व्यर्थ उम्मीदें

अपने हिस्से के ग़म,
ख़ुद ही सँभालने होंगे
कोई आएगा,
ऐसी तो तू उम्मीद ना कर

मंज़िलें अपने ही पैरों के
तले मिलती हैं
कोई बैसाखियाँ लाएगा,
ऐसी तो तू उम्मीद ना कर

कल तेरा, आज की कोख
में ही पनपता है
वो कहीं और से आएगा,
ऐसी तो तू उम्मीद ना कर

बहुत क़ीमती है तेरी हर बात,
इसे सँभाल के रख
कोई दूसरा भी समझ पाएगा,
ऐसी तो तू उम्मीद ना कर

हर क़दम हम क़दम मिले,
ख़्वाहिशों की तरह
उम्र भर साथ निभायेगा,
ऐसी तो तू उम्मीद न कर

सच कहने का गर शौक़ है,
तो याद रखना ‘आनंद’
सूली चढ़ने से बच पाएगा,
ऐसी तो तू उम्मीद ना कर

*****

– डॉ. नरेन्द्र ग्रोवर (आनंद ’मुसाफ़िर’)

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