ग़ज़ल -1

देर थोड़ी क्या हुई पर फड़फड़ाने में हमें
आसमाँ ही लग गया नीचे गिराने में हमें

एक मुश्किल को ज़रा सुलझा दिया हमने तभी
मुश्किलें सब लग गयीं हैं आज़माने में हमें

हर तरफ़ यादें हमारी ही मिलेंगी आपको
वक्त कुछ ज़्यादा लगेगा भूल जाने में हमें

हम अगर चलते हैं अपने साथ पिंजरा भी चले
रख दिया है जिस्म के इस कैदखाने में हमें

तुम अगर धरती हो हम सूरज की किरणें हैं “प्रगीत”
देर लगती ही नहीं है पास आने में हमें


ग़ज़ल -2

जो आए थे किराएदार बनकर
वहीं बैठें हैं अब हक़दार बनकर

जिन्हें बुनियाद समझा था हमारी
खड़े हैं अब वही दीवार बनकर

अगर भूखे रहे औज़ार अपने
वहीं होंगे खड़े हथियार बनकर

लिखा अच्छा, ना लाए पर अमल में
तो क्या है फ़ायदा फ़नकार बनकर

ख़रीदारी करेगी मौत जिस दिन
तो बिक जाएँगे हम बाज़ार बनकर

ना चल पाए ना ली ही साँस हमने
जो बैठे मूर्ति बेकार बनकर

गए थे जो रुलाकर वनगमन को
वही लौटे हैं अब त्यौहार बनकर

कलम भूखी थी तब ही पंक्तियाँ कुछ
ज़हन में आ गयीं आहार बनकर


ग़ज़ल -3

बहुत कुछ पूछना तो था सभी से
कभी पूछा नहीं हमने किसी से

शिकायत ज़िंदगी करती रही बस
शिकायत थी हमें भी ज़िंदगी से

वो वापस जाए घर की ओर फिर से
नहीं हो पाएगा बहती नदी से

नदी को हम समुन्दर में बदलकर
करेंगे दोस्ती फिर तिश्नगी से

तुम्हें भी काश ये मालूम होता
ये दिल लड़ता है कितनी त्रासदी से

उसे लगना भी था क्या दांव पर तब
नहीं पूछा किसी ने द्रौपदी से


ग़ज़ल -4

सच की तहक़ीक़ात होने लग गयी
झूठ की ख़ुद मात होने लग गयी

दर्द के बादल जो छाये हर तरफ़
आँख से बरसात होने लग गयी

सर्दियों से इसलिए नाराज़ हूँ
था सवेरा रात होने लग गयी

घात से हमने बचाए लोग तो
फिर हम ही पर घात होने लग गयी

रोज़ अपनों से ज़हर पी-पी के अब
ज़िंदगी सुकरात होने लग गयी

जानवर से भी बुरी क्यों आजकल
आदमी की जात होने लग गयी

बाप के जाते ही बच्चों में ‘प्रगीत’
काग़ज़ों की बात होने लग गयी


ग़ज़ल -5

भरोसा था हमें अपनों पे ज़्यादा
ये धोखा है उसी का ख़ामियाज़ा

हमारे सामने कुछ और थे वो
मगर कुछ और था उनका इरादा

है मंजिल सामने पर जानते हैं
अभी आएँगीं थोड़ी और बाधा

यूँ खुद को भी था हमने बेच डाला
उन्हें पर चाहिए था और ज़्यादा

गयी रिश्तों को दीमक चाट इतना
बचा है हाथ में केवल बुरादा


ग़ज़ल -6

मित्रता के स्वर बजे हैं जब से बीनों में “प्रगीत”
जेब बनने लग गयी हैं आस्तीनों में “प्रगीत”

माँ के आँचल से, पिता के श्रम में डूबे वस्त्र से
ख़ुशबूएँ आती हैं क्यों हमको पसीनों में “प्रगीत”

तुम तरल जल हो सदा बहते ही रहना है तुम्हें
तुम नहीं रह पाओगे पत्थर के सीनों में “प्रगीत”

दूर ही रखना कहीं चुभ जाएँ ना उँगली में ये
विष छिपा है अब अंगूठी के नगीनों में “प्रगीत”

हम तो दिल से ही मिले, जिससे मिले, जब भी मिले
क्यों हमें धोखे मिलें अक्सर यक़ीनों में “प्रगीत”

क्या पता बरसेंगे या फिर से गुज़र जाएँगे बस
मेरी छत पर आए हैं बादल महीनों में “प्रगीत”


ग़ज़ल -7

जिनको हमने अपना माना, इज़्ज़त दी
उन लोगों ने दुनिया भर की आफ़त दी

उनको पैसे और दौलत की चाहत थी
जिनको हमने अपने दिल की दौलत दी

लोगों के असली चेहरे अनदेखा कर
हमने इस गलती की भारी क़ीमत दी

भावुकता में जब भी हम कमजोर पड़े
उनकी सिखलायी बातों ने हिम्मत दी

ऊँची-नीची, आती-जाती लहरों से
साहिल ने सोते सागर को हरकत दी

अपने आगे-आगे हरदम वक़्त चला
दो पल रुक पाएँ कब उसने फ़ुरसत दी

चादर में थे पैर, ज़रूरत कम अपनी
इस आदत ने हमको ज़्यादा बरकत दी


ग़ज़ल -8

जिन लोगों ने समझा है कमज़ोर मुझे
उनके कानों मे करना है शोर मुझे

मुँह पर मीठा बोलें पीछे कड़वाहट
ऐसी बातें देती हैं झकझोर मुझे

जल्दी-जल्दी में की अपनी गलती से
दे डाली है उसने अपनी डोर मुझे

भू ने सूरज की जानिब मुख मोड़ा है
दिखती है अब अंधियारे में भोर मुझे

जब तक जीवन है तब तक हूँ दुनिया में
फिर वो ले जाए जाने किस ओर मुझे

किसने अपने बहते आँसू पोंछे हैं
बतला देती हैं आँखों की कोर मुझे

मैं फिर ख़ुद तूफ़ाँ बनकर भिड़ जाता हूँ
जब भी तूफ़ाँ घेरे हैं घनघोर मुझे

पहले चिंता थी बाहर के चोरों की
अब घर में ही मिल जाते हैं चोर मुझे


ग़ज़ल -9

मरते ही खत वो हाथ के लिक्खे भी बिक गए
घर तो बिका ही, क़ीमती तमग़े भी बिक गए

वो क्या बिके कि साथ में वादे भी बिक गए
हमने सजाए थे कई, सपने भी बिक गए

यूँ भी कभी शरीर के पुर्ज़े भी बिक गए
बिकते रहे शरीर भी, मुर्दे भी बिक गए

कहते थे, वो उसूल की ज़िंदा मिसाल हैं
कैसे हुआ वो आपके होके भी बिक गए

पैसे का खेल देख के हैरान हूँ बहुत
थोड़े से दाम में मेरे अपने भी बिक गए

जिनको खुदा ही मान के मैं पूजता रहा
मतलब के थे वो साथ में रिश्ते भी बिक गए

ग़ायब हुए वो, रात जो आयी अमावसी
कैसे फ़लक के चाँद और तारे भी बिक गए

मजबूर इतना कर दिया रोटी की भूख ने
मजबूरियों के हाथ में भूखे भी बिक गए

महफ़ूज़ मेरे पास में चाबी रही मगर
घर में मेरे जो थे लगे, ताले भी बिक गए


ग़ज़ल -10

मिला जो भी, बड़ों की ही दुआ है
नहीं छीना, वो मेहनत से मिला है

लिया कुछ भी नहीं केवल दिया है
तो फिर किस बात का उनको गिला है

अगर मुश्किल में हैं, हमको बताएँ
हमारे पास शायद रास्ता है

वही माली की बन जाएगा रोटी
चमन में फूल जो ताज़ा खिला है

ये ऐसा क्यों है कि दिल की सुने जो
वही इंसान मुश्किल में घिरा है

उन्हें बर्तन लगे आधा है खाली
हमें लगता वही आधा भरा है

हमारी बात जब करती है दुनिया
यही कहती है वो दिल का खुला है

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-प्रगीत कुँअर

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