माटी की सुगंध

जब अपनी माटी की गंध मुझे नहीं मिलती,
तो मैं बेचैन हो जाती हूँ,
ठीक उसी तरह,
जैसे छोटे बच्चे को अँगूठा
चूसने से रोक दिया जाए।

यह भी नहीं कि जो गंध मुझे
यहाँ की माटी में आती है,
वह अच्छी नहीं लगती,
जीने के लिए यह भी अच्छी है।
पर अंदर कहीं एक बेचैनी
रहती है पाने को,
अपनी माटी की गंध,
जिसमें पलकर मैं बड़ी हुई।
इसे भला मैं, आप या कोई
कैसे भूल सकता है?
उसमें अपनापन है, आत्मीयता है
और आंतरिक सुंदरता है।
इसीलिए जब सुनती हूँ कि वह
अभी अभी भारत से आया है,
खिंची सी उस ओर चली जाती हूँ,
पाने को उस थोड़ी सी गंध को
जो अपने साथ लाया है।
उसी को पाने को तो बेचैन रहती हूँ,
अपनी माटी की गंध।

इसी तरह जब अपनी भाषा नहीं सुनती,
तो मन बेचैन हो जाता है।
ठीक उसी तरह
जैसे किसी भूखे के सामने
हज़ारों पकवान रखकर,
खाने से रोक दिया जाये।

यह नहीं कि जो भाषा यहाँ बोलते हैं,
मुझे अच्छी नहीं लगती।
बोलने के लिये यह भी अच्छी है,
दुनिया भर में बोली जाती है,
पर कहीं अंदर एक बेचैनी रहती है,
बोलने को अपनी भाषा,
जिसे बोलकर में बड़ी हुई।
उसे भला मैं या आप,
कोई भी कैसे भूल सकता है?
उसमें अपनापन है,
आत्मीयता है,
और सहजता है।

अपने आप ही होंठ गुनगुनाने लगते हैं,
मन प्रसन्न हो जाता है,
इसीलिए जब कभी सुनती हूँ,
वह हिंदी बोलते हैं,
खिंची सी उस ओर चली जाती हूँ,
कहने को छोटी सी बात,
और सुनने को वो सारी बातें,
जो अपनी भाषा में लोग बोलते हैं,
उसी को सुनने को मैं बेचैन रहती हूँ,
अपनी भाषा की मिठास।

इसी तरह जब भीड़ में,
एक भी साँवला चेहरा नहीं देख पाती,
तो मन बेचैन हो जाता है,
ठीक उसी तरह जैसे
बच्चा अजनबी लोगों में,
अपनी माँ को न ढूँढ़ पाये।

मेरा मन बेचैन हो जाता है,
देखने को अपने ही रंग का कोई
चेहरा क्योंकि उसी एक रंग को
देखकर तो मैं बड़ी हुई।
उस रंग में अपनापन है, आत्मीयता है,
और है गहन विश्वास।
उस रंग को मैं, आप या
कोई भी कैसे भूल सकता है?
इसलिए जब कभी देखती हूँ,
कोई साँवला चेहरा,
आँखें अपने आप ही
मुस्कुरा जाती हैं और हाथ,
अपने आप ही जुड़ जाते हैं और
ओंठ अनजाने ही कह जाते हैं –
नमस्कार॥

*****

– शैल शर्मा

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