परदेस में पतझड़
–अरुणा सब्बरवाल
वह भी अकेला बैठा था। बिलकुल अकेला, सिकुड़ा सा। वहीं, जहाँ वो अक्सर बैठा करता है। उसी सार्वजनिक बैंच पर। जो मॉरीसन सुपरमार्केट के राउंड अबाउट के पास था। वहीं बैठे-बैठे आते-जाते लोगों को निहारता रहता। उसे देखते ही जया के मन में अनेकों प्रश्न उठने लगते, कौन है? कहाँ रहता है? एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे बैंच पर बैठ कर ही पूरा दिन बिता देता है। बैंच नहीं तो एक दुकान से दूसरी दुकान पर विंडो शॉपिंग करता दिखाई देता है। लावारिस तो लगता नहीं। कपड़े तो साफ़ सुथरे पहने होते हैं। बीमार भी नहीं लगता। क्या इसको यहाँ-वहाँ बैठने के अतिरिक्त कोई काम नहीं? फिर खुद ही सवाल-जवाब करने लगती है। लगता तो अच्छे घर का है, हो सकता है कोई मजबूरी हो? या फिर पत्नी की मृत्यु हो गयी हो या फिर बहू का व्यवहार इनके साथ ठीक न हो? हो सकता है, उसे एकांत पसंद हो। सदा खोया-खोया सा उदास ही दिखता है। हाँ उसके पास एक कपड़े का थैला ज़रूर होता है, जिसमें पानी की बोतल और एक छाता, क्योंकि लंदन में मौसम का कोई भरोसा नहीं, बारिश की संभावना सदा लगी रहती है।
उसका अर्थहीन, दिशाहीन घंटों इधर-उधर अकेले बैठे रहना देख कर, जया की जिज्ञासा बढ़ने लगी। पल भर को उसका मन तो किया कि उनसे बात करे, फिर न जाने क्या सोच कर आगे बढ़ गयी। जैसे ही वह शॉपिंग करके सुपरमार्केट से निकली, बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। सामने बैंच पर वो सज्जन बैठे थे। शायद सोच रहे होंगे, इतनी बारिश में घर वापस कैसे जाऊँगा। जया को यह तो अनुमान हो चुका था कि वह यहीं-कहीं उसके घर के आस-पास ही रहते हैं, क्योंकि वह कई बार उन्हें इधर-उधर डोलते हुए देख चुकी थी। क्षण भर को उसका मन तो किया उनसे पूछने का, कि क्या वह उन्हें कार में घर छोड़ सकती हूँ, फिर यही सोच कर छोड़ दिया, कि क्या सोचेंगे। आज-कल हालत ही कुछ ऐसे हैं कि आप चाह कर भी किसी की सहायता नहीं कर सकते। इसे भारतीय समाज का दकियानूसीपन मान लो या फिर संकुचित विचार, यही सोच कर उसने विचार छोड़ दिया। यूँ कहो उसकी हिम्मत ही नहीं हुई।
अपनी हरकत से शर्मिन्दा, जया घर तो पहुँच गयी, दिन भर उसका मन अशांत रहा। कभी ख़ुद को, कभी समाज को कोसती रही। क्यूँ समाज के भय से विरासत में मिले संस्कारों का निर्वाह नहीं कर पा रही। वह भी तो इंसान है? कैसे पैदल चल कर जाएँगे इतनी बारिश में? रात भर स्वयं को कोसते-कोसते न जाने कब उसकी आँख लग गयी। सुबह उठते ही उसने पर्दे हटा कर खिड़की से झाँका, कुरमुरी सुबह थी, कहीं-कहीं धूप के टुकड़े खिड़की से झाँक रहे थे। धूप को देखते ही उसका मन खिल उठा, उसमें एक नई स्फूर्ति का संचार होने लगा। आज उसने ठान लिया था कि अब वह समाज के प्रत्यक्ष विरासत में मिले संस्कारों को झुकने नहीं देगी। उन सज्जन का बैच पर बैठे रहना, एक स्टोर से दूसरे स्टोर में नाहक चक्कर लगाने का सिलसिला चलता रहा। कुछ दिन से जया का उनसे आमने-सामने टकराव नहीं हो पाया था, जिसकी उसे प्रतीक्षा थी। कुछ दिन बीत गये, सुबह का समय था जया अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने गयी, वो भी वहीं खड़े थे। उस दिन पहली बार जया ने उन्हें क़रीब से देखा। वो भी किसी बच्चे को स्कूल छोड़ने आए थे। जया सोच ही रही थी, कि अचानक नमस्ते शब्द ने उसे चोंका दिया। उसने मुड़ कर देखा, वही सज्जन खड़े थे। जया ने भी मुस्कुराते हुए नमस्ते का उत्तर दिया।
‘आप हिंदी बोलती हैं’…..?
‘जी’ इतना सुनते ही उनके चेहरे पर ख़ुशी की एक लहर दौड़ गयी।
वह दोनो बातें करते-करते अपने घर की ओर चल दिए। अंकल जी जया के घर से अगले ब्लाक में ही रहते थे । किसी हिंदी भाषी से मिलकर उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। घर पहुँचते-पहुँचते रास्ते में उन्होंने अपने बारे में बहुत कुछ बता दिया। उनका नाम तो मिस्टर कामत है। मुंबई से आए हैं। अभी-अभी रिटायर्ड हुए हैं।
बेटे को उनकी ज़रूरत थी, इसलिये यहाँ हैं। लोगों से बातचीत की समस्या है। अंग्रेज़ी पढ़ लेता हूँ किंतु बोलने से झिझकता हूँ। विशेष रूप से अंग्रेज़ों की अंग्रेज़ी समझने और बोलने में असमर्थ हूँ। इसलिए साहस भी नहीं जुटा पाता। अंग्रेज़ी के कारण अपने पोते कर्ण के होम-वर्क में भी मदद नहीं कर सकता। शिक्षा प्रणाली में भी बहुत अंतर हैं। गणित का होम वर्क करवा देता हूँ। उसे मेरी और मुझे उसकी भाषा बोलने का लहजा समझ नहीं आता। भाषा हमारे बीच एक स्टम्ब्लिंग ब्लॉक बन गयी है। टेलिविज़न भी कितना देख सकता हूँ। टेलिविज़न में भी तो अंग्रेज़ी ही बोलते हैं। इंडियन चैनल बेटे ने लिए नहीं हैं, कहता है हमारे पास देखने का समय ही नहीं है। घर का काम करने का आदी नहीं हूँ। मशीनों से डर लगता है। समय का सदुपयोग करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ। अपने को बेकार समझता हूँ। ख़ुद से ग्लानि होने लगी है। मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा है। ख़ुद को अपाहिज समझने लगा हूँ। वह उत्तेजना में एक ही साँस में सब कुछ बोल गये। उनकी बेबसी ने सोच की पूड़ीया, जया के मस्तिष्क में रख दी। जया ने उन्हें अश्वासन देते हुए कहा
‘धीरज रखिए अंकल जी धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा’।
सदा की भाँति, शुक्रवार को घर की साप्ताहिक ग्रोसरीज़ ले कर जया सुपरमार्केट से घर आ ही रही थी। चौराहे पर अंकल जी बैंच पर बैठे नींद के झोंके ले रहे थे। जया ने पास जा कर कहा ‘अंकल जी’ वह हड़बड़ा कर बोले ‘माफ़ करना बस यूँ ही आँख लग गयी थी’।
‘लगता है रात को नींद पूरी नहीं हुई’?
‘बेटा यह तो रोज़ का ही सिलसिला है। एक बेडरूम का फ़्लैट है। बेडरूम में बेटा, बहु और पोता सो जाते हैं। मेरा बिस्तर बैठक का सोफ़ा है। टी-वी के कारण जल्दी सो भी नहीं सकता। बच्चे देर तक टी-वी देखते हैं। फिर सुबह छः बजे सब उठ जाते हैं, उन्हें सात बजे काम पर पहुँचना पड़ता है। शर्म के मारे मुझे भी उठना पड़ता है। बहू के सामने कैसे लेटा रह सकता हूँ। बेटा बहू भी मजबूर हैं। ज़ाहिर है बच्चे भी यहाँ की जद्दो-जहद में अपने पैर ज़माने की कोशिश में लगे हैं। सुना है इस इलाक़े के गवर्मेंट स्कूल भी बहुत अच्छे हैं। तभी यहाँ छोटे से फ़्लैट का किराया भी बहुत अधिक है। बच्चों की कोशिश है, बहुत सा पैसा कमा कर, वापस अपने देश जा कर स्थापित हो जाएँ।
‘तो अंकल जी, आप सब प्रबंध कैसे करते हैं’?
“बहू कर्ण के कपड़े निकाल जाती है। कर्ण को नहला कर, उसे तैयार करता हूँ। नाश्ते में उसे दलिया, कॉर्न फ़्लेक्स, राइस करिस्पी खिला के स्कूल ले कर जाता हूँ। बेटे ने उसका स्कूल मुझे दिखा दिया था। साढ़े तीन बजे उसे घर ला कर कर्ण को कुछ खिला देता हूँ। उसके बाद कर्ण टी-वी देखने लगता है। उसे व्यस्त रखना भी मेरे लिए बड़ी समस्या है। विशेष रूप से भाषा हमारे लिए बहुत बड़ी बाधा है। न उसे मेरी हिंदी आती है और न मुझे उसकी अंग्रेज़ी। भाषा का फ़ासला मुझे कर्ण के क़रीब नहीं आने देता। ख़ुद से शर्मिन्दा होता हूँ। दोनों एक दूसरे को समझने में असमर्थ हैं। लगता है जीवन, मुट्ठी से फिसलता जा रहा है। अब तो सोफ़ा और बैंच ही मेरा साथी है”।
उनकी बातें सुनकर जया का मन तो परेशान हुआ, उसे उनके अकेलेपन की घुटन का एहसास होने लगा था। सोचने लगी, इस भीड़ के अकेलेपन को समझना आसान नहीं। लंदन,फ़्रान्स,अमेरिका इत्यादि पश्चिमी देशों में यह अकेलापन और भी सख़्ती से जकड़ लेता है। तुम्हें लगने लगता है कि मानों, तुम्हें चाँद पर किसी ने बेसहारा, मजबूर और दिशाहीन अकेला छोड़ दिया है। जहाँ एक-एक दिन, एक-एक पल, गिन-गिन कर गुज़रता है। ऐसी स्थिति में दोषी ठहराये तो किसे ठहराये? यह जया भी नहीं जानती थी। उसने अंकल जी को विश्वास दिलाया और कहा ‘आप चिंता न करें मैं तुरंत ही आपको हिंदी भाषा-भाषी लोगों से मिलवाऊँगी’। आपको भी अच्छा लगेगा। अब उन्हें जया के घर का पता लग चुका था। कभी-कबार वह जया के घर आधे घंटे के लिये आ जाते। जया ने उन्हें कुछ लोगों से भी मिला दिया। जया ख़ुश थी, कि आजकल अंकल जी थोड़े व्यस्त रहने लगे थे। उनका बैंच पर बैठे रहना,नाहक एक दुकान से दूसरी दुकान में फिरते रहने का सिलसिला चलता रहा।
उस दिन जया ने जैसे ही घर का काम समाप्त किया, उसने बाहर झाँक कर देखा, अचानक पतझड़ की धुँध न जाने कहाँ ग़ायब हो गयी थी। पतझड़ की मरियल सी धूप के कुछ टुकड़े पैटीओ के शीशों से भीतर झाँक रहे थे। वह बाहर निकली उसने प्रकृति का अद्भुत दृश्य देखा, लगभग सभी वृक्ष वस्त्रहीन खड़े शरमा रहे थे। धरती माँ पर पड़े ख़ूबसूरत लाल, संतरी, पीले रंग-बिरंगे पतों का बिछा क़ालीन पतझड़ की शोभा को और बढ़ा रहे थे। वह वहीं खड़ी प्रकृति के नज़ारों को निहारने लगी, मौसम भी निखरने लगा था। जया ने सोचा बहुत अच्छा अवसर है गार्डन साफ़ करने का। उसने गार्डन रेक से घास पर पड़े पत्तों को समेटना आरम्भ कर दिया। उसने सूखे पत्ते एकत्र कर के खाद बनाने वाले ड्रम में डाल दीये। धूप की तपिश से अब तक तो घास भी सूखने लगी थी। सोचने लगी क्यूँ न पतझड़ की आख़री घास काट ली जाए। कल गार्डन की घास उठाने वाले ले भी जाएँगे। उसने काटा हुआ घास हरे डस्टबिन में डाल कर गेट के बाहर रखा ही था, कि अचानक पीछे से आवाज़ आयी ‘गुड आफ़्टरनून जया’ उसने मुड़ कर देखा और बोली ‘गुड आफ़्टरनून अंकल जी, जीतू के जा रहे हो’?
‘नहीं वह तो दफ़्तर गया है, काम वालों ने काम पर तो जाना है। बहुत अच्छा लड़का है। हाल चाल पूछ लेता है’। कभी-कभी उसके साथ बैठ कर एक बीयर भी पी लेता हूँ। मुझे एक दो बार बाहर ले गया है।
‘आइए….अंदर आइए….बैठिये’। कितनी देर तक अंकल जी सोफ़े पर गुम-सुम बैठे रहें। उनके चेहरे पर एक गहरी उदासी छायी हुई थी, परेशान करने वाली उदासी। जया उनके पास जा कर बैठ गयी, उसने दो तीन बार पूछने का प्रयास किया। वह भाव शून्य से अपने मौन को तोड़ने में गड़बड़ा रहें थे। जया के मन में उलटे-सीधे विचार उठने लगे। वह चिंतित थी उसके पास तो अंकल जी के बेटे का फ़ोन नम्बर भी नहीं था कि उसे बता सके।
जया ने स्नेहिल भाव से पूछा ‘अंकल जी आज..मूड ख़राब है क्या? इतने उदास क्यूँ हैं? जब से आए हैं गुम-सुम से बैठे हैं? सब ठीक तो है? ‘अंकल जी चुप-चाप बैठे रहे’। ‘अंकल जी अगर आप बताएँगे नहीं तो, मैं आपकी सहायता कैसे कर सकती हूँ। प्लीज़…आप बेटी समझ कर बेझिझक मुझे बता सकते हैं’।
‘अब क्या बताऊँ…….’ कह कर उनकी आँखों में आँसू तैरने लगे। एक गहरी साँस ले कर स्वयं को संभालते हुए बोले ‘मेरे लिये यहाँ चार-पाँच घंटे का आगे-पीछे होने का अंतर बड़ी उलझन पैदा कर देता है’। ‘एक घंटे पहले ही बड़ी मुश्किल से कमला (पत्नी) से बात हो पायी थी। बड़ी परेशान थी। कह रही थी, कि अकेले परिवार संभालना उसके लिए सम्भव नहीं है। बड़े बेटे और बेटी के पास समय नहीं है, छोटे दोनों बच्चों की ज़रूरतें बढ़ रही हैं। सम्भव हो तो शीघ्र आने का प्रयास करें। समझ में नहीं आता क्या करूँ। उम्र भर नौकरी करता रहा…. सोचा था अवकाश के बाद पत्नी को चारों धाम ले कर जाऊँगा, इस जन्म में तो अब सम्भव नहीं लगता। उलझा-उलझा सा रहता हूँ। समझ नहीं पा रहा हूँ, क्या करूँ।
‘अंकल जी, जब आप मुंबई वापिस जाएँगे तब प्रोग्राम बना लेना’ जया ने सुझाव देते कहा।
‘इस जन्म में तो असम्भव ही लगता है, जीवन का क्या भरोसा। अगली साँस का तो भरोसा नहीं। क्योंकि जब मैं वापस जाऊँगा, पत्नी को यहाँ आना पड़ेगा, अब तो एक जाएगा, तो दूसरा आएगा, यही सिलसिला चलता रहेगा, जब तक कर्ण बड़ा नहीं हो जाता।’
‘आप बेटे से बात तो कर के देखो, शायद कोई हल निकल आए’?।
‘क्या बात करूँ, उसके पास समय ही नहीं है। नया-नया आया है। पैसा कमा कर मकान लेना चाहता है। दोनों अपने पाँव ज़माने में लगे हैं। ‘कहते-कहते उनका गला रूँध गया। अंदर की उदासी बाहर दिखने लगी। उनका स्वर इस तरह भर आया कि वह दूसरी ओर देखते बोले’ ‘औलाद कितनी बड़ी मजबूरी है, कुछ भी करवा सकती है। सबको समाज की लकीरों पर चलना पड़ता है’। चाय तो क्या पीनी थी, वह अपने आँसू पीते रहें। कुछ पल के पश्चात्, वह बिना कुछ कहे, चुप-चाप ऊठ कर चले गये। जया एक और उलझन में पड़ गयी। आज उनके लिए जया के शब्द अपने अर्थ खो चुके थे। जया उनके आत्म विश्वास को और गिरते हुए नहीं देख सकती थी। उनकी बातों से जया चिंतित थी। ऐसी स्थिति उसके समक्ष पहली बार नहीं आयी थी। इस से पहले भी वह ऐसी स्थिति में फ़से कई लोगों से मिल चुकी थी। जिन्हें उनके जवान बच्चों ने अपने बच्चों की देख-रेख के लिये परदेस में बुला तो लिया था। फिर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। उन्हें नये देश, नया वातावरण, नयी भाषा से उपजी कई कठनाइयों से जूझना पड़ा। जया के पास उन समस्यायों का कोई हल नहीं था। अब प्रश्न यह उठता है कि उन परेशानियों को कम, कैसे किया जा सकता है। उम्र भर सोशल सर्विसेज़ में सोशल वर्कर रह कर, जया को सभी सुविधाओं की जानकारी थी, जो लंदन और सभी पश्चिमी देशों में सीनियर सिटिज़ेन के लिये नि:शुल्क उपलब्ध थीं।
दूसरे दिन जया ने अंकल जी को अपने बेटे से बीस पाउंड ले कर दस बजे टेस्को में मिलने को कहा। सबसे पहले उनका ओएस्टर कार्ड बनवाया। जिसे वह बस और अंडरग्राउन्ड में जब चाहें, इस्तेमाल कर सकते हैं, और कभी भी-कहीं भी जा सकते हैं। उसी कार्ड से वह दोनो बस से हैरो की हायी स्ट्रीट पहुँचे, ताकि उन्हें कार्ड इस्तेमाल करने की विधि आ जाए। हैरो के फ़ूड हॉल में हिंदी भाषा-भाषी हम उम्र लोगों से मिलाया। जो क़रीब रोज़ ही सर्दी से बचने, रौनक़ देखने और अपना समय बिताने के लिए वहाँ बैठे रहते हैं। कभी-कभी ताश की बाज़ी भी लगा लेते हैं। सभी ने मुस्कुरा कर उनका स्वागत किया। जया उन्हें एक घंटे के लिए उनके हम उम्र साथियों के साथ छोड़ कर अपना काम करने चली गयी। उसके पश्चात् लाइब्रेरी, जहाँ पर सभी भाषाओं के दैनिक अख़बार उपलब्ध होते है। अगर कोई विशेष पुस्तक चाहिए, वह मँगवा भी देते हैं। लोगों से मिलने पर परस्पर मेल-जोल बढ़ता है। लाइब्रेरी में मुफ़्त में योगा, लेखन और भाँति-भाँति की कक्षाएँ लगती है। वहाँ से जया ने उनके बेटे के लिए बहुत से लाभदायक लीफ़्लेट उठाये। अंकल जी बहुत चकित थे। उसके पश्चात् जया उन्हें स्थानीय चर्च में ले गयी। इस चर्च में सप्ताह में बारह बजे से दो बजे तक दो दिन कॉफ़ी मोर्निंग होती है। वहाँ सभी धर्मों के लोगों का स्वागत है और अपने-अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता है। सामाजिक मुद्दों पर रोशनी डाली जा सकती हैं। नि:शुल्क, आपका मन करता है तो डिब्बे में कुछ पेन्स डाल सकते हैं। उसने उन्हें बताया कि यह सुविधा तो उस चर्च में भी है, जहाँ वह रहते हैं। किसी-किसी चर्च में दिन के लंच का भी प्रबंध होता है। चर्च में सबने मुस्कुराहट से उनका स्वागत किया, अपना-अपना परिचय दिया। वहाँ भी जया उन्हें आधे घंटे के लिए उनके हमउम्र लोगों के पास छोड़ कर अपना काम करने चली गयी, ताकि वह सम्पर्क बना सकें। रास्ते भर अंकल जी उनकी उदारता को सराहते रहें।
जया ने पूछा ‘अंकल जी, कैसा रहा कोई दोस्त-वोस्त बनाया, कि नहीं’?
‘एक ने नहीं सभी ने अपना फ़ोन नम्बर दे दिया है और कहा है, जब भी आपका मन उदास हो आप किसी समय भी फ़ोन कर सकते हैं। हम सभी सप्ताह में एक दिन शाम को पब में जाते हैं, यदि आप जाना चाहें तो आ सकते हैं। कामत, तुम भाग्य शाली हो, छः महीने में वापस चले जाओगे, हमें तो यहीं रहना है। उनकी बातों से मुझे यह एहसास हुआ कि यहाँ पर सभी अकेलेपन के शिकार है। जया तुमने ग़ौर किया होगा दो तीन सज्जन तो अपनी ट्रोली ले कर आये थे। उन्होंने बताया….बहू बेटे के काम पर जाते ही वह अपने पूरे दिन के खाने पीने का सारा प्रबंध करके अपने साथ लाते है, एक तो यहाँ पैसे नहीं खर्चने पड़ते, दूसरा सर्दी से बच जाते हैं। घर की हीटिंग तो बहू ने टाइमर पर लगा रखी है, गैस का मामला है। हाथ लगते भी डर लगता है। बच्चे भी ख़ुश, मैं भी अपने में ख़ुश।
हैरान हूँ कि इन सब सुविधाओं का ख़र्चा कौन उठाता है? चर्च या फिर आने-जाने वाले लोग? हाँ उन्होंने मुझे स्टेशन पर ले जा कर ओएसटेर में पैसे चैक करना तथा उसे टॉप अप करना भी सिखा दिया।
स्कूल से बच्चों को घर लाने का समय हो गया था। अगले सप्ताह जया ने कुछ और संस्थाओं में जाने का प्रोग्राम बनाया। दूसरे दिन, सबसे पहले जया उन्हें लेज़र सेंटर ले गयी, जहाँ योग, स्विमिंग, वॉटर एरोबिक, जूमब्बा इत्यादि सिखाया जाता है। फिर सिटिज़ेन एडवाइज़ ब्यूरो में गये, जहाँ नागरिकों के लिये सभी सेवाएँ नि:शुल्क दी जाती हैं। जया ने घड़ी देखी तीन बजने को थे। घर जाने का समय हो गया था। रास्ते में जया ने अंकल जी से कहा ‘अब एक दो बार आप स्वयं हैरो घूम कर आना, बाक़ी अगले सप्ताह के लिए छोड़ते हैं। तीन दिन बाद अंकल जी का फ़ोन आया, आवाज़ से ख़ुश लग रहे थे, उन्होंने बताया कि वह दो बार अकेले हैरो घूम कर आये हैं, कुछ लोगों से भी मिले, अच्छा लगा, धन्यवाद। आज उनका प्रोग्राम आस-पास की जगहों को देखना था। सबसे पहले जया उन्हें आर्ट सेंटर ले गयी। वहाँ शोज़ होते हैं। क्लास होती हैं। डान्स गाना भी सिखाया जाता है,वहाँ कैफ़े भी है। फिर चैरिटी शॉप दिखायी और बताया, अगर वह चाहें तो वह भी यहाँ दो चार घंटे के लिये अपनी सेवा का योगदान कर सकते हैं। उसके पश्चात् उनके इलाक़े का चर्च दिखाया, जहाँ मंगलवार को बारह से दो बजे मिलने का समय है। उसके बाद स्थानीय पार्क दिखाया, जहाँ रंग बिरंगे फूलों के साथ-साथ जिम का भी प्रसाधन है। वहाँ कई प्रकार की मशीने लगीं हैं। जया ने उन्हें एक लिस्ट दी, जिसमें उसने अन्य सुविधाओं के बारे में बताया। जैसे पेंशनर के लिये रिंग एंड राइड सर्विस है, अगर आपको शॉपिंग करने जाना है तो आप उन्हें फ़ोन करें तो वह आपको ले भी जाएँगे और घर वापस भी ले आयेंगे। फिर एज यूके, उन्हें फ़ोन करके अनेक सुविधाओं की जानकारी ली जा सकती है। शेष गूगल भाई बता देंगे।
अंकल जी की ओर से जया अब निश्चिन्त हो गयी थी। अब वह इधर-उधर डोलते कम दिखायी देते थे, काफ़ी सक्रिय हो गये थे। वह ख़ुश थी। किंतु अभी तक वह समझ नहीं पायी थी कि अपने ही बच्चे इतने स्वार्थी कैसे हो जाते हैं कि माँ-बाप को अवकाश मिलते ही वह उन्हें अपने बच्चों की देखभाल के लिये परदेस में बुला लेते हैं। ऐसी स्थिति में माँ-बाप को अपनी सभी योजनाएँ रद्द करके परदेस में आना पड़ता है। उनके जीवन के मायने ही बदल जाते हैं। माँ-बाप अपने कर्तव्य के एहसास से मना तो नहीं कर सकते। कई बच्चे भी यही सोचते हैं, यह उनके माँ-बाप का दायित्व है। यहाँ आकर माँ-बाप को लगता है वह एक अजनबी संसार में खो गए हैं।
अब प्रश्न यह उठता है, कि क्या सचमुच यह उनका दायित्व है या उन पर थोपा गया है। यह तो प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने दृष्टि-कोण पर निर्भर करता है कि वह उसे किस एंगल से देखता है। यहाँ पहुँच कर उनके लिए नया देश, नया वातावरण, नयी संस्कृति के साथ-साथ नयी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ऐसी स्थिति में वह ख़ुद को चाँद पर अकेला खड़े पाते हैं। दोषी ठहराए तो किसे? वह ख़ुश थी कि आजकल अंकल जी दिखायी नहीं देते। उन्होंने अपने सम्पर्क स्थापित कर लिए थे।
बड़े दिनों के बाद आज अंकल जी हाई स्ट्रीट पर अपने परिवार के साथ दिखायी दिए। बहुत नये-नये लग रहे थे । गुलाब सा खिला चेहरा। उनकी आँखों में ख़ुशी का नूर, दूर से ही दिखायी दे रहा था। होंठ तो होंठ उनकी आँखें भी मुस्कुरा रहीं थीं। मायूसी की लकीरें न जाने कहाँ गुम हो गयी थी। अब अंकल जी वो अंकल जी नहीं थे। उनका पूरा ट्रान्स्फ़र्मेशन हो चुका था। उनके चेहरे पर फैली मुस्कान संदेशा दे रही थी, कि भीतर से आज उनका मन चहक-महक रहा है। जया से रहा नहीं गया उसने मुस्कुराते हुए उनसे पूछ ही लिया।
‘क्या बात…है अंकल जी? आज तो ख़ुशी चेहरे से झलक रही है’।
वह मुस्कुराते हुए बोले ‘ठीक कह रही हो बेटा मैं आज बहुत ख़ुश हूँ’।
‘क्यूँ अंकल जी,ऐसा क्या हो गया’?
‘कल मैं घर जा रहा हूँ’।
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