हुई मुद्दत कोई आया नहीं था
हुई मुद्दत कोई आया नहीं था
ये घर इतना कभी सूना नहीं था
वो मेरा दोस्त था लेकिन कभी वो
बुरे वक़्तों में काम आया नहीं था
वो मिलता था तो बस अच्छे दिनों में
मुझे फिर भी कोई शिकवा नहीं था
अजब यकसानियत थी ज़िन्दगी में
अगरचे शहर में क्या क्या नहीं था
उदासी इस क़दर बढ़ने लगी थी
सिवा हँसने के कुछ चारा नहीं था
न जाने क्यों मुहाजिर हो गए थे
हमारे घर में आख़िर क्या नहीं था
उसे मंज़िल नज़र आने लगी थी
मुसाफ़िर रात भर सोया नहीं था
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-अखिल भंडारी