तुम!

तुम मेरी हर कहानी में हो,
हर ज़बानी में हो,
हर हार, हर जीत,
हर दुख, हर सितम में तुम ही तो हो!

तुम्हारे इर्द गिर्द,
पता नहीं कितनी कहानियाँ बुनी हैं मैंने,
सीधी उलटी, रंग बिरंगी, धारीदार,
चारखाने वाली और जालीदार भी।

तुम्हारे बिना क्या बुनूँ?
या तो समझ नहीं आया,
या जमा नहीं,
सो उधेड़ डाला।

रंग डालने की भरसक कोशिश की
परन्तु उनका
फीकापन तंग करता रहा,
भद्दापन सताता रहा।
उधेड़ डाला।

उधेड़ा पड़ा रहा कुछ दिन,
फिर उस दिन तुम्हारी यादों के पास बैठ कर,
दोबारा बनाया, रंगों में रौनक़ आ गई,
फूल खिल गये,
बस बन गया एक सुन्दर नमूना,
मेरे जीवन का।

*****

-इन्दिरा वर्मा

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