वाले थे उन्हें पहले ही डंडा मारकर बुला लिया जाए। ऐसी ही रेल बनती है अल्पविराम के बीच फँसे छटपटाते शब्दों की। कॉमा के तुरंत बाद खिंचे चले आते शब्द तो देखे ही होंगे न आपने भी। क्या कहा? नहीं देखे! तो देख लीजिए-
जी ,आभार ,श्रम ,श्रद्धा ,समर्पण ,सौहार्द्र केवल कहने की बातें हैं ।मेरे हिसाब से लापरवाही,मतलब,लालच,दिखावा,घमंड इनका बोलबाला है ।
जबकि इसे लिखा जाना था- जी आभार! श्रम, श्रद्धा, समर्पण, सौहार्द्र; केवल कहने की बातें हैं। मेरे हिसाब से लापरवाही, मतलब, लालच, दिखावा, घमंड इनका बोलबाला है।
इकहरे के स्थान पर दुहरे अवतरण चिह्न का भी जितना अनावश्यक प्रयोग हो रहा है, उसके लिए आलेख फिर कभी। अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध” … ऐसे उपशीर्षकों पर निगाह तो पड़ी ही होगी न कभी न कभी तो।
व्यक्तिगत आलेखों तक ही यह वस्तुस्थिति होती तो भी धरबर समझो। पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं में भी यह अनाचार देखने को मिल जाता है। कभी तो स्वयं पर ही अविश्वास हो उठता है कि मैं ही गलत तो नहीं।
ज़्यादा पीछे नहीं तो आप केवल 10-15 वर्ष पुरानी छपी हुई पुस्तकें-पत्रिकाएँ आदि उठा के जाँच-पड़ताल कर देखो। सभी विराम चिह्न अपने मंतव्य से सटकर चलते हैं, उन्हें सहारते, राह दिखाते-से, न कि अलग दूर छिटके-से खड़े हुए। वे जल्दी से शब्दों के पीछे लपककर चिपक जाते हैं ताकि बाकी वर्ण सावधान होकर थोड़ा दूर आकर स्थान ग्रहण करें। उन्हें पढ़ने वाले उनके औचित्य को समझते हुए उनके नियमानुसार वाणी को आराम देते हुए तथा अर्थ को भाव सहित समझ सकें। यही विराम चिह्न सही प्रकार से लगने पर वाक्य/अनुच्छेद आदि के बोलने का तरीका निर्देशित करते चलते हैं।
वास्तव में, जैसा हम विज्ञान के लिए कहते हैं कि हर बढ़ते चरण के साथ कुछ विनाश जुड़ा रहता है जो देर या सवेर सामने आ ही जाता है। वही हिन्दी टंकण की तकनीकी सुविधाओं से भी हुआ है। शब्द समाप्त करते ही हम ‘स्पेस’ बटन दबाने के बाद ही सोचना शुरू करते हैं- ‘व्हाट्स नेक्स्ट’। ओके, नेक्स्ट इज़ कॉमा… और फुल स्टॉप…। इस प्रकार कोई भी विराम चिह्न चाहे अनचाहे, जाने-अनजाने ‘स्पेस’ के बाद ही आ पाता है जिसे हम एक सजग आदत स्वस्थ सोच से ठीक कर सकते हैं। मगर नहीं, इस भागती दुनिया में पलटकर देखने की फुरसत किसे है? जो हो गया, सो हो गया। कौन परवाह करे? बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले; इस लोकोक्ति को बीती बातें भुलाने के स्थान पर किए काम को भूल, आगे बढ़ जाने के लिए अपना लिया गया है। जब कहीं से उठकर चलते हैं तो कई बार पीछे घूमकर देखते हैं कि कुछ छूट तो नहीं गया है। बस, यही प्रक्रिया लेखन कर्म में भी अपनानी है।
अब जाने कैसे समझाया जाए कि अल्पविराम, अर्धविराम, पूर्ण विराम या फिर प्रश्नसूचक और विस्मयादिबोधक के बाद ही विश्राम दिया जाता है न कि इनके पहले। याद है न पी.टी. वाले मास्साहब। विराम को विश्राम कहाँ?
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