
कल करै सो आज कर
-आस्था देव
अक्सर कुछ दमदार लिखने के लिए, प्रेरणा तलाशनी पड़ती है पर आजकल जिंदगी की रेलमपेल में प्रेरणा का ऐसा अकाल पड़ा रहता है, कि क्या कहूँ। कभी सोच भी नहीं सकती थी कि जिस काम को शौक तक सीमित न रखने के लिए सबसे लड़ी थी मैं, वो पेशा बनते ही बोझ लगने लगेगा। ईमेल और टास्कबोर्ड पर काम आते ही, एक समय सीमा भी आ जाती है उसकी पूंछ की तरह, जो काम के साथ मुझे भी बांधती है, एक लक्ष्मण रेखा में। फिर मैं भी खेल जाती हूँ तुष्टिकरण की निति। थोड़ी खुद के अंदर छुपे ईमानदार कलाकार के साथ, जिसके लिए लेखन, काम नहीं जूनून है, और थोड़ी उस कॉर्पोरेट कर्मचारी के साथ जिसे घर चलाना है, फीस भरनी है और तो और महँगी जगहों पर जा कर पैसे इसलिए बर्बाद करने हैं क्योंकि “अपना भी एक स्टेटस है !” ये सोशल लाइफ ने सच पूछो असली जिंदगी का बंटाधार कर रखा है।
कोविड के बाद, ये सुविधा तो है कि घर से ही काम कर लेती हूं ।अपने बेडरूम को ही ऑफिस बना लिया है। इस 10 x10 के कमरे को, मुंबई में हॉल माना जा सकता था। हॉल,ये शब्द बचपन से सुनती आई हूं, कमरे का अंग्रेजी उपनाम।उत्तर भारतीय मध्यमवर्गीय मकान का सबसे बड़े कमरे को बैठक घोषित करने वाले इस अंग्रेजी उपनाम में मुझे शब्दार्थ की सार्थकता कभी मिली नहीं।शायद ठेठ हिंदी भाषी क्षेत्रों में कई अंग्रेजी शब्द, हिंदी शब्दों के ऊपर रख दिए जाते हैं, जो उनके हिंदी समानार्थी शब्दों के ऊपर उनकी श्रेष्ठता को ठीक वैसे ही सिद्ध करते हैं जैसे बरसों तक गोरी चमड़ी करने वाली क्रीम और उनके विज्ञापन बताते रहे कि आपके त्वचा के रंग जितना गहरा होगा, आपका आत्मविश्वास उतना रसातल में जाएगा। ठीक वैसे ही हॉल,ये उपनाम उस बड़े कमरे की श्रेष्ठता का परिचय देने की कोशिश में प्रयोग किया जाता रहा होगा। वैसे लंदन की स्थिति भी ज्यादा अलग नहीं कही जा सकती, कहने को फ्लैट २ कमरों का है पर ये 10 x 10 का कमरा,सबसे बड़े कमरे के स्थान पर विराजमान होकर भी मुझे छोटा ही लगता अगर सामने बहती नदी ना होती। इस कमरे का आकार, उस नदी सा ही बृहत् हो जाता है। ठण्ड में बहुतायत खिड़कियां बंद ही रहती हैं पर दरवाजे के आकार की इन शीशे की बंद खिड़किओं से भी आ जाता है बहुत कुछ। धुप के दिनों में कमरा धुप से भर जाता है। वैसे धुप वाले दिन ऊँगली पर गिनने भर ही होते हैं, और उन दिनों में मेरे अंदर भी सब कुछ चमक उठता है, उस पर ज्यादातर दिन यहाँ ठन्ड या बारिश वाले होते हैं, और जब दिन में भी अँधेरा रहे तो अपने अंदर की आग को जलाये रखने के लिए और भी ज्यादा मशक्क़त करनी पड़ती है। जब अंदर की आग ही बुझ रही हो, कागज पर लावा क्या खाक उड़ेला जायेगा ! वैसे अपेक्षा लावे की होती है पर आशा रहती है कि लावा नकली हो, दिखने में उबलता हुआ, छूने में ठंडा, किसी को भी जलाये नहीं पर जलने के डर को कायम रखे। अकसर कहा जाता है, अपने नीचे काम करने वालों के प्रति मेरा जो रवैया है, वो काफी ढीला है। आश्चर्य की बात है कि मेरी टीम अक्सर सबसे उम्दा प्रदर्शन करती है, वैसे लंदन में इस विषय का दबाव काफी कम हो गया है, यहाँ “सर्वजन सुखाय “को बड़ी गंभीरता से लिया जाता है!
“सुन रही हो!” सहर्ष की आवाज़ से मैं विचारों के ताने बाने से बाहर निकल आई !
“हाँ, कहो न ! “मैंने कहा
“आज बच्चों को तुम्हे ही लाना होगा। मेरी मीटिंग शुरू होने वाली है, लम्बी चलेगी।“ दरवाज़ा बंद हो चूका था। कहना चाहा मैंने, “आज नहीं प्लीज, आज विचार कब्बड्डी खेल रहे हैं, इनको इकठ्ठा करना है, वरना फिर जद्दोजेहद लम्बी खिंच जाएगी और एक बार बच्चे घर आ गए, तब तो लिखना नहीं हो पायेगा।
मुझे बहुत गुस्सा आता है, जब मेरे हिस्से के निर्णय कोई और ले लेता है, और विडम्बना ये है कि मेरी जिंदगी के 90 फीसदी से ज्यादा निर्णय किसी और ने लिए हैं और तो और जब भी मुझे कोई निर्णय लेना होता है न, तो मैं अक्सर उलझ कर रह जाती हूँ। सो अगर मान के चलें कि निर्णय लेना एक गुण है,तो वो मुझ में है नहीं पर इक्षा और आशा दोनों है, ठीक उसी तरह जैसे मुझसे गाने की अपेक्षा की जाती रही है, बचपन में सबसे महंगा हारमोनियम दिया गया, लम्बे अरसे तक सीखे गए कुछ भजन गाने के अलावा, मेरी संगीत की फेहरिस्त में और कुछ जुड़ा ही नहीं। तो कहीं न कहीं, मेरी आवाज़ की गुणवत्ता पर मेरा विश्वास काफी काम था। तो गुणवत्ता के चक्कर में न जाने कितने सारे गुणों से वंचित रह गयी मैं।
बच्चों को लाने में कुल २ घंटे बाकि हैं,अब इन दो घंटों में लेखपूरा होने से रहा, कोशिश करुँगी तो शायद 60 -70 फीसद हो भी जाए पर बाकि के ३०-40 फीसद का तारतम्य बिठाने में आफत आ जाएगी। सहर्ष को ये बहाना लगता है। उनके दृष्टिकोण में, ये मेरे अंदर का आलस है जो बहाने ढूंढता है काम को टालने का, अब बचपन में माँ भी ऐसा ही कहती थी। कभी कभी लगता है, जीवन के दो कतई मुझसे अधिक माहिर लोग अगर कहते हैं तो सही होने की सम्भावना ५० फीसद से तो ज्यादा ही है।
बचपन में कह भी देती थी माँ से,
“आज करै,सो कल करै, कल करै सो परसों
इतनी जल्दी भी क्या है, अभी जीना है हमें बरसों“
बचपन की ये खासियत है, उसमें हमारी गलतियां, हमारे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं होती, वो एक हिस्सा होती हैं, हमारे उस वक़्त का जब ये गलतियां हमसे हो रही होती हैं, सुधार की गुंजाईश हमेशा रहती है पर बरसों बाद हमारे हर कदम से हमें परिभाषित किया जाने लगता है, हर कोई जो परिभाषा देता है वो कहीं न कहीं उसके खुद का प्रतिबिम्ब होता है। अक्सर लोगों के सामने कुछ कहने में मुझे डर लगता है, क्योंकि मेरे विचार मेरी बातों तक ही सिमित होते हैं पर अक्सर उन बातों में गूढ़ अर्थ तलाशे जातें रहे हैं कोशिश की गयी है, अनकहे को समझने की। तो इस बात का निष्कर्ष ये हैं कि लोगों के लिए मैं वो गुल्लक हूँ जिसमें सिक्कों की खनखन धीमी सी है, और इसका कारण लोगों के दृष्टिकोण में वो बड़े नोट हैं, जो दिखते नहीं हैं, पर उनके होने का पूरा पूरा अंदेशा है ! सबको कैसे समझाऊं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि ये जो मेरी मन की गुल्लक हैं न, उसकी दीवारे मोटी हैं, इसलिए उतने ही सिक्के आ पाते हैं, जितनों की खनक सुनाई देती है। तो मैं काफी सतही इंसान हूँ, पर गहराई की इक्षा रखने वाले लोग कभी कभार जब मिलते हैं तो उनकी वो जो गूढ़ता ढूंढने की ललक है न, मुझे भी प्रेरित करती है ढूंढने के लिए अनजान विषयों के अनछुए अध्याय जिन्हे उलटने का मौका जीवन ने नहीं दिया,अब इस कथन में जो अफ़सोस है,वो न जानने का है, न होने का नहीं।
ये गुल्लक वाली जो बात है, इसे नोट कर लेती हूँ! आज के किस्से के किसी हिस्से में डालूंगी, अच्छा पंच हैं इसमें, दिमागी नोट बनाने से काम होने से रहा, न जाने कितने सरे पंच वाले डायलॉग्स, बर्तन धोते हुए सिंक में, खाना बनाते हुए कड़ाही में यहाँ तक की गुसलखाने में भी फ्लश हो जातें हैं मियां! हैदराबाद की कहानी लिखते लिखते हैदराबादी का लेखक की भाषा में घुस जाना बहुत अजीबोगरीब तो करारा नहीं दिया जा सकता पर हाँ, कोशिश रहेगी कि जो चंद गालियां, उस किस्से के हिस्से में बैठी हैं, वो गलती से भी जुबान पर न आएं, वर्ण, बच्चों के छोटे शब्दकोष में जगह बनाते उन्हें देर न लगेगी, और ये भी क्या कहने की बात है कि फिर उनका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जायेगा और एक बार फिर मेरी अच्छी मां होने पर प्रश्न उठना तय है!
ये माँ वाला हिस्सा भी रखूं कहानी में,नहीं जाने देती हूँ! हर कहानी, अपने ही इर्द गिर्द लिखूंगी तो नयापन जाता रहेगा, फिर हर नया किस्सा, पिछली कहानी का ही विस्तार लगेगा। जैसे कुछ माँ बाप कोशिश करते हैं पहले बच्चे को अपना विस्तार बनाने की, और दूसरा हुआ तो उसे पहले सा बनाने की, और तो और सबको शर्मा जी के बेटे सा बनाने की, ऐसे में कुछ अनोखा बनने की सम्भावना ही कहाँ है भला। अनोखा बनने की जिद थी हमने, सो हमने अपने लिए अपनी पसंद का काम चुना, हाँ पति ढूंढने की जिम्मेदारी माँ पर छोड़ दी, अब मेरे और सहर्ष के हर महीने की तनख्वाह में जो अंतर है, उसको देख कर लगता है, ये काम चुन कर गलती हो गई। यूँ तो घर की हर व्यवस्था पर मेरी पकड़ है, पर जो ये अर्थ का हेर फेर है न,वो अक्सर मेर काम को शौक की श्रेणी में कब लिए चला जाता है, मुझे महसूस भी नहीं होता।
“ट्रिन” व्हाट्सप्प पर एक मैसेज आया था, वो भी पति देव का।
घडी पर नज़र गयी, अभी तो 45 मिनट हैं, अभी अच्छे पिता की सजग भूमिका में आ चुके हैं सहर्ष, आखिर इतनी जल्दी क्यों याद दिलाना है, चली जाउंगी मैं समय पर।
मैसेज देखने का भी मन नहीं हो रहा, और इसे पीएमएस की श्रेणी में न डाला जाये, इंसान बिफर पड़ते हैं कभी कभार बिना कारण भी, पुरानी जद्दोजेहद और आज के घटनाक्रम का घातक कॉकटेल, चिड़चिड़ाने की भरपूर क्षमता रखता है।
चलो, मैसेज देख ही लेती हूँ, क्या पता मीटिंग के बीच में चाय की तलब लगी हो हमारे राजकुमार को !
“पहला स्क्रीनशॉट है, कल वाली कविता अपने दोस्तों को फॉरवर्ड की थी, सबकी तारीफों का स्क्रीनशॉट भेजा है। मन खुश हो गया है थोड़ा सा, होठों पर एक छोटी सी मुस्कान भी आ गई है!”
“दूसरा यूट्यूब लिंक है, खाने की, नीचे लिखा है, आज मैं बनाता हूँ ये वाली रेसिपी, आज मैनेज कर लो बच्चे!”
मुस्कान और गहरी हो गयी।
“टाइमपास कम करो, लिखो न “
मुस्कान गायब हो गयी, मुंह बन गया पर मन ख़राब नहीं हुआ,चलो बर्तन धो कर किचन साफ़ कर देती हूँ, सहर्ष को साफ़ किचन और बर्तन मिलते हैं तो वो खुश होता है, कुल ३० मिनट हैं मेरे पास। जल्दी करना होगा,और आप लोग मेरी दिनचर्या को कितना सुनेंगे, जाइये काम पर लगिए, और सुना नहीं क्या
“कल करै, सो आज कर,
आज करै सो अब,
पल में परलय होयेगा,
बहुरि करेगा कब?”
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