वह कोने वाला मकान

अब मैं उस कोने वाले
मकान में नहीं रहती हूँ,
अब उस मकान में कोई और ही रहता है।

उस मकान में आकर उसे घर बनाया,
सजाया सँवारा,
धीरे धीरे वहाँ अच्छा लगने लगा,
वह शीशे की गोल मेज़,
मैं दुकान में देखा करती थी,
रसोई के एक कोने में लगाई,
कितनी ही तस्वीरें जो
अख़बारों में लिपटी पड़ी थीं,
निकालीं और दीवारों पर सजाईं।

किताबों और चित्रकारी के लिये
नीचे का बड़ा कमरा ठीक किया,
वहाँ कभी कभी संगीत का
कार्यक्रम भी होता था।

फिर रहते रहते वहाँ शहनाइयाँ गूँजीं,
नये मेहमान आये, किलकारियाँ सुनाई पड़ी,
हाँ, उनके लिये खिलौने
रखने की जगह भी तो बनाई थी।

फिर धीरे धीरे जाना भी शुरू हो गया,
लाठी की खटखट जो
ऊपर के कमरे से सुनाई पड़ती थी
और जिसे सुन कर अच्छा लगता था,
बंद हो गई,
दोस्तों के ठहाके व खाने के लिये
उनका ज़ोर से पुकारना बंद हो गया।

खिलौने इधर-उधर दिखाई तो देते थे, पर
बच्चे कुछ डरे-डरे, कुछ सहमे से हो गये!

जाने वाले फिर
कभी न आने के लिये चले गये,
कभी-कभी वे आवाज़ें
कानों में गूँजा करती हैं,
उन किताबों,
तस्वीरों की याद आती है,
जो बक्सों में बंद होकर
इधर-उधर चली गईं,
पता नहीं कहाँ?

वह शीशे वाली मेज़ तो
ख़रीद ली किसी ने,
अब मैं वहाँ उस
कोने वाले मकान में नहीं रहती हूँ,
वहाँ अब कोई और ही रहता है!

*****

-इन्दिरा वर्मा

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