रोजी
-अरुणा सब्बरवाल
आज रोजी बड़े अनमने मन से अपना सामान बाँध रही थी, यद्यपि जोयस और जॉन ने रोजी को गोद लेने के पश्चात् उसके लालन-पालन में कोई कमी नहीं छोड़ी थी, फिर भी न जाने क्यों रोजी को जोयस और जॉन का घर छोड़ने में अजीब-सी मिश्रित भावनाओं का अहसास हो रहा था। एक तरफ उसे जोयस और जॉन का घर छोड़ने का दुःख, दूसरी ओर स्वयं का घर बसाने की खुशी। उसका सपना पूरा होने जा रहा था। जिसे कई वर्षों से देखती आई थी। सामान बाँधते-बाँधते मन ही मन में सोच रही थी कि कैसे वह सजाएगी अपने घर को? कौन-सी कलर स्कीम इस्तेमाल करेगी? बेबी की नर्सरी किस रंग की होगी? बेबी का लिंग तो उसने जानने से इनकार कर दिया था। उसे पूरा विश्वास था कि उसके बेटी ही होगी। चाहती भी यही थी।
रोजी अपने खयालों में ही आने वाले बच्चे की नर्सरी सजाने लगी। सोच रही थी दीवारें तो बेबी पिंक होंगी और फर्नीचर सफेद शुद्धता का प्रतीक। बच्चे का पालन-पोषण मैं स्वयं अपने ही ढंग से करूँगी। बिना किसी के सहयोग से। एक भी क्षण के लिए मैं बच्चे को अपने से दूर नहीं जाने दूँगी, शायद पिछले कई वर्षों से उसे इसी अपनत्व की तलाश थी, जिसका अहसास अभी तक न हो पाया था।
रोजी का सामान अधिक न था। कुल मिलाकर करीब बीस गत्ते के डिब्बे होंगे। स्वयं के कपड़े, बहुत-सी किताबें, कुछ व्यक्तिगत लटरम-पटरम, जो अकसर लड़कियों का होता है। रसोई का सामान, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन, पलंग, सोफा इत्यादि। जोयस और जॉन ने उसके नए घर को तोहफे के रूप में दिया। बड़ा-बड़ा सामान तो सीधे रोजी के मानचेस्टर (यू.के.) के फ्लैट में डिलिवर होने वाला था। रोजी अपने नए घर को लेकर बहुत उत्साहित थी। नए बच्चे के आने में अभी चार सप्ताह बाकी थे।
बच्चे के बारे में सोचकर उसकी आँखों में खुशी के साथ-साथ कभी-कभी कुछ परेशानी भी झलकती थी। उसे क्षण-क्षण यही चिंता सताए रहती कि क्या वह बच्चे को सँभाल सकेगी? क्या वह एक आदर्श ‘माँ’ बन सकेगी? क्या वह अपने बच्चे को पूर्ण रूप से ममत्वमय संरक्षण से बाँध सकेगी, जिसके लिए वह तरसती रही है? उसे यही एक धुन खाए जा रही थी। ‘कहीं यह बच्चा उससे छीन तो नहीं लिया जाएगा?’ जब, कभी वह प्री-नेटल क्लीनिक में व्यायाम के लिए जाती, दूसरी गर्भवती महिलाओं को बड़े प्यार से अपने उभरे हुए पेट को सहलाते देख कर सोचती क्या कभी मेरे भीतर पल रहे बच्चे के प्रति मेरे मन में भी ममता के भाव उमड़ेंगे या नहीं। उसके मन में यह एक भयानक सा डर बैठ गया था जो उसे पल-पल सताए जा रहा था। एक ऐसा अंतरद्वंद्व जो कि जैसे-जैसे समय निकट आ रहा था; वैसे-वैसे रोजी सवालों के भँवर में उलझती जा रही थी।
आखिर, वह दिन आ ही गया। आज फर्नीचर की डिलिवरी होनी थी जोयस और रोजी दोनों सुबह नौ बजे फ्लैट पर पहुँच गए। एक छोटा-सा काउंसिल फ्लैट था उसमें सोने के दो छोटे कमरे, एक बैठक, एक रसोई, एक गुसलखाना, एक छोटी-सी बालकोनी। पूरे फ्लैट का नक्शा ओपन प्लान था। जोयस तथा रोजी दोनों ने मिलकर फ्लैट की सफाई की। जोयस ने भारी काम की जिम्मेदारी ले ली और रोजी ने ऊपर के हलके-फुल्के काम की। देखते-देखते वह छोटा-सा फ्लैट रोजी का एक खूबसूरत घर बन गया।
शाम के छह बजने वाले थे, जॉन के घर आने का समय हो गया था। जोयस तो अपने घर चली गई। रोजी ने वहीं फ्लैट में रुकने का फैसला किया। उस रात रोजी एक छोटे से शिशु की भाँति बेखबर बेसुध सोई। सुबह उठते ही रोजी ने सारे फ्लैट की खिड़कियाँ खोल दीं। मौसम बहुत सुहावना था। खिड़कियों से सूरज की किरणें अंदर झाँक रहीं थीं। मंद-मंद शीतल पवन मन को शांति तथा शरीर को ऊर्जा प्रदान कर रही थी। रोजी ने चैन की एक गहरी साँस ली। क्योंकि जोयस की सहायता से थोड़े ही दिनों में सारा घर का सामान अपना-अपना स्थान ग्रहण कर चुका था। जॉन ने आकर उसमें पेंट भी कर दिया था। लगभग रोजी का पूरा फ्लैट रहने के लिए तैयार था। बस, अब नए बच्चे की प्रतीक्षा थी। वह सुबह जल्दी उठी। रोजी ने बालकोनी में जाकर एक ठंडी साँस एवं खुलकर लंबी-सी अँगड़ाई ली। उसे अहसास हो रहा था कि आज मैं बिल्कुल स्वतंत्र हूँ।
पिछले अठारह वर्षों से रोजी जोयस और जॉन के घर में प्रसन्न थी। जोयस ने रोजी को कभी किसी भी प्रकार के अभाव का अहसास नहीं होने दिया था। रोजी को घर लाते ही जोयस ने नर्सिंग का काम छोड़ दिया था। रोजी की, किसी भी आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह कभी भी नहीं हिचकिचाए, वे दोनों। फिर क्यों? क्यों वह फड़फड़ा रही थी आजादी के लिए? फिर सोचती, ऐसा क्यों सोच रही हूँ मैं? मुझे आजादी नहीं मेरा बच्चा चाहिए उसके लिए सुरक्षित घर चाहिए, अभी तो बच्चा पैदा भी नहीं हुआ है, फिर क्यों असुरक्षित भावनाओं ने उसे चारों ओर से घेर रखा था? यहाँ तक कि उसने बच्चे के पिता तक को नहीं बताया। बताना भी नहीं चाहती थी। क्योंकि रोजी को अपने बच्चे को किसी से बाँटने की सोच से ही उसका दिल दहल जाता था। उसने मन में सोच लिया था कि यह बच्चा मेरा ही होगा। सिर्फ मेरा ही नाम उसके संग लगेगा।
डिलिवरी को बस अभी कुछ ही दिन रहते थे। अगले दिन जोयस एक बड़ा-सा फूलों का गुलदस्ता लेकर रोजी के फ्लैट पर पहुँची, जैसा कि यू.के. में चलन है। रोजी ने फूलों को पानी के भरे गुलदस्ते में सजाकर एक बनावटी खोखले चुंबन के साथ कहा, “बैंक यू जोयस’ फोर दीज लवली फ्लावर।” दोनों माँ-बेटी ने थोड़ा काम और थोड़ी बातें कीं, फिर दोनों बैठकर चाय पीने लगीं। शाम होते ही जोयस अपने घर को चल दी। “रोजी, फिर मिलते हैं, जरूरत पड़ने पर जरूर फोन करवा देना, हिचकिचाना मत, तुम्हें तो पता है कि मैं सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हूँ। मैं यहाँ तुरंत पहुँच जाऊँगी। बाकी काम कल करेंगे।”
जोयस के चले जाने के पश्चात् रोजी ने अपनी जरूरतों की अहमियत को देखते हुए उसी हिसाब से अपना सामान टिकाना आरंभ कर दिया। बिस्तर तो जोयस बनवा रही थी। सबसे पहले उसने रसोई का सामान टिकाया, केतली, टोस्टर, माइक्रोवेव, चाय, चीनी इत्यादि। उसने सब पहले ही कैलकुलेट और प्लान कर लिया था कि रोज के तीन-चार डिब्बों से अधिक डिब्बे नहीं टिकाएगी। जोयस लगभग हर रोज आ जाती थी। किताबें बुक शैल्फ पर टिका दीं। कुछ बच गई थीं। जोयस ने रोजी की बचपन से लेकर डिग्री तक की सभी किताबें सँभाल कर रखी थीं। जब काम करते-करते थोड़ी थकान होती तो वह बैठ जाती थी। वह पूरी सावधानी से काम कर रही थी। अब तो महज तीन-चार दिन की ही बात थी। आज उस डिब्बे की बारी आई जो जोयस ने अठारह वर्ष पहले उसे घर आने पर दिया। रोजी ने उस डिब्बे पर एक बार नजर डाली और उसे दूसरी तरफ धकेल दिया। रोजी उस डिब्बे की झलक भी नहीं देखना चाहती थी। उस डिब्बे को अपने जीवन से निकाल कर, फेंक देने के पश्चात् भी उस डिब्बे का संदर्भ रोजी के मस्तिष्क में जहरीले प्रश्नों के तूफान लाकर उसे शिथिल कर देते थे। रोजी आराम करने के लिए लेट गई।
आज रोजी को अनजान-सी पीड़ा का अहसास हो रहा था। जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। प्रसव पीड़ा के बारे में रोजी ने सुना तो था; पर, अहसास न था। पहला बच्चा जो था। उसने जोयस को टेलीफोन किया–जोयस अब तुम्हारे आने का समय हो गया है।
“दर्द कितनी-कितनी देर के बाद हो रहा है?”
“यही बीस-बीस मिनट के अंतराल में।”
“रोजी, प्लीज जस्ट रिलैक्स, जब दर्द दस-दस मिनट बाद होगा, तो मुझे फोन करना। वह दर्द पीछे-पीछे से आगे पेट की तरफ आएगा। अच्छा फोन रखती हूँ।” इतना कह, जोयस की आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं, आज तक न जाने, मैटरनिटी नर्स होने के नाते कितने बच्चों को इस संसार में ला चुकी थी पर अभागन स्वयं उस मीठे दर्द को न भोग पाई। इतने में फोन की घंटी ने उसके विचारों की श्रृंखला तोड़ी।
“हैलो जोयस, मैं तैयार हूँ,” जोयस तुरंत एंबुलेंस को फोन कर रोजी के घर पहुँची। जाँच के पश्चात् डॉक्टरों ने बताया कि बच्चा उल्टा है…।
जोयस चिंतित थी, रोजी दर्द से कराहें भरती जा रही थी। नर्सों ने आश्वासन दिया कि पहले बच्चे को अकसर अधिक समय लगता है। समय बढ़ता जा रहा था। आस-पास की औरतों की चीखों से रोजी की घबराहट और भी बढ़ती जा रही थी। वह भी दबी-दबी आवाज में ‘हाय माँ…हाय माँ’ किए जा रही थी। पूरे चौबीस घंटे बीत चुके थे, बच्चा अभी तक अपनी सही जगह पर नहीं आया था। सीजेरियन के लिए दोनों माँ-बेटी तैयार नहीं थीं। डॉक्टरों ने रोजी को एंडयूज कर बच्चे को घुमाया, इसलिए बेबी ‘लिजी’ को पैदा होने में छत्तीस घंटे लग गए। नर्स ने बच्चे को रोजी की ओर बढ़ाया। रोजी ने बिना देखे हाथ पीछे खींच, मुँह मोड़ लिया। वह बच्ची के करीब नहीं आना चाहती थी। दो दिन तक उसने बच्ची को छुआ तक नहीं। आज वह ‘बेबी लिजी’ के पालने के पास खड़ी उसे निहारती रही। धीरे-धीरे उसने बेबी की नन्हीं-नन्हीं उँगलियों को छूने के लिए जैसे ही अपना हाथ बढ़ाया, वैसे ही पीछे खींच लिया। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसके बालों को छू कर, अपने हाथ की पहली अंगुली से उसके गाल सहलाने की हिम्मत जुटाने लगी। घर जाते समय एक बार फिर नर्स ने “बेबी लिजी” को रोजी की ओर बढ़ाया। रोजी ने एक बार फिर अनदेखा कर दिया।
जोयस तथा नर्सिंग स्टाफ उसके इस व्यवहार से चिंतित थे। सब हैरान थे। रोजी के मन में अभी तक ममता के अंकुर क्यों नहीं फूट रहे? क्यों नहीं उसके मन में ममत्व तथा स्नेह की लहर उमड़ रही? कौन-सा ऐसा डर है उसके मन में? न जाने रोजी बेबी लिजी का पालन-पोषण भली-भाँति कर भी सकेगी या नहीं। जोयस को यही चिंता खाए जा रही थी।
रोजी तथा बेबी लिजी के घर पहुँचते ही एक सप्ताह तक हेल्थ विजिटर रोजी के घर प्रतिदिन आती रही। उसे दिखाने के लिए कि कैसे बच्चे को नहलाना है, कैसे दूध पिलाना है, कैसे डाइपर बदलना है इत्यादि।
आज फिर जोयस ने घर जाने से पहले रोजी को अप्रत्यक्ष रूप से एलिजाबेथ को फोन करने का संकेत दिया। रोजी ने उसे अनसुना कर दिया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, आहिस्ता-आहिस्ता रोजी ने लिजी बेबी को छूना और कभी-कभी उठाना भी शुरू कर दिया; दूध तो बोतल का ही पिलाती रही। धीरे-धीरे बर्फ-सी जमी ममत्व की भावनाएँ लिजी बेबी के शरीर की गरमाहट से पिघलने लगीं। अब तो कभी-कभी उसने लिजी बेबी को अपने संग अपने ही बिस्तर पर अपने साथ ही लिटाना शुरू कर दिया। प्यार से मालिश करती, उसे नहलाती, उसको सुंदर-सुंदर कपड़े पहनाती। अभी तो लिजी बेबी ने खेलना भी आरंभ नहीं किया था कि रोजी ने उसका कमरा खिलौनों से भर दिया।
आज पहली बार रोजी ने बेबी लिजी को अपनी छाती से लगा कर दूध पिलाया। उसके ब्लाउज का एक कोना उस नन्हीं सी मुट्ठी में बंध गया। उस मुट्ठी में बंधे छोर के साथ, रोजी के मन का कोई कोना अटक गया था। उसे रोजी ने पालने में डालने की कोशिश की। आसानी से छुड़ा न पाई। आज रोजी का अंतर्मन ममता की मोठी फुहार से भीगने लगा। उसके अंतःकरण के सभी सूखे स्रोत ममत्व के मधुर रस में डूब गए। प्यार से उसके मुँह से निकला ‘माँ’ तेरी, मेरी साँसें एक ही लय सुर, ताल में चल रही हैं। तेरे खून का रंग तेरी गरमाहट मेरे खून में है। तेरे ही खून से बनी हूँ मैं, तेरे ही जिगर का टुकड़ा हूँ मैं। कितना कठिन हुआ होगा तेरे लिए मुझसे जुदा होना?
रोजी मन ही मन सोचती रही जोयस ने मेरी हर जरूरत का ध्यान रखा। हर इच्छा को पूर्ण किया। मुझे अपने जीवन के अठारह वर्ष दिए। मैं उसकी ममता की गरमाहट को क्यों नहीं महसूस कर सकी? तू ही बता क्या दोष है मेरा? उसे तो मेरी ‘माँ’ बनाया गया था। वह लिजी बेबी को छाती से लगाए सुबक-सुबक कर सो गई। उठते ही वह उसी डिब्बे को ढूँढ़ने लगी जो जोयस ने उसे अठारह वर्ष पहले दिया था। जिस दिन जोयस रोजी की अँगुली पकड़ कर उसे अपने घर लाई थी। रोजी ने कौंपते हाथों से डिब्बा खोला। उसे खोलते ही वही चीजें ढूँढ़ने लगी, जिन्हें ढूँढ़ने का आज तक उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। डिब्बे में एक और पैकेट था। काँपते हाथों से उसने वह पैकेट खोला। उस पैकेट में से निकला एक गुलाबी रंग का, घिसा-छिदा कंबल, जिसका एक-एक छेद रोजी के अतीत की कहानी कह रहा था। एक घिसी-पिटी रैग डॉल जो उसका इतिहास बता रही थी। तीन-चार नर्सरी स्कूल की पेंटिंग, जो उसने उस समय, अपने पूरे परिवार की बनाई थीं। एक मदर्स डे कार्ड, जिस पर लिखा था ‘टू माई मम एलिजाबेथ,’ जो उसने स्कूल में बनाया था, जब वह चार साल की थी।
धीरे-धीरे धुँधला-धुँधला अतीत उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। कैसे घर में सबसे छोटी होने के कारण, आज की तुलना में वह कहीं अधिक चंचल थी। बचपन में अड़ोसी-पड़ोसियों के घरों में गुड़िया-सी फुदकती किसी भी दरवाजे से बेधड़क, बेरोक-टोक घुस जाती। कितनी जिद्दी थी वह? मनचाही वस्तु न मिलने पर कैसे वह पैर पटक-पटक कर अपना क्रोध व्यक्त करती। गुस्से में कभी-कभी तो बाजार में जमीन पर बैठ गला फाड़-फाड़ रोती, पैर पटकती थी। चॉकलेट औ’ लॉलीपोप की तो उसे कोई कमी न थी। घर में सबसे छोटी जो थी। जो भी घर मेहमान आता उसके लिए चॉकलेट या फिर तोहफा जरूर लाता। शायद इसीलिए उसके दांतों को जल्दी ही कीड़ा लग गया था। इतने समय पश्चात् मिट्टी-गारे मलबे में दफनाई यादें उभरती आईं।
रोजी टकटकी लगाए उस घिसे-छिदे कंबल को देखती रही। सोचती रही कि हजारों बार मेरी माँ ने इस कंबल को अपने हाथों से मेरे शरीर पर डाला हो कभी कंबल को उठाकर सूँघती, सहलाती, उसमें अपनी माँ की सुगंध उसके स्पर्श को ढूँढ़ने का प्रयास कर रही थी। अपनी माँ के प्रति उठे प्रेम से ओत-प्रोत हो गई। रोजी उस कंबल, गुड़िया तथा समस्त यादों को अपने सीने से लगा कर बड़बड़ाए जा रही थी। ‘माँ’ तू ने कितनी बार छूआ होगा इस गुड़िया को, कंबल को, अभी तक तुम्हारी खुशबू आ रही है इनमें से। उसकी आँखों का झरना बहता जा रहा था। वह उन्हीं पन्नों को ढूँढ़ रही थी, जिन्होंने रोजी को उसकी जड़ों से उखाड़ कर उसे एक ‘वस्तु’ समझ कर कहीं और टिका दिया था। कँपकँपाते हाथों से एक-एक करके उन पत्रों को खोलते जा रही थी। अंत में रोजी को वह पत्र मिल ही गया जिसकी उसे तलाश थी
उसने बड़ी हिम्मत बटोर, छाती पर क्रॉस बना जीसस से प्रार्थना की कि ऐ लॉर्ड जीसस ! मुझे शक्ति देना, एक गहरी साँस लेकर, उसने टेलीफोन नंबर घुमाया…।
“हैलो”… आवाज आई।
“यह मानचेस्टर अडोप्शन एजेंसी है क्या?”
“येस इट इज”…
“क्या यहाँ पर अठारह मार्च उन्नीस सौ पचासी को एक बच्ची, रोजी का अडोप्शन हुआ था?”
“होल्ड ऑन लैट मी हैव ए लुक’, कुछ क्षण पश्चात उत्तर मिला “यस इनडीड, गो अहेड।” गहरी साँस लेकर उसने कहा। “कैन यू प्लीज टैल एलिजाबैथ विलियम्स, कि अब वह बेबी लिजी की नानी बन गई है। उसकी नातिन का नाम भी एलिजाबेथ है लिजी बेबी।”
रोजी के मन में माँ के प्रति दबे प्यार में हरकतें आने लगीं, वह फूट-फूट कर, रो-रोकर कह रही थी। मुझे माफ कर देना “मेरी माँ! माँ!! कितना रोई होगी तू कभी?”
*****