प्रवासी आभास 

ख़्बाव आजकल रातों में खूब डराते हैं
बर्फ़ की चादर है और हम सर्द हो जाते है
दूर तलक चुप्पी है सन्नाटा है सफ़ेद चादर का
सपने है कि
बस ख़ामोशी से बतियाते हैं
स्याह काग़ज़ों में उलझी जिन्दगी
इस देश में सफ़ेद बर्फ़ सी है
ठंडे सफ़ेद शहर में
रिश्तों के सच रूलाते हैं
कैसे तोड़े हम
फासलों के सख़्त पहरे को
कोई तो सुबह गुनगुनाये
कोई तो चुप्पी को तोड़
नेह का द्वार खटखटाये
ख़ामोशी और जमा हुआ शहर
कोई तो पाती दूर देश से आए

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– अनीता वर्मा

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