
गजदंत
डॉ आरती ‘लोकेश’
घर आते ही गौतमी ने अपने चेहरे से थकान उतारकर अपनी वर्दी के साथ ही अलगनी पर टाँग दी। हाथ-मुँह धोया, कपड़े बदले। आईने में खुद को देखा और पूछा, “फ्रेश लग रही हूँ न?”
“नहीं! पुलिस की वर्दी में अधिक फुर्तीली और चुस्त लगती हो।” उसे लगा कि आईना फुसफुसाया है। शीशे के सामने से हटती हुई, वह पलटकर उसे ही एकटक घूर रही थी। उसका दिमाग प्रत्युत्तर में अनेक प्रश्न एकसाथ दाग रहा था और वह उनके प्रक्षेपण को नियंत्रित न कर पा रही थी। वर्दी पर निगाह डाली तो उसके साथ टँगी थकान कूदकर उसके गले से लिपट गई।
गैस स्टोव पर एक गिलास पानी चढ़ा दिया। शायद चाय पीकर कुछ ताज़गी आए। सहसा याद आया कि चाय पीनेवाली वह अकेली ही है। केतली में से आधा पानी निकालकर अलग कर दिया। मन में टीस-सी उठी। कब से घर आते ही चार कप चाय बनाने की आदी हो चुकी थी। सब बैठकर चाय पीते तो भी वह रसोई में ही खाना बनाने में जुटी रहती।
आज वह आराम से हॉल के सोफ़े पर बैठ कर चाय का आनंद उठा रही थी। तभी उसकी दृष्टि शोकेस में रखे हाथी दाँत पर पड़ी। श्वसुर गणपति शास्त्री वन विभाग में संरक्षण अधिकारी थे। यह उन्होंने ही गौतमी को भेंटस्वरूप दिया था उसके विवाह पर।
“यह बहुत कीमती है और मजबूत भी। इसकी मजबूती तभी तक है जब तक यह ज़मीन पर न गिरे। गिरकर जो यह टूट जाए तो इसका भ्रम भी टूट जाता है। सारी खूबियाँ भी खत्म हो जाती हैं। इसकी सँभाल अब तुम्हारे हाथ में है।”
उसने वह गजदंत अपने हाथ में ले लिया। यह बहुत ही सुंदर चाँदी में मढ़ा हुआ हाथी दाँत था। उस पर मोहित होने के बाद भी उसके मस्तिष्क में बीसियों जिज्ञासाएँ दौड़ पड़ीं। क्या इस दाँत के लिए हाथी को मारा गया होगा। अगर ऐसा है तो एक वन संरक्षण अधिकारी के पास यह दाँत क्या संकेत दे रहा है? क्या पशु-चर्म व अन्य पशु-उत्पाद की तस्करी में मिली भगत होती है? या ये अधिकारीगण भी दो-दो तरह के दाँत रखते हैं; खाने के और, दिखाने के और! नई दुल्हन के लिए इन सवालों पर घूँघट डाल देना ही इनका एकमात्र उत्तर था। उसने वैसा ही किया था। इस प्रश्न-सूची को अपने सैंडिल के नीचे ऐसे ही मसल दिया जैसे जलती सिगरेट का ठुड्डा कुचला जाता है। अपरिचित वातावरण में छोटी-सी चिंगारी ही दावानल का रूप लेती है।
आज अचानक वे सारे सवाल बरगद पर लटके भूत-से बार-बार उसके सामने हिल-डुल रहे थे। हत्या कर दबाई हुई किसी लाश के बाहर निकल आने पर जो हबड़ा-तबड़ी पुलिस महकमे में मचती है, आज वही उसके जेहन में मची हुई थी।
गजदंत में अटके उसके ध्यान को फ़ोन की घंटी ने खींच निकाला। उसने फ़ोन उठाया। कार्तिक की आवाज़ सुनकर वह चौंकी।
“गौतू! हमें घर खाली करने का नोटिस आया है। एक सप्ताह में पुलिस क्वार्टर खाली करने को कहा है। तुम घर आ जाओ, गौती!” वह गिड़गिड़ा रहा था।
“घर तो खाली करना ही पड़ेगा। मुझे यहाँ पुलिस कॉलोनी में घर मिलने वाला है। मेरे नाम पर दो घर एकसाथ अलॉट नहीं रह सकते।” गौतमी ने दृढ़ता से कहा।
“हम एक बार फिर से…” कार्तिक का वाक्य पूरा होने से पहले ही गौतमी ने रिसीवर रख दिया। मधुमक्खी के छत्ते से निकल, वह फिर उस मकड़जाल में नहीं फँस सकती थी।
उसने रेडियो चला दिया और देव आनंद के गाने सुनने लगी। चाय की भाप चेहरे को सुर्ख कर रही थी पर उसकी चेतना कहीं स्याह अतीत में भ्रमण पर थी। पुतलियाँ वर्तमान में स्थिर हो विगत को पटल पर अनचाहे ही रखे जा रही थीं। वे खौलती बातें यकायक उसके चेहरे को छूने लगीं और वह अनमनी हो उठी।
उस दिन वह बहुत थकी हुई किंतु उत्तेजित-सी लौटी थी। ठंड का मौसम था। सब चाय पीने के लिए उसकी बाट जोह रहे थे। उसने चाय का पानी गैस पर रखा और बताने लगी कि कैसे आज उसने एक भयावह केस को सँभाला। इस घटना में बहुत अस्पष्टता थी फिर भी उसने घटना को अंजाम देने वाले का पता चुटकियों में लगा लिया। बहुत वीभत्स दृश्य था। जब वह वारदात वाली जगह पहुँची तो पीड़िता निर्वस्त्र व बेहोश पड़ी थी। उसने तुरंत अपनी जैकेट उतारकर पीड़िता पर डाली। जीप से चादर मँगवाई और नग्न स्त्री को ढका, फिर अस्पताल पहुँचाया। संदेह था कि उसका सामूहिक बलात्कार हुआ है। अस्पताल के डॉक्टरों ने भी इसी की पुष्टि की। इसकी चार्जशीट भी उसने ही बनाई और अपने वरिष्ठ को दिखाई तो वे उसके काम से बहुत खुश हुए।
इतना बताकर वह चाय छानने लगी तो छ: आँखें उसे ही घूर रही थीं। गौतमी को लगा कि उसने कोई अपराध किया है। चाय जाने क्यों बेस्वादी हो गई थी।
“तुम्हारे साथ सारी स्त्री कर्मी ही थीं?” कार्तिक ने सहसा पूछा तो गौतमी की आँखें अचरज से भर गईं।
“क्यों? ऐसा कभी होता है क्या? कोई थाना ऐसा नहीं होता जिसमें केवल स्त्रियाँ हवलदार हों।”
“लेकिन दूसरे थाने से बुलाई तो जा सकती हैं जब ऐसी घटना की खबर मिले तो…” कार्तिक गौतमी को रोष से देखता रहा।
“लेकिन क्यों? कहना क्या चाहते हो? मतलब क्या है तुम्हारा?” गौतमी भड़क उठी थी।
“मतलब तुम्हें भी पता है गौतमी! एक औरत तुम्हारे सामने नंगी पड़ी है। तुम उसे देख रही हो और तुम्हारे चारों तरफ़ अफसर से लेकर हवलदार तक सब मर्द ही मर्द हैं।…” कार्तिक ने जैसे आग उगली।
“तो…?” गौतमी के दिल ने दिमाग को काबू करने के लिए ज़ोरों से धड़कना शुरु कर दिया था ताकि उसके शोर में दिमाग की चीत्कार दब जाए।
“तुम क्या बच्ची हो दूध-पीती…? ये बात मैं तुम्हें समझाऊँगा? तुम्हें इतनी अक्ल नहीं है कि तुम्हारे लिए क्या सही है, क्या गलत है?” कार्तिक बिफ़र उठा।
“तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है कार्तिक? तुम क्या कहना चाहते हो कि उस नंगी स्त्री, और वह भी लाश… उसे देखकर सभी मर्दों की लार टपकने लगेगी और वे मेरे सामने उस पर टूट पड़ेंगे?”
“उस पर टूटें या किसी और पर… मेरी बला से! तुम्हें कम से कम ऐसे स्थान से हट जाना चाहिए था।… दूर हो जाना चाहिए था इस केस से…” ‘तुम्हें’ पर जो विशेष दबाव दिया गया था इस उक्ति में, इससे गौतमी तिलमिला उठी थी।
“तुम क्या दकियानूसी बातें कर रहे हो? कार्तिक! मैं अपने काम से ही हट जाऊँ। क्या चाहते हो नौकरी करूँ कि न करूँ?” गौतमी का आवेश चरम पर था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वह कार्तिक को समझाए कि यह नज़ाकत दिखाकर और घूँघट निकालकर शर्माने वाली नौकरी नहीं है। इसमें ऐसी सब बातों से दो-चार होना ही पड़ेगा। यह मेज़-कुर्सी पर बैठकर क्लर्की करने वाला काम नहीं है। फील्ड-वर्क है पूरा। और यह फील्ड ऐसी ही घटनाओं-दुर्घटनाओं और विद्रूपताओं से भरा पड़ा है।
“उस दिन भी तुम आधी रात में फ़ोन आते ही अपने मर्द अफ़सरों के साथ दुर्घटनास्थल के लिए निकल गईं।” कार्तिक ने शिकायतों का पिटारा खोल दिया था।
“तो क्या दिन होने का इंतज़ार करती?” गौतमी आँखें फाड़ कार्तिक को देखने लगी थी। वह हैरान थी कि पहले ही से वह कार्तिक के दबाव में आकर हमेशा अपनी दिन की पारी ही लगवाती रही है। एकाध बार अवश्य इमरजैंसी में उसे रात में जाना पड़ा था।
“उस समय कोई और भी तो जा सकता था। क्या तुम्हारा ही जाना ज़रूरी था?” कार्तिक भड़का।
“तो क्या मेरी नौकरी केवल थाने में सजने और कुर्सी पर बैठकर तनख्वाह लेने की है। काम कोई और करता रहेगा मेरा?” गौतमी को कार्तिक की आपत्ति सरासर बेबुनियाद लग रही थी।
“काम करने की मनाही नहीं है। मैं बहुत प्रगतिवादी विचारों का आदमी हूँ। लेकिन काम वह तो करो जो औरतों के करने का हो।” एक साँस में कह गया कार्तिक।
“पुलिस में तो शुरु से ही औरतें काम करती हैं। तुमसे किसने कहा कि यह काम औरतों के करने का नहीं है।” गौतमी ने तर्क किया।
“जो करती हैं, सो करें। लेकिन अपनी हद में रहें।” कार्तिक के माथे पर बल पड़ गए थे
“और ये हद क्या होती है? कार्तिक!… ज़रा मुझे भी तो पता चले।” वह उबल रही थी।
“आदमियों के साथ इधर से उधर मारे-मारे फिरने को नौकरी नहीं कहते। कोई तो तरीके का काम होता होगा पुलिस विभाग में भी? या सब औरतें ऐसे ही मर्द बनी घूमती रहती हैं?” तीखा प्रहार किया था कार्तिक के शब्दों ने।
“मर्द या औरत का कोई फर्क नहीं होता पुलिस में। पुलिस केवल पुलिस होती है, मर्द या औरत नहीं…।” गौतमी ने आवाज़ ऊँची की।
“यहाँ घर है। यहाँ मर्द, मर्द होता है और औरत, औरत होती है। और वह औरत घर में भी औरत है और घर के बाहर भी औरत है। एक बार में समझ लो कान खोलकर।” कार्तिक दूनी आवाज़ में गुर्राया।
“यानि पुलिस की नौकरी छोड़ दूँ? ये जो तमगे मुझे मिले हैं मेरी बहादुरी पर, इन ही पर लट्टू होकर तुम शादी का प्रस्ताव लाए थे न? अब क्या हुआ? चुभने लगे हैं?
जब तुम्हारी खादान में फँसे मज़दूरों को बाहर निकलवाया था, तब तो तुम्हें यह साहस बहुत भला लगा था। अब इसी साहस का गला घोंटना चाहते हो?” गौतमी दहाड़ी।
“हाँ…, तो ले लिए न तमगे। भर गया होगा न मन अब? अब तमीज़ में आ जाओ। शादीशुदा औरतों वाले काम करो।” कहकर कार्तिक कमरे में चला गया।
“शादीशुदा औरतों के करने का…?” गौतमी भी पीछे-पीछे कमरे में आई। वह रोज़ की खिंची-खिंची ज़िंदगी से परेशान आ गई थी। इस बार तर्क-वितर्क को इस पार या उस पार कर देना चाहती थी।
“हाँ, औरतों के करने का। शरीफ़ औरतों का काम…!” कार्तिक फिर भड़भड़ाकर बोला।
“तुम कहना क्या चाहते हो? पुलिस में औरतें बदमाश होती हैं? वही काम करते हुए उनकी शादी हो सकती है पर वही काम करते हुए वे शादीशुदा नहीं रह सकतीं?” गौतमी शराफत और शादीशुदा का मतलब साफ़ समझ लेना चाहती थी।
“तुम्हें जो समझना है समझो। मुझे इस मामले में कोई जिरह नहीं करनी। मैं तुम्हें पहले भी कई बार समझा चुका हूँ…”
“मैंने आज तो पुलिस ज्वाइन नहीं की है। तुमसे मिलने से पहले भी मैं पुलिस में थी… और कई सालों से थी। तब भी यही सब काम कर रही थी। फिर अब ऐसी क्या मुसीबत आ गई मेरे उसी काम से?”
“जो मुसीबत आई है वह तुम्हें बहुत बार बता दिया गया है। अब आगे इस बारे में कोई बहस न हो। यह कोई कोर्ट नहीं है जहाँ तुम्हारी उल्टी-सीधी दलीलें चलेंगी। यह घर है, इसे घर बना रहने दो।”
कार्तिक मुँह ढककर लेट गया। कुछ क्षण को शांति छा गई। सहसा खर्राटों के शोर से कमरे का सन्नाटा पटकनी खाने लगा। उस उठा-पटक से गौतमी के कान फटने लगे। उसे लगा कि कोई उसे जीते-जी उठा-उठाकर ऊँचाई से धरती पर पटके दे रहा है। गूँजती आवाज़ें उसे गालों पर चाँटों-सी महसूस होने लगी। उसके दिमाग की नसें फटने लगीं।
उसे वह दिन याद आया जब उसकी मुख्य हवलदार से उप-निरीक्षक (सब-इंस्पैक्टर) के पद पर पदोन्नति हुई थी। उसकी कर्मठता व परिश्रम से उसे यह पद मिला था। कुछ दिन पूर्व ही उसका विवाह हुआ था तो सास-श्वसुर फूले नहीं समाए थे। उसे पुलिस कॉलोनी में क्वार्टर भी मिला था। सब बहुत खुश थे। किराए का मकान छोड़कर पूरा परिवार सरकारी क्वार्टर में शिफ़्ट हो गया था। पिछला मकान खाली करने से पहले उसके श्वसुर गणपति ने सारे मोहल्ले में मिठाई बाँटी थी। नए क्वार्टर में दो कमरे, हॉल, रसोई व स्नानघर था जो उन चारों के लिए पर्याप्त था। किराए के घर में एक बैडरूम होने से बहुत असुविधा होती थी।
बस अथवा मैट्रो से पुलिस स्टेशन पहुँचने की तकलीफ़ से भी गौतमी बच गई थी। पुलिस वैन से वह अब अपने काम पर आ-जा सकती थी। परंतु जब भी उसे बहुत काम होता तो इंस्पैक्टर श्रीनिवास उसे अपनी जीप में ले जाते और शाम को छोड़ भी जाते। जब वह घर में घुसती तो सास-श्वसुर के मुँह बिगड़े हुए दिखाई देते। वह भय से काँप जाती और वर्दी बदलकर साड़ी पहनती और चुपचाप अपराधी की तरह घर के काम में लग जाती। वह मशीन की तरह काम करती रहती और सास-श्वसुर उसे पैनी नज़रों से ताकते रहते। उसकी तमाम कोशिशें उनके चेहरे पर हँसी या खुशी लाने में असमर्थ रहतीं। उसे हर समय सिर पर एक नंगी तलवार लटकी हुई महसूस होती जो उसे भयातंकित किए रहती।
एक दिन तो अति ही हो गई। वह घर पहुँची तो कार्तिक राशन-पानी लेकर उस पर टूट पड़ा। उसके ऑफ़िस के पास ही एक कोठी में चोरी की घटना घटी थी जिसकी छान-बीन के लिए गौतमी अपने हैड कॉन्सटेबल चटर्जी के साथ वहाँ पहुँची थी। चटर्जी के सेवानिवृत्त होने में कुछ माह ही शेष रह गए थे। कोठी की तीन सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए वह खम्बे का सहारा ले रहा था कि गौतमी ने उसे अपने हाथ का सहारा देकर सीढ़ियाँ चढ़ा दिया था। यह कार्तिक ने अपने ऑफ़िस की खिड़की से देखा तो आगबबूला हो गया। इस आग के छींटे गौतमी पर तेज़ाब बनकर पड़े। उसका पूरा वजूद ही जलते धुएँ में बिखरता उसे दिखने लगा था।
अब ये शिकायतें रोज़ का क्रम बन गई थीं। एक दिन श्वसुर ने आरोप लगाया कि उन्होंने उसे किसी के साथ होटल में जाते देखा है। गौतमी ने लाख समझाया कि होटल में एक अपराधी के रुके होने की खबर पुलिस स्टेशन में खबरियों द्वारा भेजी गई थी। अत: वह अपनी पूरी बटालियन को लेकर गई थी किंतु वे सब साधारण वेष में थे ताकि अपराधी पुलिस देखकर भाग ही न जाए। होटल के मैनेजर से पूछताछ के लिए वह सादी वेशभूषा में इंस्पैक्टर श्रीनिवास के साथ अंदर गई थी और बाकी सब अपनी पोजिशन पर तैनात थे। लेकिन उसकी एक न सुनी गई। अपनी बेगुनाही का उसके पास कोई सबूत नहीं था जो वह पेश कर सके। खबरी द्वारा मिली खबर भी गलत साबित हुई थी।
गौतमी के अंदर अंतर्द्वंद्व मच गया था। कई बार जी में आया कि कह दे- ‘तुम वर्दी पहनकर उन्हीं के भक्षक बनते हो जिनकी रक्षा का दायित्व तुम पर है। तुम जैसे भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों से समाज को बचाने के लिए हमें अपनी खाल बदलनी पड़ती है, ये तुम जैसे नमक-हराम क्या जानें। कभी उसका मन कहता कि इंस्पैक्टर श्रीनिवास से गवाही दिलवा दे और अपने मुकद्दमे की जीत निश्चित कर ले। किंतु जी से ज़ेहन अधिक विवेकशील होता है, यह वह जानती थी। घर में मान-सम्मान फिर भी न मिलेगा बल्कि थाने से भी चला जाएगा। उसके जी ने भी ज़ेहन का साथ दिया और कहा कि काम में जी लगा और इन बातों को जी से निकाल दे।
गौतमी का मन बुझ गया था। काम में ध्यान लगाने की कोशिश करती तो घर में होने वाली घटनाएँ उसके पैरों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ी डाल देतीं। काम का समय समाप्त होता तो घर जाने को उसके पैर न उठते थे। जाने कौन-सा कोहराम उसके स्वागत में बंदनवार बन दरवाज़े पर लटका होगा, सोचकर वह भयभीत हो उठती थी। इधर काम में आसान-सा दिखने वाला केस भी उसे उलझा जाता और वह चकरघिन्नी-सी घूम जाती। कार्तिक से मन के साथ ही तन की दूरियाँ भी बढ़ने लगी थीं। हर रात वासना के नशे में धुत्त रहने वाला कार्तिक अब उसे हाथ भी न लगाता था। पहले वह उसके तन के बोझ से दबी रहती थी तो अब उसकी अनासक्ति के आक्रामक बोझ से। उसका घर पर होना या काम पर होना, अस्तित्व का हर कतरा वातावरण को तरकश बनाए रहता था।
जितनी देर वह घर में रहती, युद्ध का बिगुल बजता रहता या मरघट की मुर्दानगी छाई रहती। उसके समस्त विचार, अकुलाहट, उसकी अंतरात्मा एक मौन धारण किए रहते थे। एक दिन ऐसी ही ज़िंदा पुतले-सी मन:स्थिति में वह थाने पहुँची। एक संदिग्ध अभियुक्त किसी हवलदार के धमकाए से मुँह न खोल रहा था। हवलदार ने जब उसे यह बताया तो उसके बदन में आग-सी दौड़ गई। वह बिजली की फुर्ती से उठी और और संदिग्ध की जमकर धुनाई की। लात-घूँसे-मुक्के जैसे बने, वैसे दिए। संदिग्ध व्यक्ति के शरीर पर बहुत चोटें आईं और वह दर्द से कराहने लगा। उसके शरीर पर जगह-जगह से खून रिसने लगा। वह फिर भी उस पर प्रहार करती रही। यह देख श्रीनिवास दौड़े आए और संदिग्ध को गौतमी से छुड़ाकर अलग किया।
श्रीनिवास पुलिस उपाधीक्षक हो चुके थे। गौतमी की दशा वह बहुत दिनों से निरख-परख रहे थे। अब तक तो उन्हें संदेह ही था पर अब वे यकीन कर चुके थे कि हो न हो, वह किसी मानसिक यंत्रणा से गुज़र रही है; जिसके बारे में न वह कह पा रही है, न सह पा रही है। आज उसके अंदर एकत्र हुआ ज़्वार लावा बनकर फूट पड़ा है। यह संदिग्ध उस ज्वाला की चपेट में आ गया है।
गौतमी की अतिक्रिया से संदिग्ध आतंकित हो उठा और उसने मुँह खोला और तोते की तरह सब उगल दिया। जैसा कि श्रीनिवास को आशा थी कि इससे गौतमी के मुरझाए चेहरे पर कुछ चमक आएगी, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गौतमी बदहवास-सी अपने केबिन में गुमसुम बैठी रही। संदिग्ध की दी जानकारी के अनुसार पुलिस को एक फैक्ट्री में छापा मारने जाना था। श्रीनिवास छापा मारने की तैयारी करने के लिए गौतमी को बुलाने ही वाले थे कि देखा वह अपना बैग उठाकर थाने से निकल रही है। श्रीनिवास पीछे दौड़े पर उसे रोकने का साहस न कर पाए।
गौतमी घर पहुँची तो उसके कपड़ों पर खून के धब्बे थे। घरवालों ने उसे अजनबी आँखों से निहारा। श्वसुर टी.वी देखते रहे और सास पत्रिका पढ़ती रहीं। वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। चोट देने में वह स्वयं भी तो आहत हुई थी। उसकी अपनी कलाइयों पर कई घाव थे और उँगलियों के जोड़ों पर नील पड़ गए थे। कार्तिक ने भी उसे देखा। कुछ पल वह अपलक देखता रहा, फिर सिर नीचे कर अपने लैपटॉप पर काम करने लगा। पहले से दरार खाई गौतमी की काया और हस्ती, चकनाचूर होकर बिखर गई। उसे लगा जैसे सजा हुआ रखा वह गजदंत उसकी गर्दन में गड़ गया है और वह दर्द से छटपटा रही है। उससे खड़ा न रहा गया।
एक क्षण की भी देरी किए बिना वह अंदर चली गई। उसने अपनी वर्दी धुलने के लिए डाली, अपने ज़ख्मों की मरहम पट्टी की। आज साड़ी पहनना और सिर पर पल्लू रखना उस के लिए मुश्किल हो रहा था। उसने गाऊन पहना और रसोई में जाकर अपने लिए हल्दी वाला दूध बनाया और अपने कमरे में चली गई। उसे उम्मीद थी कि कार्तिक खाना बनाने के लिए उससे कहने आएगा और अवश्य ही उससे उसके ज़ख्मों का हाल पूछेगा। वह पलंग पर लेटी हुई दरवाज़े पर कान लगाए रही। हॉल में बैठे अन्य लोगों ने बाज़ार से पिज़्ज़ा मँगवाया और खा लिया। गौतमी गुस्से से बिलबिलाती रही और जाने कब उसकी कागज़ के टुकड़ों-सी फटी हुई पलकें चिपक गईं उसे पता न चला।
आज वह थाने पहुँची तो श्रीनिवास से आँख मिलाने की उसकी हिम्मत न थी। वह सहमे हुए कदमों से अपने केबिन की ओर बढ़ने लगी तो श्रीनिवास ने उसे टोका और तुरंत फैक्ट्री पर छापा मारने का आदेश दिया। वह इस आदेश को सुन हतप्रभ थी। फिर भी उसने सैल्यूट मारकर आज्ञा पालन का संकेत दिया। उसे आशा थी कि दूसरे सब-इंस्पैक्टर के साथ छापा मारा जा चुका होगा। श्रीनिवास ने उसे एक मीठी डाँट पिलाई और काम पर ध्यान देने की नसीहत दी। श्रीनिवास उसके चेहरे पर आते-जाते भावों की किताब मौन होकर पढ़ते रहे।
आधे-अधूरे मन से वह फ़ैक्ट्री की ओर निकल गई। अपराधी के सतर्क होने या फरार हो जाने की आकांक्षाओं से भरी वह फ़ैक्ट्री पहुँच गई। आज वह बहुत दिनों के बाद फ़ील्ड-वर्क पर निकली थी। फ़ैक्ट्री को चारों तरफ़ से घेर लेने की हिदायत अपने सहयोगी समूह को दे, वह चुपके-चुपके अंदर कदम बढ़ाने लगी। उसने बंदूक तान रखी थी। आज सहसा उसे अपनी ताकत का अहसास हो चला था। उसने जाना कि वह कमज़ोर नहीं हो सकती है। वह तो शक्तिस्वरूपा देवी की भक्त है। उसका काम असामाजिक तत्त्वों का नाश कर दुनिया में शांति स्थापित करना है। उसके भीतर का शोर केवल उसकी शक्ति-परीक्षा भर है। आज वह इस अपराधी पर काबू कर के ही रहेगी। उसे किसी हाल में न छोड़ेगी। पिस्तौल पर उसकी उँगलियाँ कुछ और मजबूती से कस गईं।
नज़रों से सभी दीवारों को भेदती वह फूँक-फूककर कदम बढ़ा रही थी कि तभी सामने वाली इमारत से गोलियों की बौछार होने लगी। उसने तुरंत पलटकर गोलियों की दिशा में फ़ायर करना शुरु किया। उसकी पलटन ने भी उसी दिशा में तड़ातड़ फ़ायरिंग की। इतने में फैक्ट्री के अंदर से एक ट्रक बहुत तेज़ गति से बाहर निकला। अगर गौतमी स्पीड से आते ट्रक की आवाज़ से सावधान न होती तो जाने क्या हो जाता। उसने तुरंत अपनी टीम को उसका पीछा करने का इशारा किया। वह कूदकर जीप की ड्राइविंग सीट पर बैठी और ट्रक का पीछा करने लगी।
ट्रक पतली पगडंडियों से होता हुआ जंगल में प्रवेश कर गया। गौतमी की आँखे ट्रक पर जमीं थीं और हाथ स्टीयरिंग व्हील पर। फिर भी जब जीप कई बार लहक गई तो हवलदार ने देखा कि गौतमी के कंधे से खून की धार बह रही है। उसने गौतमी को पीछे बैठकर हुकुम देने का आग्रह किया और स्वयं गाड़ी चलाने को कहा। गौतमी न मानी।
उसने तेज़ गति से जीप चलाते हुए ट्रक के आगे लगा दी। दूसरी ओर से आकर श्रीनिवास ने भी अपनी जीप ट्रक के ड्राइवर की खिड़की के साथ लगा दी। ड्राइवर जैसे ही खिड़की से कूदा, गौतमी ने उसे लपककर गर्दन से पकड़ लिया और फुर्ती से उसके हाथ बाँध दिए। हवलदार ने ड्राइवर को जीप में लादा और स्वयं गाड़ी चलाई। गौतमी को सहारा देकर श्रीनिवास ने अपनी जीप में बिठाया और अस्पताल की दिशा पकड़ी।
जंगल में कई हाथी घूम रहे थे। बड़े-बड़े पंखे जैसे कानों को हिलाते हुए मदमस्त चाल से चल रहे थे। वह झपकती आँखों से उनके दाँत देखती रही। अधिकतर के दाँत टूटे हुए दिखे। वन संरक्षण कार्यकर्ता उन्हें गन्ना परोस रहे थे। हाथी गन्ने को अपने मुख में दबाते, कभी कुछ हिस्सा अंदर चबाते, कभी बाहर निकालते हुए उसका रस चूस रहे थे। गौतमी को लगा कि धीरे-धीरे उसके शरीर का रस भी कोई चूसता जा रहा है। वह मशीन में पिले गन्ने जैसी हो रही है। उसका सारा सत्त खींचा जा चुका है। शरीर अकड़ रहा है और वह बेजान होती जा रही है। सजीव से निर्जीव बनती जा रही है।
दो दिन बाद गौतमी को होश आया। सारी स्थिति याद आने में उसे कुछ क्षण लगे। उसने चारों ओर देखा कि घर, जहाँ उसे घर जैसा अनुभव कभी नहीं हुआ, वहाँ से कोई आया हो कदाचित, पर निराशा ही हाथ लगी। शाम को श्रीनिवास अवश्य उससे मिलने आए। वे उसकी तरक्की व स्थानांतरण के दस्तावेज़ लेकर आए। गौतमी की आँखें डबडबा आईं। उसने उन कागज़ों पर हस्ताक्षर नहीं किए। उन्हें अपने सिरहाने रख लिया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि पहले ही उसकी जोखिम भरी नौकरी और हिमाकत से घर श्मशान बना हुआ है, अब इस तरक्की और तबादले को वह किस कब्र पर उगाएगी? या फिर कौन-सी ज़मीन में इस समस्या को दफ़नाएगी? कैसे जी पाएगी इस नई पदवी को।
“याद रखना गौतमी, कभी-कभी दूर खड़ी जो समस्या जैसी दिखाई दे, ज़रूरी नहीं कि वह समस्या ही हो। पास जाकर देखो शायद वह ही समाधान हो…।” कहते हुए श्रीनिवास बाहर निकल गए।
गौतमी असमंजस में थी। अपने माता-पिता की उसे बहुत याद आई। शरीर से तो वह उन्हें खो चुकी थी किंतु वे उसकी आत्मा से जुड़े हुए थे। बैंक गए उसके माता-पिता, वहाँ हुई डकैती की घटना में डकैतों का शिकार हो गए थे। उसने अपना बटुआ टटोला। उसमें से उनकी तसवीर निकाली। तसवीर में अपने माता-पिता की गोद में उसने अपने बचपन को देखा। यह तसवीर एक मेले में खिंचवाई थी। इसमें वह पुलिस की छोटी-सी वर्दी पहनकर सैल्यूट की मुद्रा में थी और माता-पिता ने उसके सिर पर आशीष भरा हाथ रखा हुआ था। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। बहुत देर बाद वह तूफ़ान थमा जो उसने कब से सीने में दबा रखा था।
अगले दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिली। श्रीनिवास उसे घर छोड़ने गए। घर में उसे सबने देखा जैसा कि वे देखते ही थे। अंतर मात्र यह था कि इस बार उसने किसी को न देखा। वह सीधा अपने कमरे में गई। एक संदूक खाली किया। उसमें अपना सब सामान डाला और बाहर हॉल में आई। सब उसे अवाक्-से देखते रहे। वह सीना तानकर पलटी और शोकेस में से वह ‘गजदंत’ भी उठा लिया जो उसे उसके श्वसुर से पुरस्कार के तौर पर मिला था। उनकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं व मुँह खुला का खुला रह गया।
वह कोलासार चली आई थी। पुलिस के गैस्ट हाऊस में उसे एक माह बीत चला था। उसने कई उलझे हुए केस सुलझा दिए थे। कई अटके हुए आगे बढ़ा दिए थे। नए केसों पर तुरंत कार्रवाही कर दी थी।
आज वही गजदंत देख उसे सब घटनाएँ एक के बाद एक स्मरण हो आईं थीं। वह एक झटके से उठ खड़ी हुई। छज्जे पर आई तो पांडाल में पुलिस उप-निरीक्षक की सेवानिवृत्ति का समारोह चल रहा था। वह नई ऊर्जा से भर उठी। उसने नए पुलिस अधीक्षक को फ़ोन लगाया।
“सर! मुझे किस क्वार्टर में शिफ़्ट होना है, कृपया बताएँ। एक सप्ताह में पुराना क्वार्टर खाली हो जाएगा।”
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