दिल

कुछ गुम-सुम कुछ हैरान सा है
अपने घर में मेहमान सा है,
क्या-क्या सहा और क्या सहना है
दिल क्यों आज अंजान सा है।

था शहर यह अजनबी पहले भी
तन्हाई ज़हर थी पहले भी,
दर्दे-दिल पे कोई दस्तक देगा
जाने क्यों ऐसा गुमान सा है।

गुमनामी में कटा है सफ़र
मंज़िल के क़रीब मिले रहबर,
वोह नाम मेरा सुनकर रोया
जो लगता सख़्त चट्टान सा है।

ख़ुद भी तो राह से है भटका
ईमान की इससे बात हो क्या,
ख़ुद को ही तड़पाता है
कैसा यह बे-ईमान सा है।

दिल है बे-चैन अकेले में
तन्हा है और भी मेले में,
ख़ुद को समझाने बैठा है
कैसा पागल नादान सा है।

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-जगमोहन संघा

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