प्रिय तुम आज फ़ोन लेकर मत आना
प्रिय तुम आज फ़ोन लेकर मत आना,
इसके साथ चला आता है पूरा ज़माना।
आज हम मिलना चाहते हैं बे-खलल,
थोड़ी देर, सिर्फ तुमसे, तेरे खयालों से।
रु-बरु होना चाहते है कुछ पल,
बस तेरे-मेरे दायरों के सवालों से।
हम चाहते हैं अपने जज़्बों को तेरे पास लाना ।
ऐसा नहीं है कि तुम मेरे नहीं;
अब किसी और के हो गए हो।
बस हर पल, बाहरी दखल से,
टुकड़ों में बंट कर खो गए हो।
हम चाहते हैं तुम्हे फिर से मुकम्मल पाना।
हम आस-पास हो कर भी,
आजकल कहाँ साथ साथ होते हैं!
जिस्म की नजदीकियों के बावजूद,
कितने फासलों पर हमारे अहसास होते हैं।
हम चाहते हैं ये फासले घटाना।
अब पहलु में बैठ कर भी हम-तुम बातें
अपनी नहीं, करते हैं दुनिया जहां की!
जरूरी नहीं, पर हम सारा वक़्त हैं बिताते,
कह सुन कर बेगानी दास्ताँ यहाँ वहां की।
आओ अब कहते सुनते हैं अपना अफसाना।
ऐसे ही चलता रहा तो डर है,
एक दिन हम अजनबी बन जायेंगे।
नजरअंदाजियाँ यूँ बढ़ती रहीं तो,
फिर कैसे करीबी रख पाएंगे।
हम चाहते हैं तुमसे दिल की करीबियां बढ़ाना।
इसके पहले कि निकल जाएँ
हम, एक दूसरे से बहुत दूर।
आओ आज ही रुकने पर
अपने क़दमों को करते हैं मजबूर।
हम चाहते हैं तेरे पास ही रुक जाना।
आओ फिर मिलने के,
पुराने अंदाज़ अपनाते हैं;
सबसे दूर जा कर एकांत में,
छुप छुपाकर बतियाते हैं।
हम चाहते हैं ऐसे ही तुम्हे हाल- ए-दिल बताना।
घास की चादर पर लेट कर,
कहीं किसी दरिया किनारे।
कुछ देर साथ चलो देखते हैं,
खुले आसमान में चाँद तारे।
चलो साथ-साथ अपनाते हैं कुदरत का नज़राना।
मुहब्बत की कशिश को रोकती,
पहले, टेक्नोलॉजी की दीवारों को दरम्यान से हटाते हैं।
फिर, सुकून के कुछ पल साथ बैठकर,
नज़र-ओ- जुबां से बातें कर दूरियां घटाते हैं।
हम चाहते हैं तुम से दूरियां घटाना।
आज केवल अपना वजूद लेकर,
तुमसे मिलने अकेले उन्मुक्त हम आएंगे।
कोई मूर्त-अमूर्त बंधन, बस्ता
न बोझ अपने साथ लाएंगे।
तुम भी सिर्फ अकेली ही आ जाना।
प्रिय तुम आज फ़ोन लेकर मत आना,
इसके साथ चला आता है पूरा ज़माना।
