मेपल तरु के साक़

यह अलग ही बसंत है
जब मैं उसे बाँहों में भर
महसूसना चाहता हूँ
उसके वक्ष का खुरदरापन
मुझमें उतरते
उसके टप-टप मीठे रस को
समेटना चाहता हूँ
तने से बाल्टी बाँधते हुए।

सुदूर घाटियों, खाइयों
और टीलों पर हर कहीं
यहाँ धरती मेपल बनी है।
बच्चों की कॉपियों के
कोरे पन्नों पर
तारीख़ के साथ क़रीने से
सज रही हैं पत्तियाँ
हफ़्ते-दर-हफ़्ते कच्चा हरा रंग
हर पलटते पन्ने के साथ
गहरा हरा होता जाता है और
धीरे-धीरे पकने लगती हैं पत्तियाँ
उगते सूरज के रंग में।

कई बार खोया हूँ मैं
केसरिया रक्ति म होती पत्तियों में
जब ओ कैनेडा गाते हुए
नेपथ्य में तिरंगा झाँकता है।
यहाँ ज़मीन से जुड़ता हूँ
मेपल तरु के साथ
तो हिमालय तक की धरती
नाप आती है आत्मा
नमस्ते सदा वत्सले धारिणी धरा।

*****

-धर्मपाल महेंद्र जैन

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »