हमारी तुम्हारी बातें
कुछ तुम अपनी कहो
कुछ हम अपनी कहें
इसी कहने के सिलसिले में
कुछ मन का भार हल्का हो।
कुछ आंसू तुम्हारे बहें
कुछ आंसू हमारे भी निकलें
इसी तरह मन का मैल धुले।
खून के नाते को याद करते ही
शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
क्या तुम भी अब वही सोचने लगे हो
जिसको लेकर तुम
मुझपर बेतहाशा हँसा करते थे।
क्या तुम्हारी दूसरों को दोष
देने की आदत में
अब भी कोई सुधार नहीं है।
क्या तुम अब भी यही समझते हो
कि
अगर लड़कियों को इतनी छूट न होती…
लड़कियां अगर अंधेरे के बाद
घर से बाहर नहीं निकलती….
अगर वे सामाजिक मर्यादा का
पूरा ध्यान रखतीं……
इतने तड़क-भड़क वाले
कपड़े नहीं पहनती…
तो हमें इस नंगे पन का लाभ उठाने…
अपनी हवस मिटाने…
अपना प्रभुत्व दिखाने का
मौका न मिलता?
यानि इस सब में तुम्हारा दोष कुछ भी नहीं?
तुम्हारा योगदान कुछ भी नहीं?
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-पुष्पा भारद्वाज-वुड