मन मंथन
सोचता हूं मन में मेरे जाने क्या क्या चल रहा है,
आग जैसे बह रही है, पानी जैसे जल रहा है
मेरे अन्दर एक जंगल जाने कब से बस रहा है
सुप्त दावानल का लावा खौलता बरबस रहा है
मिटटी का तन, शीशे सा मन फौलादों में ढल रहा है
आग जैसे बह रही है, पानी जैसे जल रहा है
पर्वतों से निकली धारा, काटती जाती उसे है
धूल जो निकली कुँए से, पाटती जाती उसे हैं
मेरा साया मुझसे कहता तू मुझी को खल रहा है
आग जैसे बह रही हो, पानी जैसे जल रहा है
उन्मुक्त था जो मन पखेरू, कैद करती लांछनाएँ
आत्मना के हिम शिखर पर, जम रही हैं वंचनाएँ
स्वनामधन्यता का मेरू, आज तिल-तिल गल रहा है
आग जैसे बह रही हो, पानी जैसे जल रहा है
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-नितीन उपाध्ये