बंजारा
ख़ुदग़र्ज़ों की बस्ती में
रोज़ ख़ुद को बहला लेते हैं,
किसको जा के घाव दिखाएँ
ख़ुद ही हम सहला लेते हैं।
जीते हैं हम इस भ्रम में
ख़ुद में ख़ुद को ढूँढ़ ही लेंगे
सबसे पर निभाने की ख़ातिर
अपना आप गवाँ लेते हैं।
न हँसती है न हँसने देती
दुनिया को हम समझ न पाए,
झूठी सी मुस्कराहट लिए हम
ख़ुद को ख़ुद ही सज़ा देते हैं।
धोखा इक दूजे को दे के
जाने लोग क्या पा लेते हैं,
हम तो बस चुप रह के ही
दिल को फिर समझा लेते हैं।
चलो छोड़ के सब शिकवों को
अपना फ़र्ज़ निभा लेते हैं,
नादान किसी बंजारे जैसे
नया एक शहर बसा लेते हैं।
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-जगमोहन संघा