मन का विषाद
(विदेशी जीवन की एक झलक)
दक्षिण ध्रुव का निकट पड़ोसी, कंगारू का देश
सौम्य, सुशोभित, दृश्य मनोरम, उत्तम है परिवेश l
हलवा पूड़ी भूल गया, खाते हैं बर्गर पिज़्ज़ा
पत्नी बन गयी भूतपूर्व, नहीं कोई है दूजा
पश्चिम की चकाचौंध में नष्ट हो गयी लज्जा
वैश्विक गाँव के वासी हो गए, रहे नहीं हम राजा l
बन्द पड़ी है वृहत रसोई, मिलती नहीं मलाई
दूध दही में स्वाद नहीं, मिट गयी सारी चतुराई
पर्वों और त्योहारों के भी अर्थ हुए बेकार
अंग्रेजी का दामन पकड़ा, ध्वस्त हुआ संस्कार l
नौकर- चाकर दूभर हो गए, होती नहीं सफाई
घंटा, दो-घंटा की कीमत, भारी है महँगाई
जीवन नैया डोल रही, सरिता है उच्छृंखल
परिवार बन गए मित्र-पड़ोसी, अनजाने का संबल l
दूसरी पीढ़ी बागी हो गयी, उनकी है अपनी पहचान
‘लैंगिक समता’ की वेला में, लड़का-लड़की एक समान
परम्परा निष्प्राण हुई, जब समलैंगिक में हुआ विवाह
सोच-सोच घबड़ाता हूँ, कैसा होगा उसका प्रभाव !
नकली दम्पति, नकली रिश्ते, विकृत होगा परिवार
‘बेटा-बेटी’ का सम्बोधन भी हो जाएगा निराधार
जाति-धर्म खंडित होगा, नूतन स्वछंद व्यवहार
यह है अन्तर्मन विषाद, युग परिवर्तन का समाचार !!
मौन निशा के निशीथ में, एक चलचित्र सामने आता है
जीवन का इतिहास जटिल, रंगीन लम्हें भी छोटे हैं
जब तक देखूँ उपसंहार प्रिय, नींद मुझे आ जाती है
कैसे लिखूँ अध्याय भविष्य का, कलम तुम्हारे हाथों में है l
अपना जीवन अब सीमित है, मायूसी का सागर है
क्या खोया, क्या पाया, यह तो एक कहानी है
हानि-लाभ का खाता भूला, कुछ छंद याद में आते हैं
तेरी स्मृति, तेरा गुंजन, कविता के स्वर बन जाते हैं l
सूख चुकी है प्रेम वाटिका, झुलस गया है हृदय पुष्प
अश्क छोड़ गए आँखों को, निष्ठुर हो गए सजल भाव
एक बूँद पीयूष की मिले तो, रसमय होगा जर्जर संसार
वह कलश तुम्हारे हाथों में, कर दो एक अन्तिम उपकार !
-कौशल किशोर श्रीवास्तव
(सन्दर्भ : विदेशी परिवेश, नयी संस्कृति, भावनात्मक संघर्ष)