सीता-लक्ष्मण संवाद
सौमित्र तुम्हे हैं धन्यवाद वन निर्जन में पहुंचाते हो
मेरी नियती के लेखे को पढने से क्यूँ सकुचाते हो
राजाज्ञा पालन करने में लक्ष्मण व्यर्थ मत करों शोक
अपनी गति बहता काल प्रवाह, कोई इसको न सके रोक
नही राम राम, हैं राजा राम, वह कोटी कोटी मन की आशा
हो जनहित ही आदर्श जहाँ, वहाँ निजता की क्या परिभाषा
राज धर्म का पालन करने में जो भी जीता हैं, वो हारा
प्रियजन से कर दे एकाकी, इस राजसिहाँसन की कारा
क्यूँ राम सिया का त्याग किया ऐसे प्रश्नों का छोर नही
तज सकते हैं मेरे स्वामी, मेरे प्रभु इतने कठोर नही
जो राम मुझे धारे रहते लोकोपवाद को ठुकराकर
मेरी पवित्रता पर युगों युगों तक उठते रहते प्रश्न स्वर
रो-रोकर सारे जग ने, देखी सीता की अग्निपरिक्षा
सर्वोपरि हैं जन-वाणी यही राम राज्य की हैं शिक्षा
निज सुख दुःख के भी चहुँ ओर खींचे जो लक्ष्मण रेखा
कर्तव्य पूर्ति का शर बिंधा मैने वो राघव का मन देखा
मेरा ही मान बढ़ा इससे यह बात न मुझसे कह पाये
महिजा हूँ सो मैं समझी हूँ यह दुख वो कैसे सह पाये
नही मृत्यु अभीष्ट, मेरे अंदर पल रहा रघुवंश का अंकुर
हैं सिया राम के साथ सदा, और राम सिया से नही दूर
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-नितीन उपाध्ये