घर

घर तो पहले हुआ करते थे
अब तो बस पत्थरों के मकान रह गए हैं

एक अकेले कमरे में जहाँ
ना तेरा था ना मेरा था
सब कुछ जिसमें अपना था
वो प्यारा रैन बसेरा था
दिल, एहसास जाने कहाँ गए
अब तो बस रोबोट से इंसान रह गए हैं
घर तो …..

खेल खेल में छतें टापते
जहाँ पहुँचे, वहाँ खा लिया
डाँट भी जम के पड़ी
प्यार भी ढेरों पा लिया
अन्नपूर्णा के भाव जाने कहाँ गए
अब गिनती की रोटी के कटोरदान रह गए है
घर तो ……

जून में दिसम्बर की नहीं
बस क़ुल्फ़ी की चाहत थी
और दिसम्बर में जून नही
गर्म अंगीठी से उल्फ़त थी
जी भर जीने के दिन जाने कहाँ गए
आज में कल को तरसते अरमान रह गए है
घर
तो ……

*****

-मीनाक्षी गोयल नायर

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