लेक ओंटेरियो पर
होना तो इसे समुद्र चाहिए था
कहीं कमतर नहीं यह झील
जहाँ तक जाती है मेरी दृष्टि इस छोर से
कोई तटबंध नहीं दिखते
पर मेरे कहने से नहीं बदलता भूगोल
उसकी अपनी राजनीति है
धरती को खंडों में विन्यस्त करने की।
इस झील के किनारे की गुदगुदाती रेत में
तुम्हें थाम कर लड़खड़ाना और
मचलती लहरों के उछाल में भीगते जाना
समुद्र ही को महसूसना होता है
तुम्हारे चेहरे पर ठहरी फुहारों की बूँदें
समुद्र टाँक जाती है तुम पर
तुम्हें खिलखिलाना आता है
जब मैं चपटीले पत्थर
इसकी लहरों पर तैराने लगता हूँ।
सूरज को ढलने की इतनी जल्दी क्यों है!
परिंदों ने अभी चहचहाना शुरू किया है
यह झील समुद्र से कितनी बड़ी है
और सम्मोहक भी
इस शाम को यहीं रुक जाना चाहिए।
*****
-धर्मपाल महेंद्र जैन