राधा-राधा

– दिव्या माथुर

एक इंजीनियर से विवाह करने के बाद अचानक माधवी को दिल्ली से एक सौ सत्तर मील दूर रुड़की में आकर बसना पड़ा, शायद उसके बेटे भी अपने पिता का ही अनुसरण करें, जिन्हें पैदा होते ही घुट्टी पिलायी गई है, ‘श्रमं विना न किमपि साध्यम्’ अर्थात बिना मेहनत के कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है और हासिल का अर्थ है इंजीनियरिंग जो माधवी जैसी संगीत और नृत्य की रसिया, के लिए महा-बोरिंग विषय है। जब दूसरी बार वह गर्भवती हुई तो उसे पूरा विश्वास था कि उसके बेटी ही होगी पर उसके हाथ निराशा ही हाथ लगी। रुड़की में वैसे ही लड़के ज्यादा हैं, शायद यह इंजीनियरिंग कालेजों की भरमार की वजह से भी हो; दो बेटे पैदा करके माधवी ने शायद इस अनुपात को और भी बढ़ा दिया हो।

बेटी को नृत्य सिखाने की माधवी की साध मन की मन में ही दबी रह गई। विवाह के तुरंत बाद ही उसके पति सुनील को रुड़की में एक बड़े पद पर नौकरी मिल गई। परिवार, रिश्तेदार और दोस्त कीर्तन में लगे थे, ‘लक्ष्मी स्वरूपा माधवी के कदम घर में पड़ने से ही सुनील को यह अकल्पनीय तरक्की मिली है,’ किंतु माधवी को तो जैसे सांप सूंघ गया। दिल्ली में पली बढ़ी और कत्थक केंद्र में दीक्षित, नृत्यांगना माधवी को लगा कि रुड़की जैसे छोटे से शहर में कुछ नहीं होता। माँ-बाप की वह अकेली संतान थी, जो उनकी ढलती उम्र में पैदा हुई थी; उनको रुड़की बुलाना या उनसे मिलने दिल्ली जाना असंभव सा लगता था। जल्दी ही, सहेलियों से मिलना जुलना या उनके साथ नृत्य सीखना और रंगारंग कार्यक्रमों में भाग लेना सब बंद होता चला गया। दो बच्चे हो गए तो उसकी व्यस्तता सीमा लांघ गई, उन्हें पालते पोसते, नाच-गाने की तो छोड़ो माधवी को सांस लेने की फ़ुरसत भी नहीं थी। जैसे जैसे बच्चे बड़े हुए, समस्याएं बड़ी होने लगीं। सोचा कि चलो स्कूल जाएंगे तो वह फिर से अपनी कला को माँज लेगी किंतु आज कल करते, समय उड़ता चला गया।  अब भी जब तब टीस उठती है पर कुछ अधिक महत्वपूर्ण काम उसके सामने आ खड़े होते हैं। दोपहर के कामों से निजात पाकर, माधवी पुरानी फ़िल्मों के वीडियोज़ देख कर मन बहलाती, जिनमें उसकी सास को भी रुचि थी।

माधवी के मना करने के बावजूद कि बच्चों के नाम न बिगाड़ें, रोहण के पैदा होते ही दादी अपने बड़े पोते मोहन को दाऊ कह कर पुकारने लगीं; न न करते हुए घर के सभी सदस्य मोहन को दाऊ कह कर संबोधित करने लगे। वैसे भी मोहन में बच्चों जैसी कोई बात नहीं थी; बचपन से ही उसे पुस्तकें पढ़ना अधिक पसंद था।

‘बिल्कुल अपने बाप पे गया है, सोनू को भी नाच-गाने से ज़्यादा किताबें ही पसंद थीं,’ आँखें नचाती सास कहतीं और उनका आशय होता नाच-गाने जैसे बेकार के कामों से। उन्हें पूत के पाँव पालने में ही नजर आ गए थे, उनका पोता इंजीनियर या डॉक्टर ही बनेगा, इंजीनियर बनेगा तो दोहरा फ़ायदा है, उनका बड़ा बेटा सोनू मैकैनिकल इंजीनियर जो है, मुफ़्त में ट्यूशन हो जाएगी।     

‘और रोहण कुछ कुछ मुझ पर,’ गर्वित हो माधवी कह उठती।  

‘रोहण तो अपने सोनू चाचा पे गया है, ज़रा रेडियो बंद कर दो तो रोने लगता था,’ सास बोलीं; उनका बड़ा बेटा सुनील यानि सोनू और छोटा बेटा मनीष उर्फ़ मोनू। रोहण के पैदा होते ही माधवी सजग थी कि कोई उसका नाम नहीं बिगाड़ पाए। दादी ने एक दो बार कोशिश तो की थी पर शायद उन्हें रोहण को रोनू पुकारना स्वयं ही नहीं जंचा।    

माधवी को निराशा होती कि मोहन या रोहण में उसके अपने परिवार के जींस क्यों नहीं आ पाए। हालांकि कभी-कभी रोहण में उसे अपनी छवि दिखाई दे जाती है; विशेषतः जब वह घर भर में ठुमकता फिरता है, जैसे वह स्वयं अपने घर में नाचती फिरती थी, तीदा दिग दिग थई, त्राम थई। जब भी सास कीर्तन इत्यादि में बाहर जातीं, माधवी बेटों को नृत्य की शिक्षा देने लगती, तीनों को बहुत मज़ा आता था किंतु इस दौरान समय को मानो पंख लग जाते।

मोहन और रोहण के बीच एक वर्ष का भी तो अंतर नहीं था किंतु दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क था; मोहन पतला सीकड़ा और रोहण गोल मटोल; जहां मोहन अकेले में बैठना पसंद करता, वहीं रोहण सदा मम्मी या दादी से चिपके रहना चाहता। जो भी हो दोनों भाइयों में ग़ज़ब का एका था। मोहन को कोई उपहार दिया जाता तो वह फट पूछ बैठता ‘और रोहण का?’ दादी रोहण को खीर या हलवा देती तो वह झट कह उठता, ‘और दाऊ की?’ मोहन के मुकाबले वह तिगुना खा सकता था। सौ सौ दुआएं देती दादी का भी वह दुलारा बन चुका था।

मनीष का दफ़्तर घर की पहली मंजिल पर ही था; वह जब देखो तब मोहन और रोहण के आस पास ही नज़र आते। उन्हें स्कूल ले जाना वापिस लाना, डॉक्टर्स को दिखाना, सौदा सुलफ़ा इत्यादि सब उन्होंने ही संभाल रखा था। माधवी को भी कहाँ फ़ुरसत थी; तिस पर उठते बैठते सास का पैंडुलम की तरह उसे टोकना और उसका तेज़ी से ड्यूटी बजाते फिरना।  सुनील तो अधिकतर दौरे पर ही रहते, उनका होना न होना घर भर के लिए एक बराबर था। शादी के आरंभ में माधवी कभी कभी बाहर जाने को कहती तो वह थकान का बहाना बना कर बिस्तर में पड़े अपना लैपटॉप पर काम करते रहते।  

‘माधवी, अपना सोनू चीफ़ इंजीनियर है, सैंकड़ों काम रहते हैं उसके सिर पर, घर में तो उसे चैन से रहने दिया करो,’ दिन में दादी किसी को सुनील के पास तक नहीं फटकने देती थीं। सारा काम निपटा कर रात को जब माधवी शयन कक्ष में पहुँचती, सुनील खुर्राटे मार रहे होते। पति के प्रभुत्व स्वीकार करने के अतिरिक्त उसके पास चारा भी क्या था। मन में भड़ास दबाए वह अधिकतर मेहमानघर में ही सो रहती। पति अथवा सास ने कभी इसका कारण जानने की कोशिश नहीं की। वैसे, उसे भी केवल एक ही कमी खलती थी, नृत्य की, जिसे वह घर और बच्चों में पूरी तरह उलझ कर पाटने का प्रयत्न करती थी।  

स्कूल के सालाना कार्यक्रम में माधवी ने मोहन को कृष्ण और रोहण को राधा बना कर भेजा तो सजी धजी ये जोड़ी सभी को बहुत मोहक लगी; अध्यापिकाएं और दर्शक उनको एकटक देखते रह गए, माधवी सातवें आसमान पर थी। घर लौटने पर दादी उनकी नज़र उतारने को तैयार बैठी थीं। दोनों में से एक को छींक भी या जाती तो वह बहु को ही दोष देतीं कि क्या जरूरत थी उनके पोतों का जुलूस निकालने की, ‘न जाने किस कुलमुँही ने नज़र लगा दी हो,’ 

‘कलमुँहा भी तो हो सकता है, माँ,’ मोनू चाचा चिढ़ाते।   

‘आदमियों को कहाँ फ़ुरसत है नज़र-वज़र लगाने की,’

‘औरतों को और काम भी क्या है, क्यों माँ?’ मनीष के इस तंज पर दादी चुप रह जातीं और माधवी मुस्कुरा उठती; उसके जीवन की सार्थकता मानो ऐसे ही कुछ क्षणों में समाई थी। ससुराल में एक मनीष ही तो थे जो उसका सम्मान करते थे। प्यार से वह उन्हें भैया कहती थी, पिछली राखी पर उन्होंने माधवी से राखी भी बँधवाई थी; उसका अपना तो कोई भाई था नहीं। नाना-नानी उनको रुड़की बुलाना या उनसे मिलने दिल्ली जाना असंभव सा लगता था; वे वाट्सऐप पर साप्ताहिक वार्तालाप से ही प्रसन्न थे। कभी-कभार रोहण मम्मी से कह उठता था, ‘मुझे नाना नानी से बात करनी है,’ तो माधवी और उसके माँ-बाप के ह्रदय में ममता उमड़ पड़ती। रोहण और मोहन को नाचते गाते देख उनका मन नहीं भरता था। पृष्ठभूमि में दादी ज़ोर शोर से इस वार्तालाप में भाग लेतीं और संबंधियों की तारीफ़ का श्रेय भी बढ़ कर ले लेतीं।

स्कूल के वार्षिकोत्सव पर आयोजित इस वर्ष मोहन और रोहण ने ‘अरे जा रे हट नटखट, न खोल मेरा घूंघट, पलट के दूँगी आज तुझे गारी रे,’ गीत पर नृत्य प्रस्तुत किया तो पूरा हॉल तालियों से गुंजायमान था; उसके बाद तो शहर भर में आयोजित होने वाले बाल-कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाने लगा; पुरस्कार मिलने लगे। रास्ते में लोग रुक रुक कर उनकी तारीफ़ करते, सास बहु फूल कर कुप्पा हो जातीं। जहां रोहण सदा एक नया गीत या नृत्य सीखने को राज़ी हो जाता, मोहन का मुंह टेढ़ा हो जाता। कार्यक्रम सम्पन्न हो जाने के बाद, जहां मोहन झटपट अपनी पोशाक बदल लेता, रोहण जहां तक संभव हो पोशाक और गहने उतारने से साफ़ इंकार कर देता। उम्र बढ़ने के साथ साथ दोनों में यह बदलाव तेज़ी से आया।

आठवीं कक्षा में आते आते कृष्ण और राधा की जोड़ी के रूप में जाने जा रहे मोहन और रोहण के सहपाठी उनका मज़ाक उड़ाने लगे, शुरू शुरू में मोहन ने इसका विरोध किया पर उस अकेले की बात कौन सुनता। वह पहले से ही अंतर्मुखी था और इसी कारण सहपाठियों को उसे छेड़ने में मज़ा नहीं आता था। मध्यांतर के दौरान सहपाठी रोहण को ही राधा-राधा पुकार कर उसके चारों ओर ठुमके लगाते रहते। रोहण स्वयं बुरा नहीं मानता था किंतु उसका मज़ाक बनते देख मोहन को बहुत गुस्सा आता; वह लड़-भिड़ नहीं सकता था; न ही वह अपने मन की बात किसी को बताता था, वह कुंठित हो चला था। शिक्षकों को उनकी दुविधा की गंभीरता का एहसास न था, वे तो बस पाठ्यक्रम के पूरा करने में व्यस्त रहते। घर वालों को इसकी भनक तक नहीं थी।

मनीष ने देखा कि मोहन अब ड्राइवर के साथ आगे बैठने लगा था जबकि पहले दोनों भाई कार में पीछे बैठे रास्ते भर बातें बनाया करते थे। उनके सहपाठियों की ‘राधा राधा’ की तानकशी भी मनीष के कान में पड़ चुकी थी; किंतु उनका विरोध करने पर समस्या बढ़ सकती थी। ऐसी बातें घर वालों को सबसे बाद में पता लगती हैं। ऐसी बातें माँ, बड़े भाई और भाभी से कैसे की जा सकती हैं। मोहन और रोहण तो अभी यह भी नहीं जानते थे कि समस्या है क्या है किंतु समाधान न निकाला गया तो जल्दी ही यह बात तूल पकड़ लेगी। इसमें रोहण का क्या दोष है, खूबसूरत तो वह था ही, अपने भरे बदन की वजह से वह अपनी उम्र से बड़ा भी दिखता था; उसका लचीलापन, आवाज़ और बात करने का अंदाज़, सब लड़कियों जैसे थे किंतु किसी का उसे स्त्रैण कहना मानो गाली देना लगता था और इसीलिए मनीष इस विषय पर माधवी से बात करते घबराता था।

माधवी ने रोहण को अकेले में अपनी साड़ी लपेटते और आईने के सामने गले में दुपट्टा डाले इतराते कई बार देखा था। उसके मन में भी काफ़ी समय से घोर संकट चल रहा था। रोहण जब पेट में था तो वह हमेशा बेटी के विषय में ही सोचती रहती थी, क्या वो इसीलिए तो ऐसा नहीं हो गया।  रोहण की इस प्रवृति के विषय में किसी डॉक्टर से राय ले, शायद इसका कुछ इलाज हो। किंतु पति से इस विषय में जब भी कुछ कहना चाहती, उसे लगता कि वह उन्हें अपनी ही ख़ामियाँ बताने जा रही हो। सुनील ने उसकी किसी बात को गंभीरता से कभी लिया नहीं। कुछ भी कहे, एक ही जवाब, मोहन और रोहण किशोरावस्था के कठिन दौर से गुज़र रहे हैं, सब ठीक हो जाएगा।

पढ़ाकू और बोरिंग दिखने वाले मोहन में किसी की रुचि नहीं थी। वो अपनी मोटी सी पुस्तक में सिर गड़ाए अपने डेस्क पर बैठा रहता। भोजनावकाश के दौरान भी लड़कियां रोहण को देख कर मुस्कुरा भी देतीं तो मोहन को आग लग जाती; वह जल्दी जल्दी खाना मुँह में ठूंस कर क्लास में जा बैठता। मोहन को उसका अपने पीछे आना भी गवारा न था। न जाए तो लड़कियां रोहण को आ घेरतीं; जो उसे अच्छा लगता था। शरारती सहपाठियों के छेड़ने पर वही तो उसका साथ देतीं थीं, विशेषतः मेधा, जो क्लास की मौनीटर भी थी; पढ़ाकू तो वह भी थी किंतु मस्ती करने और कराने में भी नंबर एक थी। उसने कई बार मोहन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया किंतु मोहन को लगता कि ऐसा वह रोहण के कहने पर ही कर रही है। उधर, रोहण को चौबीसों घंटे दाऊ के रूठ जाने की फ़िक्र रहती थी और इसीलिए पढ़ाई में उसका ध्यान नहीं जमता था।   

घर का वातावरण पहले जैसा ही था किंतु मोहन को लगने लगा कि पढ़ाई में उसके हमेशा अव्वल आने के बावजूद सब रोहण को ही अधिक प्यार करते हैं। पुस्तकों के पीछे चेहरा छिपाए मोहन की पैनी नज़र घर के हर सदस्य का मुआयने में लगी रहती। हमेशा की तरह, रोहण आज भी खुद खाने से पहले हलवे या खीर की कटोरी मोहन के लिए ले जाता पर वह गुस्से में ‘न’ में सिर हिला कर मुंह फेर लेता। रोहण अपना सा मुंह लेकर रह जाता, उसने शिकायत करना सीखा ही नहीं था। स्कूल आने जाने और भोजन के समय दोनों को साथ ही रहना पड़ता; उन्होंने ख़ामोशी एख़तियार कर ली थी, जो पूरे परिवार को खल रही थी।

‘मोहन, बेटे, कभी कभी अपने छोटे भाई की भी पढ़ाई में मदद कर दिया कर,’ मम्मी और दादी के निवेदनों को मोहन साफ़ टाल जाता। किसी को उसकी नाराज़गी का सबब समझ नहीं आ रहा था।

स्कूल में मोहन हमेशा टॉप करता था किंतु परिवार की खुशी आधी रह जाती क्योंकि मेहनत और ट्यूशन के बावजूद, रोहण के 45-50% से अधिक नंबर कभी नहीं आए। मोहन को लगता कि रोहण की वजह से उसकी पार्टी मारी गई जबकि उसकी पसंद की पेस्टरीज़ मँगवाई जातीं थीं, अपनी प्लेट उठाए वह अपने कमरे में जा बैठता; उसे लगता कि यह सब मात्र एक दिखावा था। मन ही मन दादी मोहन से खफ़ा रहतीं कि वह रोहण से इतनी रुखाई से क्यों पेश आता है। रोहण की समझ में इतना तो आ ही गया था कि जब भी कोई उसके लाड़ करता है, मोहन को अच्छा नहीं लगता।

‘दादी, आप दाऊ को मेरा जितना प्यार क्यों नहीं करतीं?’ 

‘क्योंकि वो मुझ से बात तक नहीं करता,’ कहते हुए दादी की आँखों में आँसू आ गए।

‘रोहण, यह तुझ से किसने कहा कि दादी मोहन से प्यार नहीं करतीं? जानते हो, तुम्हारे पैदा होने से पहले, दादी उसे एक मिनट के लिए गोदी से नहीं उतारती थीं। हम सब तुम दोनों को अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं,’ माधवी दोनों बेटों को ही लेकर परेशान थी, वह मोहन को अतिरिक्त ध्यान देने लगी किंतु जितना वह उसके लाड़ करती, मोहन उतना ही और चिढ़ जाता, जैसे कह रहा हो, ‘मुझे बेवकूफ़ समझ रखा है क्या?’ रोहण भी दादी और मम्मी से दूरी बनाए रखता ताकि दाऊ के सामने वे उससे प्यार न जताऐं। ऐसा नहीं था कि दादी नासमझ थी, वह अपने ही तरीके से चुपके चुपके रोहण को सुधारने के प्रयत्न करने में लगी थीं।  

‘लड़के लचक कर चलते अच्छे नहीं लगते, रोहण, कंधों को सीधा रखो, बिना बात के मुस्कुराने की कोई जरूरत नहीं है, शर्मा क्यों रहे हो, आवाज़ को भारी करके बोलो,’ वगैरह वगैरह। एक तरफ़ जहां दादी रोहण को सुधारने में लगी थीं; माधवी उनके निशाने पर सदा रहती; सीधे सीधे नहीं, बुदबुदा कर कह उठतीं।

“और सिखाओ बेटों का नाच-गाना,’

माधवी जानती थी कि यह वह अपनी झींक निकालने के लिए ही करती हैं किंतु वह अपनी झींक किस पर उतारती; उसे क्रोध आता; घर का माहौल भारी हो जाता! सास-बहु में खटपट बढ़ी तो तय था कि माधवी और सुनील की दूरियाँ भी बढ़तीं।

‘कोई ज़रूरत नहीं है तुम सबको ऐसे वैसे वीडियोज़ देखने की,’ सुनील ने कहा तो माधवी का दिल टूट गया, वे सब उसी को दोषी ठहराने के प्रयत्न में लगे थे।   

‘समाधान ढूँढने के बजाय भाभी पर अपना रोष निकाल कर आप दोनों वास्तविक समस्या को दरकिनार कर रहे हैं,’ मनीष कई बार माँ और भाई को टोक चुका था किंतु मनीष के सहारे के बावजूद माधवी को लगने लगा कि जैसे समस्या की जड़ स्वयं वही है, न वह उन्हें नाच गाना न सिखाती, न उन्हें ये दिन न देखने पड़ते। उसका आत्मविश्वास खो गया था, उसका समूचा व्यक्तित्व बिखर गया था।

माधवी ने स्थानीय पुस्तकालय को छान मारा किंतु इस विषय पर उसे कोई पुस्तक नहीं मिली। मेज़ पर किसी पाठक के द्वारा छोड़ डी गई एक पुस्तक, धर्म और समलैंगिकता, को पढ़ कर वह और भी परेशान हो गई, धार्मिक शब्दजाल में उसे नहीं फंसना। हाँ, ‘समलैंगिकता’ की बात उसकी समझ में आई, जो एक यौन अभिविन्यास है। ऐसा व्यक्ति अपने ही लिंग के लोगों के प्रति प्रेमपूर्ण या यौन रूप से आकर्षित होता है। किंतु रोहण की समस्या यह नहीं है, उसे तो सिर्फ़ लड़कियों की तरह सजना संवरना पसंद है; उसका व्यवहार लड़कियों जैसा है; इस विषय पर उसे कोई पुस्तक नहीं मिली। दिन रात वह सोचती रहती कि रोहण को इस रोग से कैसे निजात दिलाए; यह रोग ही तो था, जिससे घर में कई लोग ग्रस्त-त्रस्त थे।   

दसवीं जमात तक आते आते मोहन का रुख़ और रवैया दोनों बदल गए। मन ही मन उसने ठान लिया कि परिवार की ज़्यादतियों को नज़रन्दाज़ करके वह केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करेगा ताकि जल्दी से जल्दी से वह कुछ बन जाए और अपने परिवार से मुक्ति पा सके। रोहण जैसे दाऊ के मन की सब बातें समझता था और इसके लिए वह स्वयं को दोषी ठहहराने लगा था। उसका पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता था, किताब खोले वह इन्हीं विचारों में डूबा रहता कि कैसे वे पुराने दिन लौट आयें।

फिर एक दिन, क्लास में हाल ही में भर्ती हुए एक नये लड़के कीर्ति की नकल में कई अन्य लड़के रोहण को घेर कर ‘ड्रैग-क्वीन, ड्रैग-क्वीन’ कहते हुए नाचने लगे। इस नए हमले से रोहण बेहद घबरा गया; इन शब्दों से वह नावाकिफ़ था; कहीं ये गाली तो नहीं? बेचैनी में उसने अपने दाऊ की ओर देखा; मोहन ने बीच बचाव करने की कोशिश तक नहीं की। तभी हाथ उठाए मेधा सबके बीच आ खड़ी हुई; किसी निजी कारणवश वह आज सुबह देर से स्कूल पहुंची थी।

‘शट-अप, शेम ऑन औल ऑफ़ यू, अपनी बकवास से तुम अपनी ही बेवकूफ़ी ज़ाहिर कर रहे हो, कीर्ति, और तुम सब भेड़-बकरियों की तरह ..’ क्लास-टीचर की मेज़ के आगे खड़ी मेधा गुस्से में भरा देख सबको सांप सूंघ गया; मोहन को अपने पर ग्लानि हो आई; एक लड़की होते हुए मेधा अपने सभी सहपाठियों को ललकार रही थी और बड़ा भाई होते हुए वह दुम दबाए बैठा रहा।

‘दुनिया में सब लोग एक जैसे नहीं होते, हम सभी में लड़के और लड़कियों दोनों के हार्मोनज़ होते हैं। तुम लोग रीना को भी टॉम-ब्वाय कह कर छेड़ते हो; जैसे उसमें लड़कों के हार्मोनज़ अधिक हैं, रोहण में लड़कियों के, इसमें इतना शोर मचाने की ज़रूरत है? और याद रखो, यह कोई नहीं जानता कि हम में से कब किसके कौन से हार्मोनज़ घट बढ़ जाएं। ऐसा होने पर यदि तुम्हारा मज़ाक उड़ाया जाए तो तुम्हें कैसा लगेगा?’ तमतमाई हुई मेधा रूआँसे हो आए रोहण के पास जा बैठी। बात आई-गई हो गई, उसके बाद कभी किसी सहपाठी ने रोहण को परेशान नहीं किया।

मेधा की माँ मनोचिकित्सक हैं, यह जानकारी मेधा को उन्हीं से मिली थी। उसकी बातों ने मोहन और रोहण के अलावा सभी सहपाठियों को सोचने को मजबूर कर दिया। मोहन में एक तो बदलाव तत्काल आया कि उसके चेहरे पर अवसाद का स्थान विचारशीलता ने ले लिया। रोहण ने घर जाकर माधवी को स्कूल का किस्सा सुनाया। माधवी को याद आया कि जब वे हनीमून के लिए थाइलैंड गए थे तो उन्होंने एक कार्यक्रम देखा था जिसमें सुंदर पुरुष बिकनीज़ पहने श्रोताओं का मनोरंजन नृत्य कर रहे थे। कहीं उसका बेटा भी ऐसा ही तो न बन जाएगा? उसके दिमाग़ में हलचल मची थी पर किससे कहती, एक मनीष था जिससे बात की जा सकती थी, जो पति और सास को मंज़ूर न था।  

स्कूल के अंतिम वर्ष में मोहन ने पूरी रुड़की में टॉप किया था, सब आश्वस्त थे कि उसे रुड़की में के ही स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल जाएगा। ओपन-डे पर रोहण माँ और चाचा के साथ कॉलेज देखने गया था, जहां शाम को एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किया गया था; जिसमें स्पिक मैके के सहयोग में भारतीय संस्कृति को सहेजने वाली देश की जान-मानी हस्तियों ने अपनी प्रस्तुतियां दीं, कथक, भरतनाट्यम, संगीत, आर्ट एंड क्राफ्ट जैसी कार्यशालाएं भी आयोजित की गई थीं, जिसका गुणगान करते माँ बेटा थकते नहीं थे। रोहण को जब वहाँ ग्राफ़िक-डिज़ाइन में दाखिला मिल गया तो माधवी सातवें आसमान पर थी; उसे भी शायद अब मौका मिल जाए वहाँ कुछ सीखने का।

रोहण जानता था कि दाऊ जिस किसी कॉलेज पर हाथ रख देंगे; उसे में उनको दाखिला मिल जाएगा और घर छोड़ जाने का बहाना; वही हुआ। घर में सब सुविधाओं के होते बी.ए. के दौरान मोहन ने दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेकनौलोजी के हॉस्टल में रह कर पढ़ाई करने की ज़िद ठान ली थी। पिता ने दिल्ली की महंगाई का हवाला दिया, दादी ने दिल्ली की तमाम बुराइयों का ज़िक्र कर डाला, पिता कॉलेज के खर्चे को लेकर परेशान थे किंतु माधवी को लग रहा था कि मोहन की अनुपस्थिति में घर का वातावरण सुधार जाए, दादी और माधवी रोहण का डर कम हो जाए, वे रोहण से खुल कर बात कर सकें, प्यार जता सकें किंतु रोहण इसके लिए स्वयं को ज़िम्मेदार ठहरा रहा था। 

सप्ताहांत पर मोहन का जन्मदिन था, जिसे माधवी बड़ी धूमधाम से मनाना चाहती थी क्योंकि अपने स्कूल में ही नहीं बल्कि पूरे शहर के स्कूलों में उसने टॉप किया था; मेधा द्वितीय थी। दोनों के लिए ही एक बड़े जश्न की बात थी। माधवी ने रोहण के हाथ मेधा और उसके परिवार वालों को निमंत्रण भिजवाया था। मन ही मन माधवी तय किए बैठी थी कि सुनील उसके साथ चलें या न चलें, वह एक दिन मेधा की माँ से ज़रूर मिलने जाएंगी। मोहन के घर छोड़ देने से पहले वह रोहण का मुद्दा सुलझा लेना चाहती थी ताकि भाइयों का परस्पर प्रेम बना रहे। कहीं यह न हो कि मोहन बहाने बना कर छुट्टियों में भी घर ना आना चाहे।

मेधा और उसकी मम्मी डॉ वासुदेव के निमंत्रण स्वीकार कर लेने के उपरांत भी माधवी को लगा कि एक बार उन्हें फ़ोन कर लेना चाहिए पर इतनी बड़ी डॉक्टर से बात करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसने मनीष से उनसे बात कर लेने का अनुरोध किया। मनीष ने फ़ोन घुमाते हुए सोचा कि शायद मेधा के पिता से बात होगी किंतु फ़ोन स्वयं डॉ वासुदेव ने उठाया।

‘जी धन्यवाद, आप सबको बहुत बहुत बधाई हो, मैं और मेधा पार्टी में अवश्य आएंगे,’

‘हमारा अनुरोध है कि आप अपने पति को भी साथ लाएं,’ माधवी के उकसाने पर मनीष ने कहा।  

‘पति होते तो अवश्य लाती, फ़िलहाल तो हम माँ बेटी ही आएंगे,’ कहते हुए डॉ वासुदेव हंसने लगीं; मनीष ने भाभी की ओर देखते हुए अपनी जीभ काट ली। फ़ोन पर बात करने के बाद माधवी और मनीष की हिम्मत बढ़ी कि उनसे रोहण के विषय में खुल कर बात की जा सकती है। पार्टी की तैयारी के साथ दोनों ने मिलकर बहुत से प्रश्न लिख लिए थे जो डॉ वासुदेव से पूछे जा सकते थे। मनीष ने कहा कि पार्टी के दौरान माधवी को उनसे वक्त लेना होगा; वे दोनों ही अधीर हो उठे थे।

अगले दिन सुबह सुबह डॉ वासुदेव का फ़ोन आया, फ़ोन उठाने की ड्यूटी भी मनीष की ही थी। वह हड़बड़ा के उठ खड़ा हुआ। डॉ वासुदेव ने सूचना दी कि पार्टी के लिए मेधा और वह केक बनाने जा रही हैं।  

‘आप परेशान न हों, भाभी ने ऑर्डर कर दिया है,’

‘प्लीज़ कैंसल इट नाउ,’ माँ-बेटी के हंसने की आवाज के साथ फ़ोन बंद कर दिया गया।  

पार्टी में नज़दीकी रिश्तेदारों, पड़ोसियों, मोहन-रोहण के सहपाठियों के अतिरिक्त डॉ वासुदेव भी शामिल थीं। आज माधवी ने पूरे घर को गुब्बारों और फूलों से सजवाया गया था; भोजन के लिए नौजवान शैफ़ को बुलाया गया था, जो किशोरों के मनपसंद भोजन बनाने में कुशल था। मनीष कहाँ पीछे रहने वाले थे; उन्होंने लाइव-संगीत का प्रबंध किया था; जिसे मोहन और रोहण के सहपाठी बेहद उत्तेजित थे। मेधा ने अपनी माँ का माधवी और सुनील से परिचय करवाते हुए उन्हें चाचा से भी मिलवाया। पति और सास के सामने माधवी डॉ वासुदेव से रोहण के विषय में बात नहीं करना चाहती थी। बातों ही बातों में मनीष ने डॉ वासुदेव से निजी परामर्श के लिए समय मांगा तो अपनी उसे चिरपरिचित हंसी से साथ वह राज़ी हो गयीं; मेधा उन्हें रोहण के विषय में पहले ही बता चुकी थी।  

पार्टी के दौरान, मोहन चाह कर भी अपनी को प्रसन्नता दबाए न रख सका; उसके इस बदले  हुए नरम अंदाज़ को देख कर पूरा घर प्रसन्न था। मेधा ने जब मोहन को एक भारी पैकेट थमाया तो उसने कृतज्ञतापूर्वक पर कुछ सकुचाते हुए उसे उपहारों की मेज़ पर रख दिया।

‘देखोगे नहीं, मोहन? आशा है कि तुम्हें हमारा उपहार अच्छा लगेगा?’ अपनी मम्मी को देखते हुए मेधा ने पूछा; सभी की नजरें मोहन पर जमी थीं, जो सबके सामने पैकेट खोलने में संकोच महसूस कर रहा था। मेधा ने पैकेट उठा कर मोहन को एक बार फिर थमा दिया, जो उसने झिझकते हुए खोला, चार दर्जन आँखें मोहन पर जमी थीं। विवेकानंद – ऐ बायोग्राफ़ी – मोहन सहित सभी मेहमान हैरान थे मेधा की परिपक्व पसंद पर।

मोहन ने विवेकानंद का नाम महान लोगों की सूचियों में पढ़ा था; उनमें उसकी रुचि इसलिए भी जगी थी कि उन्होंने लिखा है कि ‘ब्रह्मचर्य का पालन करने से मस्तिष्क तेज़ हो जाता है, एकाग्रता बढ़ती है’। यही तो मोहन चाहता है कि बेकार की बातों से अपना दिमाग हटा सके किंतु ब्रह्मचर्य के शब्द को देख कर उसे अटपटा लगा था; बात आई-गई हो गई पर अब इस पुस्तक को अपने हाथ में देख वह अवाक रह गया था। भर्राए गले से उसने मेधा और उसकी मम्मी को धन्यवाद दिया। पार्टी के शोर-शराबे के दौरान भी उसका ध्यान में पुस्तक पर ही लगा रहा। रोहण नाच गाने में पूरी तरह डूबा हुआ था। 

‘इन्जॉय दि मौमैंट, मोहन, यू हैव औल नाइट टु रीड दिस बुक,’ डॉ वासुदेव ने मोहन से कहा।  मेधा उसका हाथ पकड़ पर भीड़ के बीच में ले गई; वह अपनी झेंप पर काबू पाते हुए मुस्कुराने लगा; चेहरे पर बरसते नाजुक जज़्बात छिपाए न छिपे, माँ, चाचा और मेधा की माँ मुस्कुरा रहे थे; पार्टी पूरी तरह से कामयाब सिद्ध हुई थी।          

मंगलवार को डॉ वासुदेव ने माधवी को सपरिवार चाय पर बुलाया था जबकि माधवी और मनीष उनसे अकेले में ही मिलना चाहते थे। सुनील दौरे पर थे। फूलों के एक बड़े गुच्छ और गुलाब जामुन के एक डिब्बे के साथ वे उनके घर पर समय पर पहुँच गए थे; उनके घर राजेन्द्र नगर से सिविल लाइंस से अधिक दूर नहीं थी, जहां उनकी आलीशान कोठी एक पौश इलाके में थी, खूब हरी-भरी, जिसकी मुंडेरें रंग बिरंगे बोगेनवेलिया से ढकी थीं।

ऐसा साफ़ सुथरा घर माधवी ने अपने जीवन में पहले कभी न देखा था। मोनू चाचा, मोहन और रोहण को मेधा सीधे कंज़रवेटरी में ले गई। माधवी डॉ वासुदेव के साथ रसोई में चली आई। ऐसी चमकती रसोई, जिसके सफ़ेद टेबल-टॉप्स एकदम सफ़ाचटट थे, न कप-प्लेटें, न केतली, न चम्मच; कहाँ है सब चीजें? वह उनकी क्या मदद कर सकती है?

‘प्लीज़, आप मुझे राधा ही कहिए, डॉ वासुदेव ने माधवी से अनुरोध किया तो माधवी पशोपश में पड़ गई। ‘राधा’ के नाम से कहीं मोहन और रोहण विचलित न हो जाएं। राधा जैसे खूबसूरत नाम को इस नए संदर्भ ने एक भद्दा मज़ाक बना कर रख दिया है। माधवी ने तय किया कि वह उनका नाम लिए बिना ही काम चला लगेगी।  

डॉ वासुदेव ने अलमारी से चमचमाती एलेक्ट्रिक-कैटल निकाली और जग से उसमें पानी भर कर प्लग औन कर दिया। दूसरी तरफ़ लगी शीशे की अलमारी में से राधा ने खूबसूरत चाय कप-पलटेस, छोटे चम्मच, मीठे और नमकीन बिस्किट्स और फिर फ्रिज में रखी पेस्ट्रीज़ झटपट प्लेटस में सजा दीं। माधवी को अपनी रसोई याद आई, जहां सब कुछ बाहर रहता है, अलमारियाँ अलग भरी रहती हैं; मन भर आटे, दस-बीस किलो दाल, चावल और मसालों के बड़े-बड़े टीन के कनस्तरों से और गंदे बर्तनों से भरा सिंक महरी का घंटों इंतज़ार करता है। माधवी को लगा कि ऐसी बेहतरीन रसोई की स्वामिनी का दिलो-दिमाग भी उतना ही बेहतरीन है।

‘आई होप मोहन और रोहण को पाइन-एप्पल पेस्ट्रीज़ पसंद हैं,’ डॉ वासुदेव के पूछने पर माधवी चौंक गई।

‘जी जी, आपको इतना कुछ सर्व करने की जरूरत नहीं है,’ माधवी ने झेंपते हुए कहा।    

‘यह तो कुछ भी नहीं, आपकी मेहमाननवाज़ी के बारे में मेधा मुझे बताती रहती है,’

‘ओह,’ माधवी सकुचा उठी, ‘लाइए मैं ये ट्रे बच्चों को देकर आती हूँ,’

‘अरे नहीं, हम साथ ही बैठते हैं न,’

और सब खाने की मेज़ पर आ बैठे। मेज़ के बीचों बीच – कौरडिलिया फ़ाइन की पुस्तक ‘डिल्यूज़न ऑफ़ जेन्डर’ रखी है; शायद जान बूझ कर रखी गई थी। कहाँ माधवी सोच रही थी कि खाने पीने के बाद जब बच्चे बैठक में चले जाएंगे तो वे गम्भीरतापूर्वक बात करेंगे। रोहण और माधवी दोनों ही असहज नज़र आ रहे थे, मनीष आँखों ही आँखों में उनको सहज रहने का संदेश भेज रहा था।

मोहन और मेधा कोने में रखे रिकॉर्ड-प्लेयर पर चलाने के लिए एक रिकार्ड चुन रहे थे। मोहन ने जॉन ट्रैवोल्टा का नृत्य-गीत ‘यू आर दि वन दैट आई वांट’ उठा लिया था। मेधा ने उसे प्लेयर पर लगा दिया और फिर वे दोनों सबके साथ मेज़ पर आ बैठे। 

‘मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है,’ डॉ वासुदेव ने कहा।

‘हाँ मम्मी, इसे सुन कर मेरा हमेशा नाचने का मन करता है, जॉन ट्रैवोल्टा मनीष चाचा जी को भी बहुत पसंद है,’ कुर्सी पर बैठे बैठे मेधा मटकने लगी।

‘यह भारत में भी बहुत लोकप्रिय है। कुछ जेंडर-बेंडर्स के नाम तो तुमने सुने ही होंगे, जॉन ट्रैवोल्टा की तरह ही पॉल ओग्रेडि, लिली सैवेज, डेम एडना, जोन ऑफ़ आर्क सभी क्रॉस-ड्रेसर्स थे,’ डॉ वासुदेव सीधे-सीधे विषय पर आ पहुंची थीं। एकाएक कमरे में शांति छा गई।

‘हमारे तो सभी ऐक्टर्स क्रॉस-ड्रेसर्स हैं, शाहिद कपूर, सलमान खान, आमिर खान,’ मनीष ने खामोशी तोड़ी। माधवी ने उसे घूर कर देखा।

‘और गर्ल्स भी तो..’काजोल, प्रीति जिंटा, कंगना रनौत..’ रोहण कहते कहते रुक गया।

‘और मोहन की पसंदीदा कैटरीना कैफ़,’ मोहन को चिढ़ाते हुए मेधा बोली तो वह झेंप गया।   

‘क्रॉस-ड्रेसिंग सदियों से चली आई है, विश्व में बहुत प्रसिद्ध क्रॉस-ड्रेसर्स हुए हैं, यानि कि ट्रांसवेस्टाइट, कुछ लोग इस शब्द को अपमानजनक मानते हैं, बहुत और भी शब्द हैं, जिन पर लोग आपत्ति उठाते हैं, जैसे हिजड़ा, पुफ्फ़, लुगाइयया वगैरह,’

‘चिढ़तों को चिढ़ाएंगे, हलवा पूरी खाएंगे,’ मेधा ने शायद वातावरण को हल्का करना चाहा था,’

‘बिल्कुल, दिमाग खराब करने वाले ऐसे इशारों से बच कर निकल जाना ही बेहतर है, किस किस का मुँह बंद किया जा सकता है?’ मनीष ने जोड़ा।

‘एक बात और, क्रॉस-ड्रेसिंग समलैंगिकता का संकेत नहीं है, अमेरिका में एक बड़े शोध के अनुसार चार में से एक पुरुष और छह में से एक महिला क्रॉस-ड्रेसिंग के बारे में सोचते हैं। कुछ लोग वास्तव में प्रजनन या यौन शरीर रचना के साथ पैदा होते हैं; जो पुरुष और महिला के पारंपरिक सेक्स बायनेरिज़ में फिट नहीं होते हैं। इसे आम तौर पर ‘इंटरसेक्स’ कहा जाता है, और इंटरसेक्स लोगों को भी पीरियड्स हो सकते हैं,’

‘मम्मी मुझे भी ऐसे ही लेक्चर पिलाती रहती हैं,’ एकाएक मेधा ने उठ कर नमकीन और केक्स की प्लेटस भौंचक बैठे मेहमानों के सामने घुमाईं तो वे जैसे तंद्रा से उठे हों।

‘ओह! सौरी, मैं जब किसी विषय पर बात करती हूँ तो भूल जाती हूँ कि मैं अपने स्टूडेंट्स या रोगियों से बात नहीं कर रही,’ डॉ वासुदेव चुप हो गयीं।

‘नहीं, नहीं, डॉ वासुदेव..अरर..राधा जी, यह विषय हमारे लिए बिल्कुल नया है, मनीष भैया तो फिर भी कुछ कुछ जानते हैं पर .. मुझे कितना कुछ जानने को मिल रहा है, धन्यवाद,’

‘जी, राधा जी, सबसे अच्छी बात यह है कि ऐसी बातें, जो आम तौर पर लोग छिपा कर रखते हैं, आप खुले में कर रही हैं,’ मनीष ने कहा।

‘मम्मी, मैं और मोहन ट्रांसजेंडर और ट्रांसवेस्टाइट के बीच का अंतर जानना चाहते हैं,’ मोहन की ओर देखते हुए मेधा ने पूछा, हाँ में सिर हिलाते हुए वह डॉ वासुदेव की ओर देखने लगा।

‘अच्छा प्रश्न है, अंतर यह है कि ट्रांसजेंडर लोग अपनी पहचान छिपाते नही; ट्रांसवेस्टाइट पुरुष एक महिला की तरह कपड़े पहन सकता है लेकिन फिर भी एक पुरुष के रूप में पहचान रखता है,’

‘क्या सभी क्रौस-ड्रैसर्स ‘ट्रांसवेस्टिक डिसऑर्डर’ के शिकार होते हैं?’ मनीष ने पूछा; माधवी के भी कान खड़े हो गए।

‘नहीं नहीं, मनीष जी, हम ‘ट्रांसवेस्टिक डिसऑर्डर’ का निदान तब करते हैं जब लोग क्रॉस-ड्रेस करने की इच्छा के कारण बहुत परेशान होते हैं या अच्छी तरह से काम नहीं कर पाते हैं; पढ़ाई में ध्यान नहीं दे पाते या डिप्रैसड हो जाते हैं। तब उन्हें मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ती है। व्यक्ति और उसके परिवार को स्वीकार कर लेना सबसे बड़ी बात है, और फिर यदि कोई चाहे तो व्यवहार को नियंत्रित करने की। ट्रांस लोग जो जन्मजात एस्ट्रोजेन-आधारित यौवन से गुज़रते हैं, उनमें से कुछ हार्मोन-ब्लॉकर्स पर जाते हैं।’

कुछ देर तक सब मौन बैठे इस मसौदे को पचाने में लगे थे।

‘अब तक जितना मैं समझ पायी हूँ, अच्छी बात यह है कि रोहण इसे समस्या नहीं मानता। तुम इस विषय पर कुछ कहना चाहते हो? रोहण की ओर देखते हुए राधा जी ने पूछा।

‘थैंक यू, मैम, मेरी प्रॉब्लम तो बस यही है कि .. कि मेरी वजह से मेरी फैमिली परेशान है,’ माँ और मोहन को बारी बारी देखते हुए रोहण ने कहा।

‘नहीं, नहीं, हम तो बस यह जानना चाहते थे कि ..’ माधवी का गला रुँध गया। राधा जी ने मोहन और रोहण को इशारे से अपनी माँ के पास जाने को कहा। वे दोनों झट जाकर माधवी से चिपट गए। मनीष अपने मोबाइल से फ़ोटो ले रहे थे। गिरह खुल चुकी थी।

‘वन बिग ग्रुप हग, मनीष चाचा,’ अपनी माँ के गले से लटकते हुए मेधा ने अपना दूसरा हाथ मनीष के गले में डाल दिया; मोहन ने अपना मोबाइल गुलदस्ते के सहारे खड़ा कर सेल्फ़ी सेट की; जल्दी से सब एक फ़्रेम में फ़िट हो गए।

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