आशीर्वाद
वह जल्दी से मेरे पैर छूकर चला गया,
आशीर्वाद के शब्द बोलती मैं उसके
पीछे-पीछे आई तो पर वह चलता गया
मैं सोचती रही उसने सुनें तो होंगे,
मेरे वे शब्द जो मन से निकलते हैं
कभी-कभी, कहीं धुँधलके में
विलीन हो जाने के लिये
मन की गहराइयों में पड़े रहने के लिये।
शब्द जो दिन रात, सोते जागते
हम सुनते हैं, अनसुनी भी करते हैं
फिर उन्हीं को स्मरण करने का
प्रयत्न करते हैं कभी-कभी।
काश! मेरे आशीर्वाद के शब्द
कोइ सुने ना सुने, उनका प्रभाव
उनके जीवन पर पड़े एक घने वृक्ष
की छाया की भाँति, सुखद बयार की भाँति।
इन्हीं विचारों में खोई मैं बाहर तक
पहुँच गई, तब देखा वह कार के पास
खड़ा, हाथ जोड़े, धीमी सी मुस्कान लिये,
स्वीकार रहा था, मेरे आशीर्वाद को।
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-इन्दिरा वर्मा