वह पेड़!
बड़ा अजीब सा लगा जब चलते-चलते,
एक बड़ा सा पेड़ सामने आ गया,
ठोकर लगते लगते बची,
“देख कर नहीं चलते क्या भाई?” पेड़ बोला।
“जल्दी में था, सोचा
किनारा कर निकल जाऊँगा,”
मैं कुछ हड़बड़ाता हुआ बोला,
“किस बात की जल्दी है भैया?”
पेड़ ने पूछा,
“क्या बताऊँ?
ज़िन्दगी कुछ अटक सी गई है,
जो सोच कर चला था
वह कुछ भी नहीं हुआ,
और अब तो मै अकेला हूँ,
क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ?”
“तो फिर इतनी घबराहट क्यों?
कि मेरे जैसा लम्बा-चौड़ा पेड़
दिखाई नहीं दिया?”
“तुम भी तो अकेले ही हो,” मैंने कहा
“फिर इतने हरे भरे कैसे हो?”
पेड़ बोला, “ठंडी हवा मुझ पर से
होकर गुज़रती है
परिन्दे मेरे ऊपर बैठ कर
सुस्ताते हैं, बसेरा करते हैं,
काले, सफ़ेद मुलायम बादल
मुझसे लिपट कर निकलते हैं
बारिश की मस्त फुहारें
नहलाती हैं मुझे,”
“आस-पास के सभी साथी
मिल कर एक दूसरे को
रोज़ सलामी देते हैं,
तुम भी अकेले कहाँ हो?
क़ुदरत की सभी
नेमतें तुम्हारे पास भी तो हैं,”
“बस नज़र उठाओ व देखो,
टकराओ मत
बस चलते जाओ,
चलते जाओ।”
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-इन्दिरा वर्मा