समग्र सोच


अक्षरों में शब्दों को,
वाक्यों में पदों को;
ऊंचाइयों में कदों को,
पाबंदियों में हदों को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

पेड़ों में वन को,
अंगों में तन को;
विचारों में मन को,
चाँद-तारों में गगन को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

चिंताओं में भय को,
शंकाओं में संशय को;
सात सुरों में लय को,
पल-प्रहरों में समय को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

रेखाओं में आकृति को,
रीति-रिवाज़ों में संस्कृति को;
सब जड़-चेतन में प्रकृति को,
सतत परिवर्तन में प्रवृति को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

पायदानों में सीढ़ियों को,
बुजुर्ग-जवानों में पीढ़ियों को;
सब भेद-भाव के कद्रदानों में,
मौजूद एक-सी सकींर्ण रूढ़ियों को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

जन-जन में एक मानव वंश को,
कण-कण में कुदरत के अंश को;
क्रोध, लोभ, मोह में आत्म-दंश को,
अतिशय भोग में धरा-विध्वंश को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

तारों से परे अंतरिक्ष की ऊंचाई को,
संपूर्ण ब्रह्माण्ड की गहराई को;
समय की महती यात्रा-अगुवाई को,
विस्तार से ऊपर की पूर्ण इकाई को,
देखने के लिए समग्र सोच चाहिए।

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-अवधेश प्रसाद

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