हद
कभी दायरे घर तक सिमट जाएँ तो;
सब अपने हों, जिनके निकट जाएँ तो;
काम थोड़े हों, जल्दी निबट जाएँ तो;
लम्हे सामने से आकर लिपट जाएँ तो,
क्या जिंदगी, बहुत बुरी हो जाएगी?
भाग-दौड़, शोर-शराबे थम जाएँ तो;
कभी बाहरी दिखावे कम जाएँ तो;
धन-दौलत के पांव कहीं जम जाएँ तो;
जितना है उसी में लोग रम जाएँ तो,
क्या जिंदगी, बहुत बुरी हो जाएगी?
चाहतें जरूरतों तक घट जाएँ तो;
ख़याल भूत भविष्य से कट जाएँ तो;
गहरे कोहरे भरम के फट जाएँ तो;
परदे अहम् के नज़रों से हट जाएँ तो,
क्या जिंदगी, बहुत बुरी हो जाएगी?
फर्क नहीं, सुबह, शाम, दोपहर जाए तो;
सोच साँसों के चलने पर ठहर जाए तो;
कभी मन के तल में शून्य उतर जाये तो;
सुख, दुःख, सबका असर जाए तो,
क्या जिंदगी, बहुत बुरी हो जाएगी?
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-अवधेश प्रसाद
