वक़्त
(कैनेडा में साल में दो बार वक़्त बदलने के सन्दर्भ में)
सुना है कि कल रात,
फिर से वक़्त बदल गया
ज़िंदगी का एक हिस्सा,
फिर शून्य में मिल गया।
पर काश ऐसा हो पाता,
सच में ही वक़्त बदल जाता,
थोड़ी मोहलत मिल जाती,
फिर से इंसान सँभल जाता।
पुरानी यादों की वह कश्ती,
तूफ़ान में ना हिचकोले खाती
ना एक टीस साथी बन के,
ज़िंदगी भर का साथ निभाती।
फिर भुला देते जुगनुओं को,
याद रखते सिर्फ़ चाँद-तारे
फिर से हँसी के ठहाके लगते,
रुख़सत हो जाते आँसू सारे।
ना रहता इन्सानियत से,
फिर बेख़बर कोई
वीरान राहों पर मिल जाता,
फिर हमसफ़र कोई।
ना बिछुड़ों को याद करके,
हर शाम कोई रोता
ना सर्द रुत में गर्म आहों की,
दिल माला पिरोता।
ना पतझड़ के पत्ते,
यूँ दिल को परेशान करते
ना ज़िंदगी के सफ़र में,
लोग हर दिन जीते-मरते।
ना ग़ैरों को कहानी अपनी,
ख़ुद ही सुनानी पड़ती
ना अपने लगाये ज़ख़्मों पर,
ख़ुद मरहम लगानी पड़ती।
ना बेबस हो कर हालात से,
हमें सर झुकाने पड़ते
ना परदेस में बैठ कर ऐसे,
हमें दुख उठाने पड़ते।
ना मासूम सी ग़लतियों के,
हमसे हिसाब माँगता कोई
ना वक़्त अपनी ख़ंजर पे,
हमारे अरमान टाँगता कोई।
अगर सच में वक़्त बदल जाता,
ज़िंदगी ही सुहानी हो जाती
खुशियों को पिरो के शब्दों में,
कोई नयी कहानी हो जाती।
वक़्त की ऊँगली पकड़-पकड़,
हर कोई मंज़िल चढ़ता है
वक़्त तो सिर्फ़ चलता है,
बदलना तो इंसान को पड़ता है . . .
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-जगमोहन संघा