पंख बन

पंख बन, परवाज़ बन
ख़ुद अपने सर का ताज बन,
सुन गुनगुना रही जो ज़िन्दगी
इस मौसीक़ी का साज़ बन

तू उज्जवला, सहस्रज्वला,
न अश्रु स्वेद छलछला,
प्रतिबिम्ब बन कर जी चुकी
अब रौशनी का भास बन

दयालु है, निरीह नहीं
विनम्र है, अबल नहीं
विस्मृत हुई जो समय चक्र में
उस कल्पना का आकार बन

बेटी, पत्नी, प्रेयसी, बहन,
जननी हुई करके जीवन सृजन
जीवन धूप में बिसरा गए
सतरंगी देखे थे जो स्वप्न?

शोर में कहीं खो गयी
ख़ुद अपनी ही आवाज़ सुन
अब चल ज़रा, छू आसमान
क्या सोचना, कैसी थकन?

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-अम्बिका शर्मा

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