खजुराहो

खजुराहो,
उनके लिए
अद्भुत
किंतु
अवांछित
और
घृणास्पद रहा, जो-
नहीं रह सकते थे
वासना मुक्त
क्षण भर भी।

उनका चलता तो
फिंकवा देते
उसे
सागर की अतल
गहराइयों में,
जहाँ बड़वानल
निगल जाता
उन कामुक मूर्तियों को।
सोख लेता
उसका अध्यात्म
जिसके बिना
करवट हीन
हो जाती है दुनिया।

संसार के
विविध रंगों को
प्रतीकित करती मूर्तियाँ
गढ़ती हैं
जगती की व्याख्या।
ये मूर्तियाँ
प्रतिध्वनि हैं
किसी मोह के
चरम बिंदु की
जो बनती हैं
सृजन की
अंतःप्रेरणा।

समय-संदर्भ सँजोए
खजुराहो-
मानव-संवेदनाओं का
चरम उत्कर्ष है।
मानव संरचनाओं
का प्रकर्ष
और किसी सभ्यता का
अंतिम सोपान है,
एक रोमांच है
जिसे
जिए बिना
नहीं प्रकट होती
अंतस्तल की ज्योति।

खजुराहो
अपने
विशुद्धतम रूप में
जीवन का
पवित्र चित्रांकन है।
नहीं देख पाती
कोई संकुचित दृष्टि
मूर्तियों के
जीवन का सत्व
इस
सौंदर्य हीन
मांसल दुनिया में।
नहीं जाग पाता
उनका
ज्ञान-क्रिया और इच्छा का त्रिपुर
जो खो जाते हैं
तन्मात्राओं के
बियाबान में।

खजुराहो
मानव जीवन का
प्रसार है।
गमक है,
मनुष्य के होने की।
ऊबड़-खाबड़
मैथुनरत मूर्तियाँ
और
जीवन के
अन्यान्य रंग
अध्यास के शिखर हैं।
इन शिखरों की
उपत्यका से
ही प्रशस्त होती है
कैलाश
की राह,
जहाँ
पहुँचने के लिए
पार करना पड़ता है
राक्षस ताल भी।

*****

-ऋषिकेश मिश्र

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