सोशल मीडिया : क्या खोया, क्या पाया

नितीन उपाध्ये

सोशल मीडिया से हमने जो पाया है वह है “दुनिया के किसी भी कोने में जब एक गौरेय्या अपने पंख फड़फड़ाती है तो उसकी खबर दुनिया के हर व्यक्ति को हो जाती है”। हमारी दुनिया को हमारी मुट्ठी में लाने वाला यह सोशल मीडिया ही है। आज मैं दुबई में बैठे एक साथ अपने बहुत से साहित्यिक मित्रों से अपने मन के भाव साझा कर पा रहा हूँ यह इसी “सोमी” का कमाल है। कुछ ही वर्षों पूर्व तक एक आम आदमी की जानकारी उसकी इन्द्रियों की पहुँच तक ही सीमित थी। कभी-कभी तो पिछली गली में होने वाली बात का पता  भी लगने में कई दिन लग जाते थे। ससुराल में बैठी बेटियाँ “अब के बरस भेज भैया को बाबुल” गा कर ही संतुष्ट हो जाया करती थी या  बिरहिने “खत लिख दे साँवरियाँ के नाम बाबू” गाकर डाकिये की मिन्नतें करती थी। चन्द्रमा को माध्यम बनाकर संदेशे भेजना हो या कबूतरों को उड़ाना, मन की बाते मन में ही रह जाया करती थी। दुनिया के समाचार जानने के लिए रेडिओ का ही सहारा था। वैसे यह सुविधा भी चंद खुशनसीबों को ही हासिल थी। नाप तौल के बाते पता चला करती थी, और वह भी जो समाचारों को नियंत्रित करने वाली शक्तियां किया करती थी ।

हमारी सभ्यता को चिट्ठियों से दूरभाष तक आने में जितने साल लगे, उसे आज की स्थिति में आने में उतने दिन भी नहीं लगे। इंटरनेट जिसे हिंदी में “अंतरजाल” भी कहा जाता है, ने बड़ी तेजी से अपना जाल ऑरकुट, फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और कई तरीकों से फैलाया है और आज इन सभी माध्यमों की वजह से यह सम्पूर्ण विश्व एक छोटे से कस्बें में बदल गया है, जहाँ एक पल में व्हाट्सएप्प के द्वारा द्रौपदी की सहायता की गुहार श्रीकृष्ण तक पहुँच जाती है। जहाँ जानकी पलक झपकते स्वर्ण मृग के असली या नकली होने की पड़ताल गूगल सर्च पर कर सकती है। शकुंतला के पास दुष्यंत के साथ हुए गांधर्व विवाह की फेसबुक पोस्ट के सबुत होते है। एकलव्य को कोर्सएरा जैसे ऑनलाइन शिक्षण मंचों द्वारा एक से एक धनुर्धारी गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करवाने का अवसर मिलता है और अपना अंगूठा गुरुदक्षिणा में नहीं देना पड़ता है। यूट्यूब, इंस्टाग्राम, टिकटॉक के द्वारा डाला गया प्रसिद्धि का प्रकाश वलय रातों रात किसी गुमनाम कलाकार को अनजाने हिस्से से उठाकर दुनिया के सामने एक जगमगाता सितारा बनाकर पेश कर देता है। प्रहलाद के होलिका के साथ जलाये जाने के विरोध में इतने ट्वीट और रीट्वीट होते कि हिरण्यकश्यप को अपना निर्णय पलटना पड़ता है। आज इस “सोमी” की ही वजह से दूर दूर देशों में रहने वाले बच्चे आपने माता पिता से सम्पर्क में है। अभी चल रही रूस और यूक्रेन के युद्ध में भारतीय विद्यार्थियों को सही समय पर मदद मिल पा रही है। “सोमी” का ही कमाल है कि यह सरकारी तंत्र पर दबाव बनाने में भी कामयाब हो जाती है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हर चीज की तरह यह भी अपनी एक कीमत के साथ आया है जिसे हम निजता की दीवार में छेद होना कहे या व्यक्ति के अकेलापन। “सोमी” से हमने शायद बहुत अधिक पाया है पर खोया भी है जैसे समय, सच पर विश्वास करने की मनुष्य की नैसर्गिक क्षमता को खोना, स्वास्थ्य, धोखा, बच्चों की मासूमियत आदि।

पर मेरा मानना है कि हम आज बुरे नहीं बने हैं हम पहले से ऐसे ही है, अन्यथा ऐन राज्याभिषेक के पहले कैकयी अपने सौतेलेपन के प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत नहीं करती। पांडवों और कौरवों की बात तो क्या की जाए, स्वर्ग जाते हुए पांचो पांडव और द्रौपदी भी एक साथ अपने देह को त्याग नहीं रहे थे। उसके बाद के किस्से कोई आज से ज्यादा अलग नहीं है, सिर्फ पर्दें में ढके छुपे रहते थे। धोखाधड़ी उस जमाने में भी होती थी, आज उसका प्रकार तकनीक की वजह से ज्यादा मारक हो गया है।

सोमी से हमने पाया ज्यादा है और खोया कम है।

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