प्रेम की एक तरल नदी लूंगा
शिव नहीं हूँ मैं,
कि सब के बदले जहर पी लूंगा।
बुद्ध नहीं हूँ मैं,
कि भिक्षाटन कर जी लूंगा।
सांसारिक हूँ,
कुछ जरूरतें, कुछ चाहतें हैं।
कुछ दायित्व लिए,
अनगिनत सम्बन्ध नाते हैं।
मगर, तुम मत घबराना,
इनके लिये तुमसे न कोई अम्बर, न महि लूंगा।
दुनियां में बंटा रहता हूँ,
सुख दुःख सहता हूँ।
मेरे कितने हिस्से हैं,
न जाने कितने किस्से हैं।
हे प्रभु, तुम बस आस, प्रयास बनाये रखना।
अलग-अलग टुकड़ों से एक पूरा जीवन सी लूंगा।
दोस्त, रिश्तेदार मेरी कमजोरियां हैं,
उनसे संवाद मेरी मज़बूरियां हैं।
मगर संचार सुगम होने के वावजूद,
सबसे निरंतर बढ़ती दूरियां हैं ।
तुम मुझमें ये कमी बनाये रखना,
कोई हमें याद करे न करे,
मैं हरदम सबकी सुधि लूंगा।
ख़ुशी गम होना तो यहाँ कुदरती है,
ये तेरी जन्नत नहीं, हमारी धरती है।
यहां कहाँ कौन तेरी तरह पूरा है,
हर कोई मेरी तरह ही अधूरा है।
औरों की भूल की निरर्थक है गणना,
इसलिये कमी-बेशी तोले बिना,
ये सुनिश्चित करना,
कि मैं लोगों की सब नेकी-बदी लूंगा।
अगर कभी लेने-देने की करो पेशकश,
तो जान लो, मेरी यही आरज़ू होगी, बस।
अपने अहम के सख्त पर्वत के बदले,
मैं तुमसे प्रेम की एक तरल नदी लूंगा।
अपने अचेत-सचेत उपायों से,
निजी मित्र-बंधु,परायों से;
पेड़-पौधों के फल-सायों से,
सब जीव-जंतु चौपायों से,
रोज एक जीवन में जितना लिया है सबसे;
उन्हें लौटाने में,
न जाने कई जन्मों की कितनी सदी लूंगा।
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-अवधेश प्रसाद
