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– दिव्या माथुर

शाम के धुन्धलके में कुछ अधमरे से लोग एक धूसर और ठिगनी मुंडेर के इस ओर खड़े थे। मुंडेर के दूसरी ओर कुछ शिशुओं की लाशें देखी जा सकती थीं, जो स्वस्थ और अपनी उम्र से बड़े दिख रहे थे। तभी एक क़साईनुमा व्यक्ति ने एक गोल मटोल शिशु के पैर पकड़ कर घुमाते हुए उसे ज़मीन पर दे मारा। शिशु का सिर पथरीली ज़मीन से टकरा कर तरबूज़ की मानिन्द फट गया. सपाट चेहरे लिए लोग खड़े रहे जैसे कि जैसे उन्हें वहाँ खड़े रहने का श्राप मिला हो।

‘ठहरो, वह अभी मरा नहीं है,’ इकाई चीख़ी। मुंडेर फांद कर उसने लहुलुहान बच्चे को अपनी छाती से लगा लिया।

वीराने में दर्जनों माँसख़ोर भूखे खड़े थे; अलाव की आग में उनके बदन की एक एक हड्डी गिनी जा सकती थी। वे वे चाहते थे कि क़साई को माँ से छीन कर शिशु को एक बार फिर पटक देना चाहिए ताकि सब अपने-अपने घर जा सकें और कई दिनों से भूखे आदमख़ोर अपनी भूख मिटा सकें।

नहीं, नहीं,’ मृत बच्चे को अपने सीने में दबाए इकाई चीख़े चली जा रही थी। उसके पति ने बच्चे को बेरहमी से छीन कर क़साई के हवाले कर दिया और इकाई को घसीटता हुआ एक ओर चल पड़ा।

वीराने में खड़े आदमख़ोरों को इशारा मिल चुका था किंतु उनमें से किसी में भी इतनी ताकत नहीं बची थी कि वे एक या दो लाशें उठाकर अलाव तक ले आएं। एक अधमरे व्यक्ति ने अपनी सारी ताकत बटोर कर शिशु का एक पैर पकड़ लिया और ज़मीन पर खींचते हुए उसे किसी तरह कुछ दूर तक ले आया। बाक़ी के भूखे लोग उसे ईर्ष्यावश देख रहे थे; सेहतमन्द शिशु की लाश काफ़ी भारी थी; अधजले अलाव से कुछ ही दूर पहुंचा था कि उस व्यक्ति की हिम्मत जवाब दे गई। उसके ज़मीन पर धम्म से गिरते ही अन्य आदमख़ोर एक-एक कर के गिरने लगे; बासी मछली की सी उनकी बेरंग आँखें अभी भी मृत शिशुओं पर लगी थीं जिन पर अब गिद्ध मंडरा रहे थे।

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