
कैनेडा में सुबह
सुबह हो गई
पग-पग
बढ़ते-चढ़ते पथ पर
भीड़ हो गई!
बोला कहीं क्या काला कव्वा?
शीत पवन में पंख जम गये
बानी-बोली सभी खो गई
सुबह हो गई॥
आँखों के आगे
बस टिक-टिक घड़ी नाचती
ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर
चीज़ें लिये सँभाले, वह भागती!
चेहरे का व्याकरण,
कार का शीशा देखेगा
और पेट की भूख
दफ़्तर जाने पर देखी जायेगी
यही सोचते-करते एक उम्र हो गई,
सुबह हो गई।
सूरज का आना या जाना
बस केवल टी.वी. से जाना,
जीवन की आशा पर बिखरे
सर्दी का यह नीम अँधेरा,
जाना-पहचाना!
एक घनी बिल्डिंग की बस्ती
कोने वाली मेज़,
जीवन की धुरी हो गई
सुबह हो गई।
की-बोर्ड पर टक-टक,
अंगुलियाँ नाचतीं,
अक्षर बुनती
आँखों के आगे नीला स्क्रीन…..
और समय का धागा उधड़े
मन के, घर के फँदे बुनते-बुनते
ऊन उम्र की ख़त्म हो गई…
सुबह हो गई……….!!
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– डॉ. शैलजा सक्सेना