डरपोक खिड़की
बंद वो खिड़की थी
बरसों से यूँ ही पड़ी थी
कमरे के कोने में डरती
छुपी सी खड़ी थी
कभी झाँकती भी जो बाहर
तो बंद कपाटों से कुछ
दिखता नहीं था
बड़ा मन था उसका
झाँके वो बाहर,
लटक कर देखे
गाड़ियों की हलचल
सब्ज़ी के ठेले
फिर एक दिन
ज़ोर के तूफ़ान ने
झकझोर दिया
उसके कसमसाते कपाटों को
खोल कर
झिंझोड़ दिया
आह ये कैसी नयी दुनिया
ये तूफ़ान दिखा गया
बरसों के एकांत के बाद
ये जीवन सरस, भीनी
कोलाहल से लबलबा गया
आजकल बारिश आती है जब
तो खिड़की दुबकती नहीं
कोने में पहले की तरह
खोल के कपाट
बाँहों में भरती है सावन को
चहकती है गोरैया के
बच्चों के संग
ज़िन्दगी में
थोड़ा शोर थोड़ा रंग
नहीं रहती वो खिड़की अब बंद
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-अम्बिका शर्मा