1. चूड़ियाँ
“रुक्मि आज तो चलेगी न” गंगी ने खोली का पर्दा हटाकर पूछा।
रात भर की जागी आँखों को उठाकर उसने गंगी की तरफ देखा और धीरे से सर हिला दिया। गोविन्द को गये अभी तीन दिन भी नही हुए थे। दिहाड़ी के काम से देर रात घर आते समय उसकी साईकिल पर क्यों एक बेकाबू ट्रक को प्यार आ गया था, भगवान ही जाने। अभी तक तो उसकी चिता भी ठंडी नही हुई होगी, पर घर का चूल्हा अधिक देर ठंडा नही रह सकता था। अभी तक तो आस पास की खोलियों से उसके लिए खाना आ रहा था, पर दो दिन से ज्यादा अपने पड़ोसी को खाना खिलाने की इच्छा तो महलों में रहने वालों को भी नही होती। ऊपर से उसकी बस्ती में तो किसी की यह हैसियत भी नही थी।
उसकी छोटी सी खोली में तीनों लोकों की दरिद्रता बेफिक्री से पैर पसार कर लेटी हुई थी और बची हुई जगह में दोनों बच्चें सो रहे थे। गोविन्द के रहते उसे कभी भी अपनी गरीबी पर रोना नहीं आया था, उसे लगता था की वह गोविन्द के दिल और घर की महारानी है। अपनी असहाय अवस्था आज उसे पहली बार इतनी तीक्ष्णता से चुभने लगी थी।
वह उठी, मुँह पर पानी के छींटे मारे, पल्लू से मुँह पोछते हुए दरवाजे से लटके हुए शीशे के टुकड़ें में देखकर अपने बाल ठीक किए और आदतन सिंदूर की डिबिया उठा ली। फिर जैसे मानो बिजली के नंगे तार को छू लिया हो, उसी तेजी से उसे वही छोड़कर वह अपनी टोकरी की तरफ़ मुड़ी। टोकरी के आसपास उसकी रानी कलर की चूड़ियों के टुकड़े पड़े थे, जो परसों इसी गंगी ने फोडी थी। गोविन्द कितने चाव से दस दिन पहले ही लाया था।
“अरे, जल्दी चल, औरतें सुबह सुबह नहा धो कर आने लगी होंगी| महाद्वार के पास जगह नहीं मिली तो धंधा क्या ख़ाक होगा” गंगी बाहर से बड़बड़ाई।
टोकरी उठाकर बाहर आई तो उसे देख गंगी बोल पड़ी “अरी तेरे सूने माथे को देख कर सुहागनें देवी माँ के लिए सुहाग की चीजें तुझसे क्यों खरीदेंगी?” यह कहकर अपनी टोकरी से सिंदूर निकाल कर एक बड़ा सा टीका उसके सूने माथे पर बना दिया और उसी की टोकरी से सुहाग की हरी चूड़ियां निकाल कर उसकी दोनों कलाइयों में भर दी।
2. ट्रॉफी
“यार तुम्हें तो पता है कि भाभी ज़रा गरम स्वभाव की है, तुम ही थोड़ा सहन कर लिया करो। एक तो उच्च रक्तदाब की मरीज, ऊपर से पूर्व मंत्री की बेटी और अब इस शहर के सबसे बड़े अधिकारी की पत्नी, उनका तो हक़ बनता है गुस्सा होने का। अब गुस्से में थोड़ा सा आपे से बाहर होकर, जो हाथ में आये फेंकना शुरू कर देती है। ऐसे में तुम ही उनके पास मत जाया करो।”
“भाई, मैं तो उसके पास कम से कम जाता हूँ। अब संक्रांत के पहले दिन माँ खिचड़ी पकाती थी तो मैंने भी महाराज से कह कर खिचड़ी बनवा ली, तो मैडम का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसे तो मेरे रीति- रिवाज मनाने में मेरे गंवईपन का अहसास होने लगता है। बिना सोचे-समझे गरमागरम खिचड़ी का डोंगा हवा में उछाल दिया।”
“और जो सीधा तुम्हारे इस श्रीमुख पर आ गिरा और ढेर सारे फफोले छोड़ गया। मैंने यह मरहम लगा दिया है और यह दवाई भी दे रहा हूँ, इससे यह जल्दी सुख जायेंगे और इनके निशान भी नहीं रहेंगे। बस थोड़े दिनों तक बाहर मत आना जाना।”
“अभी तो मैं सीधा अपने मम्मी-पापा के पास हर साल की तरह तिल गुड़ का प्रसाद लेने जा रहा हूँ।”
“यार मैं तुम्हारा बचपन का दोस्त हूँ। पर आज तक तुम्हें समझ नहीं पाया हूँ। अब जब चेहरे पर इतने बड़े फफोले उभरे पड़े है, तो चाचा-चाची से मिलने जाने की आवश्यकता ही क्या है? अगले सप्ताह चले जाना, मैं वादा करता हूँ कि तब तक एक दाग नहीं रहने दूंगा।”
“तुम तो जानते हो बचपन में मुझे संगीत प्रतियोगिता में भाग लेना होता था और पापा मुझे मैथ्स ओलिंपियाड में जबरन भेजते थे। मुझे फाइन आर्ट्स लेना था पर गणित दिलवा दिया। मैं जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में जाना चाहता था, मुझे पर आईआईटी के लिए दबाव डाला। मैं भी अच्छे बेटे की तरह उनकी हर इच्छा पूरी करता रहा। मैं प्राध्यापक बनकर पढ़ाना चाहता था पर मुझे जबरन भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा दिलवाई गई। मैंने इनको बता दिया था कि मैं आईएएस की कोचिंग में साथ पढ़ने वाली आभा से शादी करना चाहता हूँ भले ही उसका चयन नहीं हुआ है, पर मुझे बधाई देने आये मंत्री जी की बेटी के साथ बांध दिया गया।
“मुझे सब पता है यार”
“तो यह भी पता होगा कि हर बार उनकी इच्छाओं पर खरा उतरने के बाद प्रतियोगिता में मिले प्रमाणपत्र और ट्रॉफी दिखाने सबसे पहले उन्हीं के पास जाता था। तो आज अपने सफल वैवाहिक जीवन का प्रमाणपत्र, अपने चेहरे की यह ट्रॉफी दिखाने कैसे न जाऊँ?”
3. तराजू
दो दोस्तों की हवाई अड्डे पर अपनी अपनी यात्रा की प्रतीक्षा करते हुए मुलाक़ात हुई। एक दूसरे के विवाह आदि में सम्मिलित होने के शुरुआती समय के बाद आज कई बरसों में सुकून से मिल बैठने का मौक़ा मिला था। खाने- पीने के साथ बातों का सिलसिला शुरू हुआ, जो अपनी तरक्की के किस्से, अपने अधिकारियों और पत्नियों की शिकायतों से होते हुए अपने अपने बच्चों पर आकर रुका।
एक ने कहा “मेरा बेटा बहुत ही होशियार है, इसी साल उसका भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली (आईआईटी-दिल्ली) में चयन हो गया है, उसका सपना हैं कि वह जर्मनी जाकर नए-नए डिजाइनों की कारें बनाये।”
दूसरे ने कहा “मेरा बेटा पढ़ने में तो ठीक-ठाक है, पर टेबल टेनिस का राष्ट्रीय स्तर का उभरता सितारा है। देश-विदेश में कई पुरस्कार जीत चुका है। वह कहता है कि उसे भारत की ओर से ओलंपिक में खेलना है।”
एक दूसरे से विदा लेकर अपने-अपने बेटों को फोन करके उन्हें ताने दिए।
4. दाना-दुनका
“सलीम, ये चौराहे पर भीख मांगने वाली बूढ़ी अम्मा के पास ये दो छोटे-छोटे बच्चे कौन है? क्या कहीं से भीख मंगवाने के लिए चुराकर लाई है?”
“नहीं मैडम जी, वह तो इसके पोता और पोती है। इसका नशेड़ी गंजेड़ी बेटा शहर के दूसरे कोने में भीख माँगा करता था। उसकी पत्नी इससे परेशान होकर दोनों बच्चे उसके पास छोड़कर चली गई थी।”
“अच्छा तो वह भी अपनी जिम्मेदारी बूढी माँ पर छोड़कर भाग गया? यह बेचारी खुद तो अपना जैसे-तैसे पेट भरती है, इन दोनों के लिए कहाँ से लाएगी?”
“नहीं, महीना भर पहले वह भी नशे के ओवरडोज़ की वजह से मर गया। तब नगर निगम के लोग इन दोनों को यहाँ छोड़ गए हैं।”
“ओह! अरे पर यह बुर्के वाली औरत इन बच्चों के लिए क्या लेकर आई है।”
“यह इन दोनों के लिए रोज खाना लेकर आती है।”
“मुझे तो लगता है कि यही इन बच्चों की असली माँ होगी, जिसने किसी दूसरे से निकाह कर लिया है, और बच्चों को बेसहारा देखकर खाना देने आ जाती है।”
“नहीं मैडम जी, यह तो मेरी बेगम रज़िया है।”
“अरे! तो क्या तुमने इन बच्चों की माँ से निकाह किया था।”
“नहीं मैडम जी, ऐसा तो फिल्मों में होता है, असल ज़िन्दगी तो अपने अजब ही रंग दिखाती है। रज़िया की सहेली थी, इन बच्चों की माँ। अब हम इनको अपने घर लाकर इनकी जिम्मेदारी तो नहीं न ले सकते थे, पर घोसले में माँ का रास्ता देखते चूजों को दाना तो कोई भी दे सकता हैं न?
“आज ही मैं कुछ एनजीओ वालों से बात करके इन बच्चों के रहने और पढ़ने की व्यवस्था करवाती हूँ। थोड़ा दाना-दुनका तो समाज भी खिला ही सकता है।”
5. जल-समाधि
सब तरफ केवल जल ही जल था, जो धीरे-धीरे उसके पांव से होता हुआ उसकी कमर तक पहुँच रहा था। धरती जल समाधि लेने की तैयारी में थी और अपने ही सलीब को हाथों में थामें डूबने को आतुर थी, मानों उससे भी अब यह सब सहन नहीं हो रहा था। आसमान भी अजीब से काले पक्षियों से भर गया था। उसने अपनी पत्नी शतरूपा का हाथ कसकर पकड़ा और आस-पास देखा। कॉन्क्रीट के जंगल में दूर दूर तक एक भी पेड़ नहीं था, जिसके तने को काटकर एक अदद नाव बन पाती। नई दुनिया बसाने के लिए नाव में साथ किसने रखे देखने के लिए नजर घुमाई तो एक भी पशु-पक्षी-वनस्पति, फूल पत्ते कुछ भी नहीं दिख रहा था। शतरूपा की कलाई पर उसकी पकड़ कसती चली गई।
अचानक से पत्नी ने कहा “मेरा हाथ तो छोड़ो, पार्टी खत्म हो गई है, रात में चैन से सोने तो दो।”
आँखें खोलकर देखा तो सारे घर भर में प्लास्टिक की पन्नियां, गुब्बारे, चमकीले कागजों में लिपटे उपहार, पानी की और ठन्डे की छोटी बड़ी बोतलें बिखरी पड़ी थी। घर में ऊपर से नीचे तक सभी बल्ब, पंखे, एसी अपनी पूरी क्षमता से चले जा रहे थे। फ्रीज़ बड़े से केक, ढेर सारे खाने को आसरा देने के बावजूद अपना दरवाजा खोले खड़ा हुआ था। सामने रखे हुए बड़े-बड़े स्पीकर्स जैसे उन्हीं काले-काले पक्षियों की तरह कोलाहल कर रहे थे।
टिश्यू पेपर से भरे बेसिन से बहता पानी उसके घर भर में धीरे-धीरे फैलने लगा था।
6. नई वर्ण व्यवस्था
“भाई ठाकुर साहब जब से इसकी पदोन्नति हो गई है और यह पूरे कार्यालय का अधिकारी बन गया है, तब से सब पे रौब जमाते रहता है और दिन भर पान की जुगाली करते रहता है।”
“गुप्ता जी तुमको भी तो पता है, जब यह आया था तो सब कैसे इसका मजाक उड़ाया करते थे और केटेगरी, केटेगरी कह के चिढ़ाया करते थे। और हाँ, तुम भी मुझे ये साहब मत कहा करो। काहे का ठाकुर, एजेंसी के पास लगा हूँ तो यहाँ सेक्युरिटी गार्ड का काम मिल गया है। पर ये बताओ बड़े साहब के अर्दली जी, इस समय साहब को चाय पिलाना छोड़कर कहाँ जा रहे हो?”
अरे उस मरे तिवारी को बुलाने जा रहा हूँ, इसने तो पान खा-खाकर पूरी नाली जाम कर दी है, वह आएगा फावड़े से पीछे की नाली साफ करेगा तभी न बेसिन से पानी बाहर जाएगा और मैं चाय के बर्तन धो पाउँगा।
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-नितीन उपाध्ये