जल रही हूँ

तप रही हूँ, जल रही हूँ
रूह तक पिघल रही हूँ

सागर की अनगिनत नदियाँ
नदी का बस इक समंदर,
यही है मेरा मुक़द्दर
इसी जल में जल रही हूँ ।

मैं शमा, शब भर जल कर
अपना सब कुछ हूँ लुटाती
देख पतंगो की बेवफ़ाई
जल जल कर जल रही हूँ ।

जिस धरा के आँचल में मैं
बन के हूँ हिमखंड रहती
आग बन कर उसी कोख में
हर एक पल मैं पल रही हूँ ।

एक दिन मैं ऐसी बदली
उड़ गयी बन गयी बदली
पर देख धरती की बेचैनी
मैं जल में बदल रही हूँ ।

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-मीनाक्षी गोयल नायर

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