डॉ. मधु संधु की लघु कथाओं में स्त्री पात्रों की सामाजिक विडम्बनाओं के प्रति सरोकार

डॉ. नितीन उपाध्ये, यूनिवर्सिटी ऑफ़ मॉडर्न साइंसेज, दुबई

साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में जो घटित होता रहता है, साहित्यकार उसे चुपचाप या मुखरता से देखता रहता है, और उस पर अपनी कलम बड़े ही साहस के साथ चलाकर समाज के सवेंदनशील लोगों को जागृत करके सत्ता और उसके तंत्र में बैठे लोगों को सही निर्णय लेने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही साहित्यकार समाज की आँखें खोलने का काम भी करता है।

भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है, जहां उसकी वर्षों पुरानी परम्पराएं आज भी उसके सामाजिक ढांचें में विध्यमान हैं। उसके साथ ही यह विश्व के उन आधुनिक समाजों में से एक, जहाँ विज्ञान और तकनीकी जीवन के हर पहलु में प्रयोग में लाई जा रही है। पुरातन और नूतन के इस जटिल संगम ने भारतीय समाज को एक अजीब से मोड़ पर ला खड़ा किया है। यही जटिलता विसंगतियों को जन्म देती हैं। यह विसंगतियां हर स्तर पर लोगों को चुभती है, पर वह कुछ कर नहीं पाते। कलाकार लोग जो अति संवेदनशील होते है उन्हें यह चुभन अधिक कचोटती है, और वह अपनी इस छटपटाहट को अपनी कला के द्वारा प्रदर्शित करते हैं। साहित्यकार अपनी कहानियों और कविताओं से समाज में बदलाव लाते आये हैं और लाते रहेंगे। मेरे विचार में किसी भी “लेखन” का कालजयी होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य को कितने सहज, सरल और धारदार तरीके से प्रस्तुत कर रहा है। कोई भी सामयिक विसंगतियाँ कभी भी अनंत काल के लिए नहीं रह सकती। ऐसे परिवर्तन लाने वाले लेख उस विसंगति के ही साथ इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। अगर यह लेखन सिर्फ विसंगति पर केंद्रित न होकर उसके कारणों पर और उसके सार्वभौमिक रूप को उजागर करने वाला होता तो वह निश्चित रूप से कालजयी हो सकता है। ऐसे लेखन दूसरी मिलती-जुलती विसंगति को दूर करने में भी काम में आ सकते है। यह कालजयी लेखन समाज को फिर से उसी विसंगति को फिर से अपनाने से भी रोकता है।

भारतीय साहित्य में नारी का स्थान हमेशा से ही विशेष स्थान रहा है, जो समाज में उनकी स्थिति को दर्शाता है। यह तो सब ही जानते हैं की मनुस्मृति के अनुसार “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” अर्थात देवता भी वहीँ निवास करते हैं जहाँ पर स्त्रियों का सम्मान होता हैं। पर समय के साथ जहाँ आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक ढांचे में फेर-बदल हुआ, उसका सीधा असर स्त्रियों के स्वतन्त्रता पर भी पड़ा। देश के निर्माण में हमेशा से ही स्त्रियॉं का योगदान किसी भी रूप में पुरुषों से काम नहीं रहा, पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण की वजह से उत्तर भारत में स्त्रियां घूँघट और घर की चार दीवारी में सिमट कर रह गई, और यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने उसी दौर में कहा था, जो आज देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी देश के बहुत से हिस्सों में सच लगता है-

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी”

स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों की हालात में तेजी से सुधार आया और इसमें महिला साहित्यकारों का महत्वपूर्ण सहभाग रहा है। सुश्री महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महाश्वेता देवी, शिवानी, अमृता प्रीतम, इस्मत चुगताई और अन्य कई महिला साहित्यकारों ने जो ज्योत जगाई, इस मशाल को आज भी कई महिला साहित्यकार अपने हाथों में लेकर समाज का पथ प्रदर्शन कर रही हैं। “समाज द्वारा स्त्री को निर्बल और असहाय जानकार दोयम दर्जा दिया गया परन्तु आधुनिक युग के आते आते स्त्री की स्थिति सक्षम हो रही है” (1)। आधुनिक काल के साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में नारी के महत्त्व की प्रतिष्ठा की आज की नारी में स्वाभिमान तथा आत्म समर्पण की भावना ही प्रमुख है। उसे आज अपने अधिकारों की चिंता है क्योंकि वह शिक्षित है। “नारी सृष्टि के अनादि -काल से ही मानव हृदय की रागात्मक वृत्तियों का प्रेरणा स्त्रोत रही है” (2)। एक अच्छा रचनाकार वह होता है जो अपने पाठक को कोई सूत्र न दे और उन्हें उनके हिसाब से, उनके अनुभवों के अनुसार कहानी/ कविता के अलग अलग अर्थ निकालने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। डॉ. मधु संधु भी ऐसी ही एक रचनाकार है, जिनकी कई लघुकथाओं (3) में स्त्री की और कामकाजी स्त्री की परिस्थिती का बेहद रोचक ढंग से चित्रण किया गया है। आपकी लघु कथाओं की एक विशेषता यह भी हैं कि हर जगह स्त्री शोषित के रूप में ही चित्रित नहीं की गई है। स्त्री चरित्र सिर्फ काला या सफ़ेद ही नहीं है, वह काले और सफ़ेद के बीच अपना रंग खुद ही तलाश करता रहता है। और यह चरित्र पाठक को यह अधिकार भी देते है कि वह उनके बारे में अपनी कोई राय भी कायम करें। डॉ. मधु संधु जी की कहानियों में सामाजिक विडम्बनाओं को कुछ इस तरह से पाठकों के सामने लाया जाता हैं, कि जिन्हें पढ़कर दर्शक कुछ सोचने पर विवश हो जाता है। यही सोचने की प्रक्रिया सामाजिक सुधार और बदलाव लाने के कारक होते हैं।

आज इस आलेख में हम डॉ. मधु संधु जी की कहानियों में महिला चरित्रों के ऐसे ही कुछ रंगों को देखने और समझने का प्रयास करेंगे। इस शोध के दौरान कहानी में परिवेश को नायक बनाकर मानव मन के अलग अलग भावों को उकेरने का प्रयास किया जाएगा।

“अपंग” कथा की नायिका आज की आधुनिक नारी है, पढ़ी लिखी है, घर परिवार के साथ अपनी नौकरी का बखूबी निर्वहन कर रही है। इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाने में होने वाली कसरत को आसान करने के लिए वह अपने आसपास के लोगों को अपने हिसाब से अपने फायदे के लिए प्रयुक्त करती है। घर में सास हो या विद्यालय में सहकर्मी विनीता राय जिसे वह क्लर्क विकास राय के सहयोग से वह अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती है। पर जैसे हर अच्छी या बुरी बात का अंत होता ही है, उससे यह दोनों सुविधाएँ भी छीन जाती है। उसकी इस ओढ़ी हुई अपंगता का देखकर पाठकों को उसके साथ सहानभूती शायद ही हो। देखने योग्य यह बात है कि इस कथा में दो महिलाओं का भावनात्मक और कार्य के हिसाब से शोषण एक महिला द्वारा ही किया जा रहा था।

“अभिसारिका” कथा किसी रहस्यमयी और रोचक तरीके से प्रारम्भ होती है। पाठकों को उत्सुकता दोनों चरित्रों में जब बढ़ रही होती है तभी नायिका के हाथ में “पोते का लंच बॉक्स” देकर पाठकों द्वारा फुलाये कल्पना के गुब्बारे से मानों सुई चुभोकर ही हवा निकाल दी जाती है। गुलज़ार साहेब ने भी तो कहा है “हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू, हाथ से छु के इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो”। रहस्य रोमांच से प्रणय की तरफ बढ़ती कथा अचानक से करुण रस की तरफ मुड़ जाती है। कथा पढ़ते पढ़ते हिंदी चित्रपट बागबान के अमिताभ और हेमा के चरित्र आँखों के सामने आ जाते है।

इमेज़ एक ऐसी कथा हैं की जिस में सीधे-सीधे तौर पर स्त्री का पत्र दिखाई नहीं देता पर कालगर्ल्ज़ का उल्लेख हमारे समाज पर लगे हुए धब्बे की तरफ आकृष्ट करता हैं। इस कथा का नायक स्त्री का शोषण करने के बाद जब उसके राज़ का पर्दाफाश होता है, तो वही अपने आपको निर्दोष समझता है। उसे स्त्री के दुखों का ज़रा भी अहसास नहीं होता। लेखिका यहां इस पहलू को पाठकों के विचार के लिए छोड़ देती हैं।

रचना “नवीकरण” अपने आप में भारत में तीन पीढ़ियों में महिलाओं उनकी सोच और कार्यशैली के बारे में आये बदलाव को एक नए प्रकार से सामने लाता है। स्वर्गवासी सास की आत्मा की शांति के लिए अन्नदान करने के लिए गई बहू द्वारा भिखारियों में आये सम्पन्नता के लक्षण चौकाने वाले तो हैं ही और उसके ही साथ कैसा हमारा समाज भिक्षा से भीख तक पहुँच गया है, इसका बड़े ही सरल तरीके से दर्शाया गया है । साथ ही मंदिर के पास मिली भिखारी औरत हो या घर आई किशोरी अवस्था की लड़की, जिसने शायद डकैती को भीख का रूप देकर धोखेबाजी के नए रस्ते ईजाद कर लिए है। यह रचना भी सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों आज नारी भी इस तरह के कार्यों में शामिल हो रही हैं। यह भी एक तरह से उनका शोषण किया जा रहा है। कथाकार यहां सिर्फ महिला पत्रों तक ही सीमित न रहकर समाज में आने वाले नकारात्मक बदलाव पर भी बड़ी सटीकता से प्रहार करता हैं।

“फटकार” की नायिका अपने पति के साथ मानसिक और भावनात्मक रूप से खेलने में बड़ी ही सिद्धहस्त दिखाई गई है और यह आज की सच्चाई भी है। कहानी कुछ ही शब्दों में अपने गंतव्य तक पहुँच जाती है और पुरुष पाठको को भी अपनी पत्नी के द्वारा किये गये त्यागों की झलक दे ही जाती है। यह कहानी बड़े ही मीठे तरीके से एक कड़वी सच्चाई हम सबको दे जाती है कि आज भी स्त्री आर्थिक रूप से कोई निर्णय स्वतंत्र रूप से नहीं ले पा रही, भले ही वह स्वयं भी कमा रही हो।

“बिगड़ैल औरत” एक बहुत ही क्रांतिकारी कथा है, जिसमें नायिका अपने ऊपर इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा लगाए गए हर बंधन को तोड़कर एक चंचल नदी की तरह बहना चाहती है। वह अपने आस पास की हर तरह की रुकावट को अपनी दॄढ़ इच्छा-शक्ति से पार करती हुई आगे ही आगे बढ़ती जा रही है। उसके चरित्र में कोई दोष नहीं बताया गया है। वैसे भी चरित्र क्या है? किसी व्यक्ति के सभी गुणों का समावेश, जिसमे ज़िंदादिली भी आती है, स्वयं प्रसन्न रहना और दूसरों को भी प्रसन्न रखना भी इसी का भाग है।  मृदु बातें करना, सबका ध्यान रखना यह सब आपके सद-चरित्र के परिचायक हैं। तो आप मान ले कि आप एक सद-चरित्र व्यक्ति है। एक बात समझ नहीं आती कि अभी भी हम सामंतवादी सोच के साथ क्यों जी रहे हैं? समरथ को नहीं दोष गुसाई या राजा कभी गलती नहीं कर सकता, उसे रोका या टोका नहीं जा सकता। ऐसी विचार धारा से हम कब बाहर आएंगे? उसे रोकने वाला समाज (जिसमें महिलाएं भी शामिल है, सिर्फ पुरुष नहीं) हताश होकर थक हार कर बैठ जाता है। वैसे इस तरह की नायिकाएं हर बंधन से स्वतंत्र होकर भी अपनी जिम्मेदारियों से मुँह नहीं चुराती है।

“वसीयत” कथा की नायिका शुरुवात में तो एक बेबस विधवा माँ दिखती है। जिसमें बड़ा बेटा मौक़ा मिलते ही अपनी मरणासन्न माँ का अंगूठा लगाने में भी गुरेज नहीं करते। “बाजारवाद के बढ़ते क़दमों ने लोगों में धन लिप्सा इस तरह बढ़ा दी हैं की बुजुर्गों ही हत्याएँ भारत में आजकल आम हो गई है”(4)। छोटा बेटा भले ही देरी से आया, पर अगर वह पहले आया होता तो शायद वह भी यही करता। पर इसमें एक चमत्कार सा ही होता है जब माँ शरीर से ही नहीं मन से भी स्वस्थ हो कर घर आती है। वह अब एक निर्णय भी लेती है कि अपनी वसीयत ऐसे तरीके से कर देती है की लालचियों का मुँह हमेशा के लिए बंद कर देती है। एक संदेशप्रद कथा जिसे हर माँ बाप को पढ़ना चाहिए।

“वोटनीति” में दो महिला पात्र है और दोनों ही पुरुषों के हाथों का खिलौना बनकर शायद किसी अन्य महिला के गले को साफ कर रही होती है। कुछ न कहकर भी इन महिला पात्रों की ख़ामोशी काफी कुछ कह जाती है। चाहे वो बस में दूसरों के माल पर हाथ साफ़ करने वाला एक गिरकहट हो या सफेदपोश खाकी कपड़ों में छुपा हुआ नेता जी भोली भाली जनता के विश्वास पर अपना हाथ साफ़ कर रहा होता है। समस्या तो सारी यही है, जो भी करना है वह आम जनता को ही करना है, पर सरकारी तंत्र (जिसमे इसी जनता के चाचा/मामा बैठे है), और बेशर्म नेतागण कुछ नहीं करेंगे। इन कहानी में महिला पात्रों की बेबसी जनता के रूप में झलक ही जाती है।

“शुभचिंतक” कथा हमारे समाज के उस कुरूप चेहरे के सामने से पर्दा हटाकर उसे एक दम से उघाड़कर रख देता है, शायद जिसके लिए हम तैयार नहीं रहते। अकेली महिला और अगर वह विधवा हो तो उसे मानों कटी पतंग ही समझ लिया जाता है, जिसे लपकने के लिए शैतान लोगों के साथ साथ शायद कई बार कुछ सीधे सादे लोग भी अपना हाथ आगे बढ़ा देते है। ऐसी परिस्तिथि से बचना आम तौर पर महिलाएं जन्मजात ही सीखकर आती है, फिर भी यह समाज की जवाबदारी भी होती है कि अपने बीच सभ्यता का मुखोटा ओढ़े हुए जो भी भेड़िये हैं उन्हें समय पर ही चिन्हित किया जा सके और उन्हें उचित सजा दी जाए। वैसे आज की महिला को चाहिए कि ऐसे किसी भी खतरें को भाप कर पहले से ही अपने हितेषियों को आगाह करें, या ऐसे पुरुषों के घर पर जाकर उनका भंडाफोड़ करे। वैसे ऐसी कहानियां समाज की आँखे खोलने का काम भी करती है।

“सती” आधुनिक समाज की वह व्यथा है, जिस में एक स्त्री को दूसरे विवाह को कानूनी मान्यता तो मिल गई है, पर अभी भी समाज और परिवार से इसके लिए मान्यता मिलना इतना आसान नहीं रहा हैसमाज से या परिवार से एक बार अनुमति मिल भी जाए, परन्तु बच्चों खासतौर पर बेटे द्वारा उसके होते हुए घर में किसी दूसरे मर्द की उपस्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस पुरुष प्रधान समाज में किसी भी पुरूष द्वारा दूसरे विवाह को सामाजिक मान्यता बड़ी ही सरलता से मिल जाती है, फिर चाहे पहली पत्नी ज़िंदा हो या उसने उसे छोड़ दिया हो। फिर चाहे पहली पत्नी ज़िंदा हो या उसने उसे छोड़ दिया हो। दूसरी शादी करने वाली स्त्रियों का चरित्र भी अच्छा नहीं समझा जाता। “एक स्त्री को स्त्री होने का सबसे बड़ा खामियाजा घर के अंदर सहन करना पड़ता है”(5)।

निष्कर्ष:
हमने देखा कि कैसे अपनी रचनाओं के माध्यम से रचनाकार समाज में फैली हुई विसंगतियों पर अपनी चिंता को प्रदर्शित करता है और साथ ही सभी उपेक्षित और पीड़ित वर्गों के बारे में भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। डॉ. मधु संधु जी की कहानियों की विशेषता यही है कि सीधे सादे शब्दों में एक वातावरण तैयार कर दिया जाता है और पाठक को यह आभास करा दिया जाता है कि यह सब बातें उसके आस पास ही घटित हो रही है। यह कोई आसान काम नहीं एक कुशल रचनाकार की लेखनी का ही कमाल है ।

सन्दर्भ-सूची

  1. अनुराधा कुमारी “कृष्ण अग्निहोत्री की रचनाओं में नारी सशक्तिकरण” पृष्ठ 239-246, परिशोध (पंजाब विश्वविद्यालय), अंक 66, 2020-2021
  2. कीर्ति भारद्वाज “हिंदी पद्य साहित्य में नारी विमर्श”, अनहद कृति (https://www.anhadkriti.com)सितम्बर 2015
  3. “दीपावली@अस्पताल.कॉम” में संकलित लघु कथाएँ, प्रकाशक -अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
  4. डॉ. अनिता यादव “समकालीन हिंदी साहित्य में अभिव्यक्त उपभोक्तावाद संस्कृति” ई-प्रदीप, अंक 4 वर्ष 1, 2021
  5. पूजा पल्लवी “नारी अस्मिता का संघर्ष – उम्मीदें और चुनौतियाँ ” पृष्ठ- 23-26, शोध ऋतु 19/1 / 1, जन-मार्च-2020

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