चला आया हूँ
चला आया हूँ, उस दौर को छोड़कर,
उस खेल को छोड़कर, उस छाँव को छोड़कर।
आ गया हूँ, कहाँ, पूछता हूँ खुद से,
जाना कहाँ है, ये भी नहीं है पता।
इक उलझन सी है, छायी दिल-दिमाग में।
कि है इक दुविधा, खड़ा हूँ यहाँ,
इस के किनारे!
जाना चाहता हूँ, आगे, भूलकर इसे,
पर इक स्मृति सी है छायी,
दिलाती है कुछ याद!
धुंधली पड़ती यादों के बीच
खड़ा हूँ यहाँ,
इस के किनारे!
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-सूर्य प्रताप सिंह