क्या हम केचुएं है ?

नितीन उपाध्ये

आज परसाईयत में श्रद्धेय श्री हरिशंकर परसाई जी का व्यंग्य लेख “केचुवां” पढ़ा।

मन में कई ख्याल आये सब एक दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे थे जैसे केंचुवे अपने झुण्ड में एक दूसरे से लिपटकर हलचल मचा रहे होते हैं। 

सबसे ऊपर वाला विचार यह था कि हमें बचपन से सिखाया गया है “किसान के दो मित्र होते हैं एक साँप और दुसरा केंचुवां”। अब साँप तो अनाज को खाने वाले चूहों का सफाया करता है, पर साथ ही डरावना होने की वजह से पूजा का भी हक़दार है। बरसात के आते ही सावन के मौसम में सब उसके स्वागत में “नाग पंचमी” का त्यौहार मानते हैं। दूसरी तरफ निरीह सा प्राणी या फिर कहे कि जंतु है हमारा केचुवां, जो जमीन को उपजाऊ बनाने में लगा रहता हैं, पर इस बेचारे की सुध लेने वाला कोई नहीं। इसकी न तो पूजा ही होती हैं, और न ही कोई दिन विशेष इसके नाम किया गया है। दूसरे दृष्टिकोण से देखे तो केंचुवे कि ज़िन्दगी सुरक्षित भी है, केंचुवे को देखकर कोई उन्हें मारने नहीं दौड़ता, पर बार-बार फ़न फ़ैलाने वाले आस्तीन के साँपों को लोग देखते ही मार ही देते हैं। इस पुरे प्रकरण से हमें यही सीख मिलती है कि अगर अपनी पूरी ज़िन्दगी बिना किसी तनाव के गुजरना चाहो तो केंचुवा बन कर चुपचाप अपना काम करते जाओ, अगर अपना फ़न फैलाया तो शक्तिशाली इंसान उसे कुचल देगा। इस दुनिया के अधिकतर इंसान केचुओं की ही श्रेणी में आते है। ये अलग बात हैं कि कई केंचुवे अपने आप को साँप समझते हैं। वैसे भी किसी इंसान का साँप या केचुवां बनने में सबसे पहले तो प्रकृति का ही हाथ होता है। शायद वही तय करती है कि कौन केंचुवा बनेगा और कौन साँप। ऐसा नहीं होता तो एक ही माता पिता कि संतान रावण और विभीषण नहीं होते, कुछ आतंरिक गुण भी होते है, जो आदमी को जन्मजात भीरु या कमजोर दिल बना देते है। फिर जैसे जैसे परिस्थितियां प्रकृति पर हावी होती है तो एक साँप भी केचुवा बनने को प्रवृत्त हो जाता है, आखिर हर कोई जीवन में बिलावजह का झगड़ा-टंटा नहीं चाहता, फिर इसके लिए कुछ समझौते ही क्यों न करने पड़े। फिर बचपन से ही सीखा दिया जाता है “होइ है सोइ जो राम रची राखा” या फिर उपरवाले कि जैसी मर्जी, यह बातें, हर धर्म और हर सम्प्रदाय के लोग जपते रहते हैं, जिससे किसी भी अच्छे भले इंसान का लीक से हटकर कुछ करने की हिम्मत ही नहीं होती आखिर यह भी तो कहा गया हैं “जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये” और किसी ताकतवर के विरुद्ध जाने कि हिम्मत भी नहीं करता क्योंकि “अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान” आखिर एक सीधा-सादा आदमी तो अल्ला मियाँ  की गाय ही तो होता हैं, और अपने ही मालिक के गधे से लड़ना गाय को शोभा नहीं देता। जब व्यक्ति केंचुवा बन जाता है तो उसे इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस पर राज करने वाला कौन है, क्योंकि बचपन से वह यही देखता आया हैं कि “कोई नृप होय हमें का हानि। चेरी छोड़ न होबई रानी।“ तो जब बेचारे व्यक्ति की हालात में सुधार आने ही वाला नहीं, तो वह क्यों सोचे कि उसका वोट साँपनाथ को जा रहा है या नागनाथ को, क्योंकि राजनीति में केचुओं की कोई जगह नहीं, यहाँ तो एक साँप नाथ है तो दुसरा नागनाथ। मराठी भाषा में एक कहावत हैं “दगड़ा पेक्षा वीट मऊ” यानी पत्थर से ईंट नरम होती है, मतलब यहाँ भी यही शिक्षा देने की कोशिश कि जा रही है कि मार पड़नी हो तो ईंट से सर फुड़वा लो, क्योकि वह पत्थर से तो नरम होगी। पर कोई यह नहीं बोलता कि ईंट से भी सर क्यों फुड़वाये? हर चीज को स्वीकार करना तो हमारा राष्ट्रीय धर्म सा बन गया है। 

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