
धीरे धीरे जब आँगन
धीरे-धीरे जब आँगन में
यहाँ फैलता सूनापन।
गीले-गीले नयनों से
हृदय नापता अपनापन।।
अपनापन रातों का सच्चा
दिन का है दर्पण कच्चा
सच में दंभ यथा भरने से
मेरा खाली बर्तन अच्छा
अच्छाई की बनी चाशनी
में पिघलाता मैलापन।
गीले-गीले नयनों से
हृदय नापता अपनापन।।
सागर की लहरों में भी
गिरती देखी ठंडी ओस
मिलकर खारी हो जाती हैं
कैसे बोलूँ किसका दोष
मीठापन देकर सरिता ने
पाया केवल खारापन।
गीले गीले नयनों से
हृदय नापता अपनापन।।
उन फूलों का मुरझाना
गिरकर थोड़ा मुस्काना
और पंखुड़ी को फैलाकर
हौले-हौले समझाना
सपना बोलूँ या अवरोध
कौन कराए इसका शोध
शायद मौन कराएगा
रुक-रुक कर इसका भी बोध
ऐसे सारे संतापों का
होगा मधु से उद्यापन।
गीले-गीले नयनों से
हृदय नापता अपनापन।।
धीरे-धीरे जब आँगन में
यहाँ फैलता सूनापन।
गीले-गीले नयनों से
हृदय नापता अपनापन।।
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– आशीष मिश्रा