आहिस्ता-आहिस्ता

दर्द के बिस्तर पर
खामोशी की चादर तान
मोहब्बतें चांद का उगना
देखते रहे हम आहिस्ता-आहिस्ता

पिघलती हुई ख्वाहिशों की
चांदनी में..तारों ने सूनी सी
शहनाई यूँ कहीं बजाई..!
सुनते रहे जिसे हम आहिस्ता-आहिस्ता

ख्याल से याद तक
मुस्कुराने से रोने तक
जुड़-जुड़ कर टूटने तक
टूटने से जुड़-जुड़ कर
शब्दों की रूहे-कविता पिघली
लिखते रहे जिसे हम आहिस्ता-आहिस्ता

नींद-ख्वाब-रात-हम
जुगनू से यूँ चमकते रहे..
अपनी-अहसासे-व्यथा कहते-सुनते
रोते रहे कहीं हम-सब आहिस्ता-आहिस्ता

सुबह हुआ एक नव-नामकरण
लोग बाग हम को ही कह कर
“ओस” रोंदते-कुचलते-चलते
रहे हम पर ही यूँ आहिस्ता-आहिस्ता

हम भी तुम्हारे अहसासों में
भीगते-सूखते-रोते,
खुद पर ही हँसते रहे
आहिस्ता-आहिस्ता-आहिस्ता
आहिस्ता-आहिस्ता-आहिस्ता..!

*****

-सुनीता शर्मा

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